आज का वेद चिंतन विचार
ऋग्वेद में कवि की व्याख्या बहुत सुंदर की है।
ब्रह्मा देवानाम पदवी:कवीनाम ऋषिविप्राणाम महिशो मृगा नाम श्येनो गृध्रानाम स्वधिती र्वनानाम् सोम:पवित्र मत्येति रेभन्।
सोम परमात्मा मानो गर्जना करता हुआ पवित्र हृदय में से प्रकट होता है।
जो सोम देवों में ब्रह्मदेव है, कवियों में प्रदज्ञ है, विप्रो में ऋषि है, मृगों में सिंह है ,गृध्रों में श्येन है, और जंगल में कुल्हाड़ी है।
गीता के विभूति योग का मूल इस मंत्र में है।
सोम यानी परमात्मा, यह मुख्य अर्थ तो यहां है ही। साथ – साथ, सोम- रस पवित्र ऊन में से प्रकट होता है ऐसा अर्थ भी है ।
चंद्र पवित्र आकाश में से प्रकट होता है। सोमरस उनमें से छाना जाता है। चंद्रकिरण भी मानो आकाश के फिल्टर में से निकल कर हमें नहीं मिलते ?
देवों में श्रेष्ठ ब्रह्मा है, जिन्हें धर्म का साक्षात्कार हुआ है ,ऐसे दृष्टा ऋषि विप्रो में श्रेष्ठ हैं, और कवियों में श्रेष्ठ वे हैं जो पद तक पहुंच गए हैं।
ऐसे पद प्राप्त पुरुष को पदवी शब्द लागू होता है। वे पद वित या पदग्य कहलाते हैं।
जो पदवी तक पहुंच गया है, वह ऊपर पहुंचकर चारों तरफ नजर फेंकता है, उसे ही समग्र दर्शन होता है।
ऊपर चढ़कर देखने से व्यापक दर्शन होता है ।
जो लोग विचारों से ऊपर उठ जाते हैं ,जो उदासीन, उत-आसीन साक्षी रूप होते हैं, वे उत्तम दर्शन और सम्यक दर्शन कर सकते हैं।
कवि यानी क्रांतदर्शी ऐसा निरुवत कहता है। क्रांतदर्शी यानी पारदर्शी,देह का पर्दा हटाकर उस पार जो देख सकता है।
कवि: क्रांतदर्शी का एक अर्थ यह भी है कि कवि बहुत ही अस्पष्ट भी देखता है।
पशु से इतर कौन
जो स्पष्ट वस्तु है उसे तो हर कोई देखता है, पशु भी देखता है।
पशु का मतलब ही है – पश्यति इति पशु : । जिसे देखे बिना भरोसा नहीं होता वह पशु है। वह चिंतन से कोई बात नहीं मानता । सबूत दिखाओ।
कवि का चिंतन हमेशा अस्पष्ट होता है। उसके काव्य की गहराई वह खुद नहीं जानता।
कवि को जो सूझता है , वह उसके स्पष्ट चिंतन के बाहर की चीज है।
कोई चीज उसे प्राप्त होती है। वह कुछ बनाता नहीं, रचना नहीं करता। सहज ही उसको वह चीज मिल जाती है।