संयुक्त राष्ट्र का भारत व हिन्दी विरोधी रुख यथावत

दीपक मिश्र

दीपक मिश्र

संयुक्त राष्ट्र संघ अपने गठन के पचहत्तर वर्ष पूरे कर रहा है। यह वर्ष यूएनओ का हीरक-वर्ष है। अक्टूबर 24, 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ आधिकारिक रूप से अस्तित्व में आया था।

इसे दुनिया का लघु संसद माना जाता है, कई अर्थों में यूएनओ है भी। इस समय 223 संप्रभु देशों में 193 देश संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य हैं।

संरास की स्थापना द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त वैश्विक नेताआंे द्वारा इस ध्येय से की गई थी कि दोबारा विश्व को युद्ध की विभीषिका जैसे दुर्दिन व दुर्भाग्य देखना न पड़े।

संयुक्त राष्ट्र संघ घोषणा-पत्र (चार्टर) की प्रस्तावना में स्पष्ट शब्दों में लिखा है-‘‘हम संयुक्त राष्ट्र संघ के लोग आने वाली पीढ़ियों को युद्ध की विभीषिका से बचाने का संकल्प लेते हैं।

हम बुनियादी मानव अधिकारों में अपनी आस्था को एक बार फिर दोहराते हैं।

हम पुरुषों एवं महिलाओं और बड़े एवं छोटे देशों के समान अधिकारों में अपने विश्वास को एक बार फिर रेखांकित करते हैं।’’
आइए, दुनिया के सबसे बड़े संगठन जिसे विश्व-सरकार की संज्ञा दी जा सकती है, की विवेचना भारत व हिन्दी के परिप्रेक्ष्य में करते हैं।

भारत व हिन्दी की कसौटी पर संयुक्त राष्ट्र संघ स्थापना-काल से ही प्रश्न-चिन्ह के दायरे में है।

जनसंख्या के दृष्टिकोण से दूसरा सबसे बड़ा देश होने के बावजूद भारत संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता से वंचित है।

संयुक्त राष्ट्र घोषणा पत्र के अनुसार अन्र्तराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की जिम्मेदारी सुरक्षा परिषद की है।

स्थापना के समय सुरक्षा परिषद के सदस्यों की संख्या ग्यारह थी, जिसे 1965 में बढ़ाकर पंद्रह कर दिया गया।

तमाम आग्रहों को दरकिनार करते हुए स्थाई पांच सदस्यों की संख्या में कोई वृद्धि गत पचहत्तर वर्षों में नहीं की गई।

पांच स्थाई सदस्यों में चीन को छोड़कर सभी की जनसंख्या भारत से और अमरीका को छोड़ दिया जाय तो अन्य सदस्यों, रूस, ब्रिटेन व फ्रांस की आबादी भारत के प्रांत उत्तर प्रदेश से भी कम है।

सुरक्षा परिषद के मात्र पांच स्थायी सदस्यों को ही निषेधाधिकार (वीटो) प्राप्त है।

नवम्बर 14, 1970 को भारत सहित 19 गुटनिरपेक्ष देशों ने परिषद के सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 21 करने का प्रस्ताव महासभा में रखा था ताकि दुनिया के देशों को परिषद में समुचित प्रतिनिधित्व प्राप्त हो सके। यह प्रस्ताव अभी तक मूर्तरूप नहीं ले सका।

संयुक्त राष्ट्र संघ में 22 सितम्बर 2004 को की गई भारत, ब्राजील, जापान, जर्मनी की स्थाई सदस्यता हेतु दावेदारी सैद्धान्तिक रूप से सही व समीचीन है।

भारत की दावेदारी को यूएनओ द्वारा नकारना लोकतांत्रिक तकाजों का खुला उल्लंघन है।

सुनने में ही असहज लगता है कि जब यूएन के सदस्य देशों की संख्या 51 थी तब भी सुरक्षा परिषद के पांच स्थाई सदस्य थे।

आज सदस्य संख्या लगभग चार गुणी बढ़ने के बाद भी यह संख्या पांच ही है। यह लोकतंत्र का प्रहसन नहीं तो क्या है।

वीटो अपने आप में अलोकतांत्रिक व विभेदकारी प्रावधान है।

लोहिया वीटो के खिलाफ थे, उनका अनुगमन करते हुए वर्ष 2003 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के 58वें अधिवेशन में भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने यूएनओ में सुधार हेतु तीन सूत्रीय फार्मूला प्रस्तुत किया था जिसमें यह कहा गया है कि वीटो शक्ति वर्तमान विश्व अपनी सार्थकता पूर्णतया खो चुकी है।

चीन ने एक आतंकी को बचाने व भारत को चिढ़ाने के लिए वीटो का दुरुपयोग किया था।

वीटो अपने आप में संयुक्त राष्ट्र संघ घोषणा पत्र व उद्देशिका के पूर्णतया प्रतिकूल है।

मोदी जी को लोहिया-अटल फार्मूले पर कार्य करना चाहिए और संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधार हेतु व्यापक तथा सघन अभियान चलाना चाहिए।
हिन्दी के संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र संघ का रवैया उपनिवेशवादी व आपत्तिजनक है।

दूसरे शब्दों में कहें कि यूएनओ हिन्दी विरोधी है तो यह कथन गलत नहीं होगा।

हिन्दी बोलने वालों की संख्या अंग्रेजी व मंदारिन (1.13 व 1.12 बिलियन) के बाद सर्वाधिक है।

615 मिलियन अर्थात 61.5 करोड़ लोग हिन्दी बोलते हैं, यह संख्या रूसी बोलने वालों से ढाई व फ्रैंच भाषियों से दोगुणी है फिर भी हिन्दी को आधिकारिक महत्व नहीं है और फ्रेंच व रूसी को आधिकारिक दर्जा मिला हुआ है।

मूल संयुक्त राष्ट्र घोषणा पत्र के अन्तर्गत चीनी, अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी और स्पेनिश को आधिकारिक दर्जा मिला हुआ था।

छठी आधिकारिक भाषा के रूप में अरबी भाषा को महासभा द्वारा 1973, सुरक्षा परिषद द्वारा 1982 तथा आर्थिक एवं सामाजिक परिषद द्वारा 1983 में आधिकारिक रूप में स्थापित किया गया।

संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी महत्वपूर्ण दस्तावेज इन्हीं 6 भाषाओं में प्रकाशित व प्रसारित होते हैं। सर्वविदित है कि हिन्दी केवल भारत की परिधि तक ही सीमित नहीं है।

मारीशस, फीजी, ट्रिनीडाड में हिन्दी प्रथम तीन भाषाओं में शुमार है। अमरीका, नेपाल, बांग्लादेश, ब्रिटेन, कनाडा, जर्मनी, न्यूजीलैण्ड, रूस, संयुक्त अरब अमीरात, दक्षिण अफ्रीका सदृश देशों में हिन्दी भाषियों की संख्या उल्लेखनीय स्तर पर है।

संयुक्त अरब अमीरात के न्यायालयों में हिन्दी को आधिकारिक महत्व प्राप्त है। स्वयं संयुक्त राष्ट्र संघ सोशल मीडिया के महत्वपूर्ण माध्यमों ट्वीटर, फेसबुक आदि पर हिन्दी में आधिकारिक रूप से 11 जुलाई 2018 से उपलब्ध है।
दुनिया भर के हिन्दीभाषी गत कई वर्षों से संयुक्त राष्ट्र संघ साधारण सभा की धारा-51 व सुरक्षा परिषद कार्यवाही अधिनियम की धारा-41 में संशोधन तथा हिन्दी को आधिकारिक भाषा का दर्जा देने की मांग कर रहे हैं।

हिन्दी व भारत की उपेक्षा एक मानक अथवा मानदण्ड है जिससे विश्वपंचायत (यूएनओ) की विभेदपूर्ण सोच व कार्यप्रणाली प्रतिध्वनित एवं प्रतिबिम्बित होती है।

महात्मा गांधी, अल्बर्ट आइंस्टीन व पंडित जवाहर लाल नेहरु के अनुसार अन्र्तराष्ट्रीय मामलों के महान मर्मज्ञ राममनोहर लोहिया ने 11 फरवरी 1950 को कहा था, ‘‘संयुक्त राष्ट्र संघ गैर-सैद्धान्तिक और असमान प्रतिनिधित्व के कारण विश्व-चेतना का निर्णायक मंच नहीं बन सकता।’’ जो आशंका लोहिया ने 1950 में व्यक्त की थी, अक्षरशः सही सिद्ध हुआ।

यूएनओ असमान प्रतिनिधित्व के कारण विश्व के सभी देशों के मन में वह स्थान नहीं बना पाया जो अभीष्ट है।

मैं इस आशंका से इंकार नहीं कर सकता कि लोकतंत्र व समाजवादी मूल्यों की उपेक्षा के कारण कहीं संयुक्त राष्ट्र संघ का हाल व हश्र लीग ऑफ नेशन्स जैसा न हो।

मैंने हिन्दी व भारत के सम्मान के लिए कई पत्र लिखे, कम्बोडिया, मेडागास्कर, भारत, मारीशस व थाईलैण्ड में यूएनओ-कार्यालय का घेराव भी किया, किन्तु संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधार दूर की कौड़ी ही नजर आ रही है।

भारत सुरक्षा परिषद का अस्थाई सदस्य निर्वाचित हो चुका है, इस पड़ाव का प्रयोग स्थाई सदस्यता के लिए किया जा सकता है।

मोदी जी ने यूएनओ के मंच से हिन्दी में कई बार बोला है किन्तु हिन्दी के लिए भी बोलते तो राष्ट्र-मन को और अधिक प्रसन्नता मिलती।

वर्तमान महासचिव एण्टानिओ मैनुअल डी ओलिविरा गुटरस सोशलिस्ट इण्टरनेशनल के अध्यक्ष रह चुके हैं।

उम्मीद है कि उनकी अगुवाई में लोकतांत्रिक समाजवादी सिद्धान्तों पर संयुक्त राष्ट्र चलेगा और शीर्घ ही भारत सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य एवं हिन्दी आधिकारिक दर्जा प्राप्त भाषा होगी।

वीटो प्रावधान हटाने से कमजोर देशों का विश्वास संयुक्त राष्ट्र में और अधिक गुणात्मक रूप से बढ़ेगा।

भारतीय गणराज्य के प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी, विदेश मंत्री सुब्रहमण्यम जयशंकर एवं यूएनओ में भारत के प्रतिनिधि टीएस तिरुमूर्ति भारत व हिन्दी के वैश्विक समर्थकों, सहयोगियों व शुभैच्छुओं को एकजुट कर हिन्दी एवं भारत की लड़ाई को मंजिल तक पहुँचायें।
उम्मीद है कि संयुक्त राष्ट्र संघ पचहत्तरवें वर्ष में अपनी कार्यप्रणाली व सांगठनिक प्रारूप में सुधार कर स्वयं को नियामक संस्था बनाने में सफल होगा।

संयुक्त राष्ट्र संघ को लीग आॅफ नेशन्स की विफलता से सबक लेना चाहिए।
(लेखक संयुक्त राष्ट्र हिन्दी जनअभियान के अध्यक्ष हैं)

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