सेना के नाम पर राजनीति करने में कोई पीछे नहीं
‘सीमा पर तनाव’ भारतीय चुनावों में अहम भूमिका निभाता रहा है।
राजनैतिक रूप से अतिमहत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश समेत 5 राज्यों में विधान सभा चुनाव होने हैं। इस बार सेना या ‘सीमा पर तनाव’ की बिलकुल चर्चा नहीं है। न उपलब्धियों का बखान है न कमियों पर आलोचना। सीमाओं पर जारी गतिरोध को विपक्ष ने मुद्दा नहीं बनाया तो पूर्वांचल एक्सप्रेस वे पर भव्य एयर शो, बहु प्रचारित डिफेंस कॉरिडोर के बावजूद सत्ता पक्ष इस पर चर्चा नहीं कर रहा।
देश की सुरक्षा और चुनाव प्रणाली एक दूसरे से नितांत अलग विषय हैं। फिर भी ‘सीमा पर तनाव’ भारतीय चुनावों में अहम भूमिका निभाता रहा है। सेना की बहादुरी के किस्से हमेशा सत्तारूढ़ दल के लिए वोट जुटाने में योगदान देते रहे हैं। दूसरी ओर वह दल जो सत्ता में नहीं हैं, अपने समय के सैन्य बहादुरी के किस्सों को सुना कर और वर्तमान असफलताओं को गिना कर अपने लिए वोट मांगते रहे हैं। परंतु इस बार स्थिति कुछ उलट लग रही है।
सीमा पर तनाव की चर्चा नदारद है
ऐसा नहीं है कि सीमा पर तनाव नहीं है। उत्तर में चीन के साथ पिछले 2 वर्षों से लगातार संघर्ष की स्थिति बनी हुई है। पाकिस्तान के साथ लगी सीमा पर आए दिन ड्रोन द्वारा हथियार ड्रॉप की सूचनाएं आती रहती हैं। ड्रग माफिया, आतंकवादी घुसपैठें खत्म नहीं हुई हैं। पूर्वोत्तर में चीन द्वारा हमारे इलाकों पर अवैध कब्जा जमाने, उनके चीनी नाम रखने और हमारे नागरिकों को कैद करके उनको प्रताड़ित करने के प्रयास लगातार जारी हैं। साथ ही दशकों से शांत चरमपंथ को उकसाने के प्रयास में भी चीन लगा हुआ है।
आश्चर्य की बात है कि विधानसभा चुनावों में इस बार पक्ष और विपक्ष दोनों ही इन मसलों पर बात करने से कतरा रहे हैं। उत्तर भारत के एक प्रमुख हिंदी अखबार के पत्रकार और लेखक ए के मिश्र के अनुसार चुनाव में सेना की चर्चा कम होने का प्रमुख कारण हालिया दिनों में सीमा पर किसी बड़ी घटना की अनुपस्थिति है। पुरानी घटनाओं का जिक्र वोट दिलाने की गारंटी बनेगा इसमें संदेह है। आज के समय में सेना वोट खींचने के नजरिए से फायदेमंद नही है।
कई जगह है सीमा पर तनाव
उत्तराखंड में बीते साल चीनी सेना के घुड़सवारों ने हमारी सीमा का उल्लंघन किया था, और हमारे इलाके में तोड़फोड़ मचाई थी, यह उत्तराखंड के चुनावी समर का विमर्श ही नही है।
यूपी, नेपाल के साथ एक बड़ी सीमा साझा करता है। पिछले दिनों यहां तमाम विवाद देखने को मिले। नेपाल के सिपाहियों द्वारा भारतीयों के ऊपर गोली चलाने की घटना तक हुई। इतिहास में नेपाल के साथ कभी भी इतने तल्ख रिश्ते नहीं बन पाए कि वह सशस्त्र प्रतिकार करे और हमारे इलाकों पर अपना दावा ठोक दे। लिपुलेख सीमा विवाद तो सिर्फ बानगी है।
जवानों का एक बड़ा भाग पंजाब से आता है। पाकिस्तानी अतिक्रमण का दंश पंजाब ने दशकों तक झेला है। सैनिकों की वीरता की कहानियों से पंजाब भरा पड़ा है। यहां भी इन चुनावों में सीमा पर तनाव मुद्दा नहीं है। यह आश्चर्यजनक है। बलिदानियों की यह धरती चुनावों में जवान को याद भी कर रही है तो किसानों का नाम लेकर। क्योंकि किसान इस चुनाव में शायद अधिक ताकतवर बन कर उठे हैं।
अपने नायकों तक को भुला बैठी है सियासत
रक्षा क्षेत्र को आधुनिकीकरण की दिशा में ले जाने का श्रेय पूर्व रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर को दिया जा सकता है। आज अगर हम make in India के तहत रक्षा सामानों की 68 फीसदी खरीद भारत में ही करने का प्रस्ताव केंद्रीय बजट में कर भी पा रहे हैं तो इसके पीछे पर्रीकर की स्वावलंबन की सोच ही थी। लेकिन क्या गोवा चुनावों में इसकी चर्चा है? नहीं। मजे की बात यह है कि पर्रीकर के बेटे ने ही इस चुनाव में उस भाजपा से किनारा कर लिया है जिसने कभी उनको रक्षा मंत्रालय का जिम्मा सौंपा था।
इसी तरह पूर्व रक्षा मंत्री और यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के कार्यकाल को सेनाओं में बहुत सम्मान के साथ याद किया जाता है। अपने छोटे से कार्यकाल में ही जिस तरह से उन्होंने सीमाओं का दौरा किया और सेना के जवानों के साथ कनेक्ट किया वह दोबारा कभी देखने को नहीं मिला। वह सहज ढंग से सैनिकों से बातें करके उनकी छोटी छोटी समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करते थे, ठेठ गंवई अंदाज के साथ अडिग, आत्मनिर्भर और आधुनिक सेना का उनका संकल्प किसी भी सैनिक के अंदर जोश भर देता था। मुलायम के पुत्र आज उत्तर प्रदेश के चुनावी दंगल के एक बड़े महारथी हैं किंतु सेना को लेकर मुलायम की लिगेसी को वह भी अपना नही पाए।
कश्मीर मुद्दे के नाम पर ध्रुवीकरण का खेल
कश्मीर की सुरक्षा एक ऐसा मुद्दा है जो दूरदराज के नगर निकाय चुनावों में भी माहौल बनाने में हमेशा कारगर रहता है। यह सेना के नाम पर वोट लेने और मजहब के नाम पर ध्रुवीकरण करने दोनो ही दशाओं में सफल रहता है। पिछले कुछ चुनावों में आर्टिकल 370 हटाने को सत्तरूढ दल ने खूब भुनाया। इसका फायदा भी उन्हें मिला किंतु इस बार इसका भी शोर कम है। कारण सूचना क्रांति के इस युग में लोगों को भी लगने लगा है कि राजनीति और रणनीति अलग विषय हैं। यही कारण है कि कश्मीर में प्लॉट दिलाने वाले सोशल मीडिया योद्धा भी अब इस तरह की ओछी बातों से बचते दिख रहे हैं।
दलगत राजनीति और सेना
हमारे नेता इतने समझदार हो गए हों कि वह सेना के शौर्य को अपनी उपलब्धि न दिखाएं, ऐसा नहीं है। विमान दुघर्टना में सीडीएस विपिन रावत की बीते दिसंबर असामयिक मृत्यु ने पूरे देश को सदमे की स्थिति में ला दिया था। दिवंगत सेनानायक के सम्मान के बहाने राजनीति करने के प्रयास किए गए किंतु वह सफल न रहे। आज भी आम भारतीयों के दिल में सेना दलगत राजनीति से ऊपर स्थान रखती है। इसीलिए विपक्ष, समेत सारा देश दिवंगत सेनाध्यक्ष के परिवार के साथ इस शोक की घड़ी में साथ दिखा। यहीं पर वह संभावित राजनैतिक खेल फेल हो गया।
सेना के नाम पर राजनीति करने में कोई पीछे नहीं
सेना की आड़ ले कर अपना बखान करना राजनीतिज्ञों के लिए कोई नया शगल नही है। यूपी के पिछले विधानसभा चुनाव के चंद महीने पहले 28,29 सितंबर की रात सेना द्वारा पाकिस्तानी सीमा में घुस कर की गई सर्जिकल स्ट्राइक को उस चुनाव में खूब भुनाया गया था। 2019 के लोक सभा चुनावों के ठीक पहले की गई बालाकोट एयर स्ट्राइक का महत्व उस चुनाव के लिहाज से किसी से छिपा नहीं है। विपक्ष भी सेना का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए करने में पीछे नहीं रहा है।
पुलुवामा में सैन्य काफिले पर हुए हमले को सत्ता की विफलता दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई थी। इसी प्रकार पूर्वी लद्दाख में चीन के साथ जारी गतिरोध को भी सत्ता पक्ष के खिलाफ हवा तैयार करने के लिए खूब प्रयोग किया जा रहा है, हालांकि अब तक इसमें विपक्ष को आशातीत सफलता नहीं मिली है।
सैनिकों को रास नहीं आई खादी
भारतीय सेना की सबसे बड़ी खासियत उसका गैर राजनैतिक होना है। कतिपय उच्च सैन्य अधिकारियों ने सेवा निवृत्ति के बाद जनसेवा के नाम पर राजनैतिक दलों की सेवा करने का बीड़ा उठाया। कुछ सफल हैं कुछ असफल किंतु इतना तय है कि सेना की वर्दी पहनने के बाद खादी पहनने का यह नशा ज्यादातर के लिए मृग मरीचिका ही साबित हुआ है। तभी तो किवदंती बन चुके फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ, जनरल करिअप्पा समेत तमाम महान सेनानायकों ने रिटायरमेंट के बाद खादी की नजदीकियां कभी स्वीकार नहीं करी।
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भारत में पूर्व सैनिकों की अच्छी खासी तादाद है। एक वर्ग के रूप में यह अक्सर किसी एक पार्टी के लिए लामबंद हो जाया करते हैं। जैसे बांग्लादेश युद्ध के बाद इंदिरा के साथ और पिछले चुनावों में मोदी के साथ। फिर भी समाज के विभिन्न क्षेत्रों में अच्छा दखल रखने वाला यह वर्ग अपनी सैन्य परंपराओं के अनुरूप राजनीति से दूरी बनाए रखना ही उचित समझता है। इसका कारण यह है कि अधिकांश समय कठिन अनुशासन में रहने का आदी हो चुका यह वर्ग राजनीति के दांव पेंचों को या तो समझ नही पाता, या फिर उसका शिकार हो जाता है।
सोशल मीडिया ने बदल डाला सारा खेल
परंतु धीरे धीरे ही सही परिस्थितियां बदल रही हैं। सोशल मीडिया इस बदलाव का गवाह बन रहा है। अब सैनिकों ने भी अपने दांव खेलने शुरू कर दिए हैं। किसान आंदोलन में सेना का यह कह कर प्रवेश हुआ कि जो किसान दिल्ली में सरकार के खिलाफ हैं उन्ही के बच्चे सीमा पर देश की रक्षा कर रहे हैं। जवान और किसान का इस तरह का मेल करा पाना सोशल मीडिया के बस की ही बात थी।
एक कारण यह भी है कि orop समेत कई लंबित सैन्य मामले आज तक पूर्णता की बाट जोह रहे हैं। तमाम दावों के बाद भी आज तक जमीनी स्तर पर पैरामिलिट्री के रिटायर्ड जवानों की समस्याओं को सुलझाने के लिए केंद्रीय बोर्ड क्रियान्वित नही हो पाया है। ऐसे तमाम मुद्दे हैं जिनकी गूंज अब गैर पारंपरिक मीडिया के माध्यम से समाज में सुनाई देने लगी है। इससे जागरूकता भी बढ़ी है और अपने हक के लिए खड़े होने की गुंजाइश भी। शायद इसीलिए राजनेता भी सेना को चुनाव में घसीटने से बचते दिख रहे हैं। क्योंकि सीमा पर तनाव और सैनिकों की समस्याओं पर जवाब उनको ही देना पड़ेगा।
(लेखक रिटायर्ड वायुसेना अधिकारी हैं। सामरिक और रक्षा मामलों पर तमाम चैनलों पर अपनी बेबाक राय रखते हैं)