यह मन क्या है?

 

यह मन क्या है?

महेश चंद्र द्विवेदी 

क्यों गहराता है इसमें कभी,
एक सुरंग का सा अन्धकार?
क्यों बंद हो जाते हैं, जैसे
प्रकाश के समस्त द्वार?
जहाँ एक भटकी किरण भी,
घुसने में सहम-सहम जाती है,
सूर्य की धूप और
चाँद की चांदनी में भी,
केवल अनंत शून्य की
कालिमा नज़र आती है.
और जितने भी खोलें हम,
गुंथते जाते हैं तिमिर तार,
क्यों गहराता है इसमें कभी,
एक सुरंग का सा अन्धकार?

क्यों कभी छा जाती है,
इसमें श्मशान सी शांति?
जिसमे चिडियां चहचहाने से
पत्ते खड़खड़ाने से भय खाते हैं,
रात्रि में डाल पर बैठे उलूक भी
सहसा सहम कर चुप हो जाते हैं.
कर्णकटु कोलाहल में भी,
सूनापन रहता है अभेद्य अनंत.
क्यों कभी छा जाती है,
इसमें श्मशान सी शांति?

क्यों कभी होने लगता है
इसमें शंकर का तांडव नृत्य?
बजने लगते हैं ढोल और नगाड़े
जलने लगतीं है बहुरंगी शलाकाएँ,
उछलते कूदते हैं पिशाच व डाकिनी
लेकर नरमुंड और कटी फटी भुजाएं.
ज्यों शंकर के गर्जन से,
कम्पित हो विश्व का अस्तित्व.
क्यों कभी होने लगता है
इसमें शंकर का तांडव नृत्य?

क्यों बजतीं हैं कभी
नीरवता में मंदिर की घंटियाँ इसमें?
क्यों महकते हैं पुष्प, धूप और चंन्दन
क्यों गूंजते पुजारी के श्लोक और वंदन?
क्यों लगता है
कृष्ण ने वंशी को होंठो पर साधा,
और निहार रहीं हों
उन्हें तिरछे नयनो से राधा?
पुष्पित होने लगती हैं मंजरी,
बहने लगते हैं झरने.
क्यों बजतीं हैं कभी
मंदिर की घंटिया इसमें?

मानव मन महासागर
सम है अनन्त और अथाह,
जिसमें आइसबर्ग सम
दृष्टव्य है केवल चेतन.
हमारे अनुभवों, आशाओं, कुंठाओं
का भंडार है अवचेतन.
वही भरता है चेतन मन में
अशांति और अंधकार,
बजाता है मंद मंद घंटियाँ
या करता है तांडव साकार.
और फिर जिज्ञासा करता है स्वयं ही
कि “यह मन क्या है?”

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