अखंड दर्शन से मोह-शोक नहीं होता
आज का वेद चिंतन विचार
संत विनोबा ईशावास्य उपनिषद के 7वें मंत्र पर कहते हैं कि आज सुबह हम जगन्नाथ दास का भागवत पढ़ रहे थे।
उसमें श्रीकृष्ण के अंतकाल के समय कवि कहता है कि अब मैं अनाथ हो गया हूं। उसने देखा कि वह धागा खंडित हो गया है।
लेकिन वह उसने उपासना के कारण देखा, ज्ञान के कारण नहीं। उपासना में ऐसा आभास हो सकता है कि वह धागा जो सारी दुनिया को पिरो रहा था वह टूट गया।
ऐसा एक क्षण के लिए भी अनुभव हो तो वह भक्त उस क्षण अपने को अनाथ महसूस करेगा। परंतु ज्ञान में एकत्व कभी खंडित नहीं होता। ज्ञानी का दर्शन अखंड दर्शन है।
*एकत्वम अनुपश्यत:*- उसे निरंतर एकत्व दिखाई देता है, एकत्व का अनुदर्शन होता है।
तुकाराम ने लिखा है, *अखंड न खंडे, अभंग न भंगे*। *तुका म्हणे गंगा मिलनी सिंधु* – वह ऐसा अखंड है कि खंड नहीं होता है, ऐसा अभंग है कि भंग नहीं होता है।
जैसे गंगा सिंधु को मिल रही है। गंगा समुद्र को अखंड मिलती रहती है, सतत मिलती रहती है, चौबीसों घंटे मिलती रहती है। उसकी मिलन की क्रिया में खंड नहीं।
अद्वैत भी जारी है और द्वैत भी क्रिया भी जारी है, मिलने की क्रिया सतत जारी है। उसका यह मिलन प्रवाहात्मक है।
इस भजन में एक खूबी है कि अखंड दर्शन कायम रहकर क्रिया भी कायम रखी है। गंगा सिंधु को मिल रही है।
उद्गम से अंत तक कि उसकी सारी क्रियाओं में कहीं भी खंड नहीं। उसका प्रतिक्षण समुद्र को ढूंढना और प्रतिक्षण समुद्र से मिलन चल रहा है।
समुद्र की तलाश में बह भी रही है और समुद्र से मिल भी रही है। एक अंग से समुद्र को ढूंढ रही है और एक अंग से समुद्र को मिल रही है।
अमृत के समान मधुर है, तुकाराम का वह अभंग। इतने सुंदर शब्दों में अनुभव लिख दिया है।
तो यहां कहा है कि जो ज्ञानी एकत्व को सतत देखता रहता है, जो एकत्व को ही देखता है, उसको मोह और शोक कहां से होगा?
वह मोह और शोक से अभिभूत नहीं होगा। जहां आसक्ति है वहां मोह और शोक होते हैं। मोह और शोक के कारण हैं – प्रियजन का वियोग और संयोग।
अहंकार के कारण अपने को देहस्वरूप मानता है और दूसरे को भी देहस्वरूप मानता है और दूसरों से अपने को अलग पाता है।
गीता में अर्जुन की भूमिका ऐसी बतायी है। शोक और मोह से उसका ज्ञान अभिभूत हो गया था। उसे स्वजनसंहार के कारण शोक था। उसका कर्तव्यभाव लोप हो गया था।
पहले के मंत्र में कहा, आत्मज्ञानी को किसी भी प्रकार की अरुचि नहीं। इस मंत्र में कहा, वह शोक-मोह से रहित हो गया।
यह चिंतन का विषय है। *चिंतने चिंतने तद् रूपता* – सतत् चिंतन करते करते तदरूपता हो जाती है।
विज्ञान कहता है कि यह सारा अणु-परमाणु का खेल है जबकि तुलसीदास जी कहते हैं – *यह चिद् विलास का जग ,बूझत बूझत बूझे*। चैतन्य का विलास है।
मनुष्य इस बात को एकदम से तो नहीं समझेगा परंतु *बूझत बूझत बुझे* समझते-समझते समझ जाएगा। एक-एक कदम बढ़ते-बढ़ते समझेगा।