चिपको आन्दोलन के गुमनाम हीरो
चिपको आन्दोलन ने पर्यावरण चेतना जगाने के साथ ही वैश्विक प्रसिद्धि हासिल की मगर उस आन्दोलन कीनींव के हीरो गुमनाम ही रह गये।देहरादून से वरिष्ठ पत्रकार जयसिंह रावत का लेख .
भारत तिब्बत सीमा से लगे चमोली जिले से चले चिपको आन्दोलन ने धरती के कोने-कोने तक पर्यावरण चेतना जगाने के साथ ही वैश्विक प्रसिद्धि अवश्य हासिल की मगर उस आन्दोलन की नींव में ईंट-गारे भरने वाले गोविन्दसिंह रावत, शिशुपाल सिंह कुंवर और घनश्याम रतूड़ी जैसे कई प्रकृति पुत्र गुमनाम ही रह गये। अफ्रीकी महिला पर्यावरण कार्यकर्ता वंगारी मुता मथाइ को नावेल पुरस्कार तक मिल गया। भारत में भी पुरस्कार पाने का अचूक नुस्खा पर्यावरण ही है लेकिन चिपको आन्दोलन की जननी गौरा देवी को मरणोपरान्त पद्मश्री की मांग तक किसी ने नहीं की।
चिपको का जन्म 244 साल पहले
देखा जाय तो 26 मार्च 1974 को चमोली जिले की सीमान्त नीती घाटी के रेणी गांव में जन्मे चिपको आन्दोलन से ठीक 244 साल पहले ही सन् 1730 में राजस्थान के खेजड़ली गांव की अमृता देवी ने विश्नोई समाज की महिलाओं के साथ पेड़ों से चिपक कर वृक्ष रक्षा का एक अतुलनीय उदाहरण प्रस्तुत कर दिया था। उस आन्दोलन में वृक्षों को बचाने के लिये अमृता देवी और उनकी पुत्रियों से समेत 363 लोगों ने अपने प्राण गंवा दिये थे। लेकिन इतनी शहादतों के बाद भी अमृता देवी का वह संदेश उस तरह नहीं फैल सका जिस तरह गौरा देवी के अहिंसक प्रतिकार का संदेश विश्व के कोने कोने तक पहुंचा।
रेणी से पहले जून 1973 में वनान्दोलन केदार घाटी के रामपुर फाटा के जंगलों में सफल हो चुका था। उस आन्दोलन के नायक ब्लाक उप प्रमुख केदारसिंह रावत थे। वहां चिपको नेताओं ने तरसाली गांव के दयानन्द को पेड़ काटने वालों के पहुंचते ही शंख बजाने की जिम्मेदरी दे रखी थी। उससे भी पहले चण्डी प्रसाद भट्ट और आनन्द सिंह बिष्ट आदि सर्वोदयी नेताओं की प्रेरणा से चमोली के जिला मुख्यालय गोपेश्वर से 13 किमी दूर मण्डल घाटी में 24 अप्रैल को पेड़ों पर चिपके बिना ही पेड़ काटने वालों को जंगल से भगा दिया गया था। इस स्थानीय आन्दोलन के नायक वहां के ग्राम प्रधान आलमसिंह बिष्ट थे जिनको शोसित समाज दल के नेता बचनलाल और सामाजिक कार्यकर्ता विजय दत्त शर्मा का सहयोग था। लेकिन जो प्रसिद्धि गौरादेवी के नेतृत्व में रेणी गांव में चले आन्दोलन को मिल किसी अन्य को नहीं मिली।
रेणी के चिपको आन्दोलन की बुनियाद गोविन्दसिंह रावत ने रखी
चिपको आन्दोलन के प्रणेता भी चण्डी प्रसाद भट्ट आदि सर्वोदयी नेता अवश्य थे मगर इसकी असली बुनियाद रखने वाले जोशीमठ के ब्लाक प्रमुख कामरेड गोविन्दसिंह रावत ही थे जिनको हयात सिंह और वासवानन्द का सहयोग मिला था।
क्षेत्र विकास समिति के निर्वाचित प्रमुख होने के नाते गोविन्द सिंह भारत-तिब्बत सीमा से लगे इस सीमान्त क्षेत्र में जबरदस्त पकड़ थी। गोविन्दसिंह रावत भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता थे और 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद कम्युनिस्टों पर चीन समर्थक होने के आरोप लगते थे।
आन्दोलन में चण्डी प्रसाद भट्ट के साथी रहे रमेश गैरोला पहाड़ी के अनुसार सर्वोदय के ही कुछ लोगों ने आन्दोलन में कम्युनिस्टों की सक्रियता के बारे में तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवती नन्दन बहुगुणा के कान भरने का प्रयास भी किया था। लेकिन चण्डी प्रसाद भट्ट बखूबी जानते थे कि इस सीमान्त जनजातीय क्षेत्र में गोविन्द सिंह रावत के सहयोग के बिना आन्दोलन सफल नहीं हो सकता। इसलिये उनकी विचारधारा की अनदेखी कर सर्वोदयी गोविन्दसिंह के पीछे हो लिये थे।
पेड़ों की रक्षा के लिये सबसे पहला प्रस्ताव और लाल निशान
अप्रैल 1973 में श्रीनगर में आयोजित श्रीनगर विकास गोष्टी के दौरान चंडी प्रसाद भट्ट ने गोविन्दसिंह रावत को बताया था कि रैणी का जंगल भी 4 लाख 71 हजार में बिक चुका है। जिसके बाद इन दोनों ने पेड़ों को बचाने के लिए रणनीति तैयार की।
दरअसल मण्डल और केदार घाटी में पेड़ों के कटान के प्रयास विफल हो जाने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने जब जोशीमठ ब्लाक के ढाक नाले से लकर रेणी गांव तक के जंगल में 2451 देवदार, कैल, सुरई आदि के पेड़ जंगल के ठेकदार को कटान के लिये आबंटित कर दिये तो सबसे पहले जोशीमठ क्षेत्र विकास समिति (ब्लाक) की फरबरी 1974 की बैठक में ब्लाक प्रमुख गोविन्द सिंह रावत ने इस आबंटन के विरोध में प्रस्ताव पारित कर क्षेत्र की जनता को वनों के कटान के विरुद्ध एकजुट होने का आवाहन कर दिया था। इसके बाद गोविन्दसिंह रावत द्वारा अक्तूबर 1973 में पीले कागज पर लाल अक्षरों में रेणी क्षेत्र में होने जा रहे वन कटान के खिलाफ एक बहुचर्चित पर्चा क्षेत्र में बंटवा दिया। पर्चे का शीर्षक ‘‘ चिपको आन्दोलन का शुभारंभ’’ था, और उप शीर्षक था, ‘‘आ गया है लाल निशान, लूटने वालो सावधान, वन व धरती बढ़ कर रहेगी, भूखी जनता चुप नहीं रहेगी’’। इस पर्चे में 12 मार्च 1974 को जोशीमठ में ‘‘चिपको आन्दोलन ’’ शुरू करने की घोषणा की गयी थी। पर्चे में निवेदक स्वयं गोविन्द सिंह रावत थे जबकि विनीत में रामसिंह राण और बचन सिंह डंगरिया सहित जोशीमठ के समस्त ग्राम प्रधान लिखा गया था। इससे जाहिर है कि रेणी में महिलाओं द्वारा पेड़ों से चिपक कर कर पेड़ बचाने से पहले ही 12 मार्च को गोविन्द सिंह रावत ने चिपको आन्दोलन शुरू कर दिया था। हालांकि उन पर वरदहस्त चण्डीप्रसाद भट्ट का ही था। पर्चे के साथ ही उन्होने जोशीमठ से लेकर नीती घाटी के दर्जनों गांवो की पदयात्रा शुरू की और पीले पर्चे और एक चेलेंजर से लोगों को पेड़ बचाओ, पहाड़ बचाओ की बात कही।
पदयात्रा में स्वयं चण्डी प्रसाद भट्ट, हयात सिंह और वासवानन्द भी शामिल हुये। उन्होंने लोगों को समझाया कि जंगलों के खत्म होने पर होने वाले नुकसान से लेकर भूस्खलन, पानी, चारा के संकट हो जायेगा। उनकी चेतावनी 7 फरबरी 2021 को ऋषिगंगा-धौली गंगा की बाढ़ सही साबित हो गयी। अब तो रेणी गांव का अस्तित्व ही संकट में है।
सन् 1962 के भारत चीन युद्ध के बाद चीन से लगी सीमा क्षेत्र में लाल निशान वाले पर्चों का बंटना शासन प्रशासन को बेचैन करने वाला था। पर्चे की गूंज जब लखनऊ और दिल्ली तक पहुंची तो फिर सर्वोदयी नेताओं ने भी रेणी के जंगल को काटने के निर्णय के विरुद्ध एक पर्र्चा वितरित किया मगर आन्दोलन को नेतृत्व स्थानीय लोगों के हाथों में ही रहने दिया। इन स्थानीय लोगों की अगुवाई गोविन्द सिंह रावत ही कर रहे थे और उनकी ही प्रेरणा ने 26 मार्च को रेणी की महिला मंगल दल की अध्यक्षा गौरा देवी के नेतृत्व में महिलाओं ने कुल्हाडियों और आरियों से डरे बिना पेड़ों से चिपक कर और पेड़काटने वालों को भगा कर एक इतिहास रच दिया।
उस दिन प्रशासन ने चण्डी प्रसाद भट्ट और अन्य सर्वोदयी नेताओं को को उलझा कर गोपेश्वर में रखा हुआ था ताकि वह अपने साथियों के साथ रेणी न जा सकें। उस दौरान आनन्द सिंह बिष्ट भी इस आन्दोलन में चण्डी प्रसाद भट्ट के समकक्ष ही थे। भट्ट की टीम में महेन्द्र सिंह कुंवर, रमेश पहाड़ी, शिशुपाल सिंह कुंवर, कल्याण सिंह रावत, सच्चिदानन्द भारती और अल्मोड़ा से उत्तराखण्ड वाहिनी के नेता शमशेरसिंह बिष्ट जैसे युवा शामिल थे।
इस आन्दोलन की सफलता के बाद उत्तर प्रदेश के राज्यपाल ने डा0 वीरेन्द्र कुमार की अध्यक्षता में जब 9 सदस्यीय रेणी जांच समिति गठित की तो उसमें वन निगम के अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह भण्डारी और विधायक गोविन्द सिंह नेगी के साथ ही विभागीय आला अफसरों के अलावा चण्डी प्रसाद भट्ट के साथ ही गोविन्द सिंह रावत को भी शामिल किया गया था। इसके बाद मुख्य समिति के अधीन एक उपसमिति का गठन किया गया जिसमें पुनः चण्डी प्रसाद के साथ ही गोविन्द सिंह रावत को भी सदस्य रखा गया। जो कि चिपको आन्दोलन में गोविन्द सिंह रावत की महत्वपूर्ण भूमिका का पुख्ता सबूत है।
ऑंदोलन विश्व भर में फैला
चमोली जिले के हिमालय से चला यह पर्यावरण आन्दोलन न केवल दक्षिण भारत के केरल और कर्नाटक अपितु स्विट्जरलैण्ड, फ्रांस, मैक्सिको, डेनमार्क, आस्ट्रेलिया, कनाडा, और मलेशिया समेत धरती के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंच गया। इस आन्दोलन के दबाव में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार को पहाड़ी क्षेत्रों में वनों के व्यावसायिक कटान पर 10 साल की रोक लगानी पड़ी . इसी प्रकार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने हिमालय में वनों के व्यावसायिक कटान पर 15 वर्षों की रोक लगानी पड़ी। इसी आन्दोलन आन्दोलन के बाद भारत में 1980 को बहुचर्चित वन अधिनियम आने के साथ ही 1988 की वन नीति भी आई। यद्यपि 1972 में स्वीडन के स्टाॅकहोम से विश्व स्तर पर पर्यावरण सम्मेलन की शुरूआत हो गयी थी मगर चिपको आन्दोलन के बाद वैश्विक स्तर पर इस अभियान को गति अवश्य मिली। इसलिये चिपको आन्दोलन के उन भूले बिसरे नायकों का स्मरण किये बिना चिपको आन्दोलन की महिमा अधूरी ही रहेगी।
जीवनभर गरीबों और प्रकृति की बेजुबान कृतियों की आवाज बने रहे गोविन्द सिंह का जन्म नीति घाटी के कोषा गांव में 23 जून 1935 को चंद्रा देवी और उमराव सिंह रावत के घर हुआ था। वह भोटिया जनजाति के थे। चार साल की उम्र में ही माता का साया सिर से उठ जाने के बाद उन्होंने बहुत ही कठिन परिस्थितियों में जीवन सफर शुरू किया। वह 25 साल की उम्र में 12 वीं की कक्षा उत्तीर्ण कर पाये। उन्हें पटवारी जैसे पद भी मिले मगर उनको तो गरीब और मेहनतकश की आवाज बनना था। वह 1 फरवरी तक 1978 तक वे ब्लाक प्रमुख रहे। 19 नवम्बर 1988 को वह दुबारा सीमान्त ब्लाक जोशीमठ के ब्लाक प्रमुख चुने गए, और दिसम्बर 1996 तक इस पद पर रहे। अलग राज्य निर्माण के आन्दोलन में भी उन्होंने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। जीवनपर्यंत लोगो के लिए लड़ने वाले गोविन्द सिंह रावत 21 दिसम्बर 1998 को दुनिया को छोड़ कर चल बसे और अपने पीछे छोड़ चले चिपको की अनमोल दास्तान।
चिपको के जन्मदाताओं के बारे में मीडिया में परस्पर विरोधी लेख और समाचार छपते रहते हैं। जबकि इस आन्दोलन में एक नहीं अपितु अनेक लोगों का योगदान रहा। प्रख्यात चिपको नेता सुन्दरलाल बहुगुणा ने ‘‘गंगा का मैत बिटी’’ काव्य संग्रह की प्रस्तावना में लिखा है कि ‘‘चिपको आन्दोलन शायद गोपेश्वर के मण्डल जंगल में ही केन्द्रित हो जाता अगर मई के प्रथम सप्ताह में घनश्याम सैलानी कुछ अन्य सर्वोदय सेवकों के साथ वहां से नैल-नौली होते हुये ऊखीमठ की पैदल यात्रा पर न निकल पड़ते।
पड़ाव के हर गांव में वह लोगों का उद्बोधन करते।’’ वास्तव में इस वाकये का उल्लेख गांधी शांति प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित पुस्तक में भी हुआ है। जिसमें कहा गया है कि 3 मई को सुन्दर लाल बहुगुणा के नेतृत्व में गोपेश्वर से पदयात्रा टोली रवाना हुयी जिसमें राजीव बहुगुणा, घनश्याम रतूड़ी ‘सैलानी’ आनन्द सिंह बिष्ट और माक्र्सवादी नेता मनवरसिंह बिष्ट शामिल थे, जिसका उद्ेश्य चिपको आन्दोलन को गांव-गांव तक पहुंचाना था। लोक कवि घनश्यम सैलानी के गीतों ने वास्तव में चिपको आन्दोलन में उत्प्रेरक का काम किया। उनके पर्यावरण चेतना संबंधी गीत आकाशवाणी लखनऊ से नियमित प्रसारित होते थे।