आज का वेद चिंतन विचार

*उर्वश्यामभयं ज्योतिरिंद्र मा नो दीर्घा अभि नशन्तमिस्राः (2.5.3)*
ये दीर्घ तमिस्राएं हमें तकलीफ न दें। तमिस्रा यानी रात्रि।
इस पर से लोकमान्य तिलक ने अर्थ निकाला कि वैदिक ऋषि उत्तर ध्रुव पर रहते थे, वहां छः माह की रात्रि होती है।
इसलिए ऋषि भगवान से प्रार्थना करते थे कि इन दीर्घ रात्रियों से हमें मुक्ति दो। यह आधिभौतिक अर्थ हुआ।
आध्यात्मिक अर्थ करते तो होता- इस अविद्यारूपी दीर्घ रात्रि से, जिसमें से हम सैकड़ों जन्म लेकर बह रहे हैं, हमें मुक्त कर।
दीर्घ तमिस्रा (लंबी-लंबी रातें) मुझ पर आक्रमण न करें, अत्यंत व्यापक अभय ज्योति मुझे प्राप्त हो यानी हमें परमात्मज्योति प्राप्त हो।
जैसे दीर्घतमस् ऋषि को दीर्घ अंधकार से आना पड़ा, या जैसे तुकाराम को अनेक यातनाओं से गुजरना पड़ा, वैसा अनुभव हमें न हो।
हम इन दीर्घ तमिस्राओं से, अज्ञान आदि से बचने की कोशिश करें।
‘उरु ज्योति ‘ का जो वर्णन है, वह अंग्रेजी शब्द ‘अरोरा’ से मिलता-जुलता है। उसका अर्थ है, व्यापक ज्योति।
यह वाक्य हमें अत्यंत रमणीय आध्यात्मिक अर्थ देता है।
उत्तरी ध्रुव के संदर्भ में अर्थ

किंतु उत्तरी ध्रुव की दृष्टि से देखा जाये तो वहां की ‘ दीर्घ रात्रियां हमें न सतायें’ यह भी अर्थ हो सकता है।

उत्तरी ध्रुव पर 4-6 महीनों की अंधकारवाली रात्रि होती है जिसमें ठंड ज्यादा रहती है।
अग्नि प्रकट करना मुश्किल हो जाता है।
इसलिए उस समय बहुत तकलीफ होती है।
अतएव ऋषि व्याकुल होकर प्रार्थना करता है कि भगवान, इन चार महीनों वाली दीर्घ रात्रि से मुझे मुक्त करो।
यह ‘बाल-वाली’ हो सकती है, पर अनुभव-वाणी’ नहीं।
कर्मयोग का कितना ही दिखावा हम करें, फिर भी हमें शरीर का बंधन है।
इसलिए नींद आदि कुछ तो विश्रांति या निवृत्ति भोगनी ही पड़ती है।
लेकिन शुद्ध आत्मा को ऐसा कोई भी बंधन नहीं है।
इसलिए उसकी अखंड, अविश्रांत प्रवृत्ति जारी रहने में किसी भी प्रकार की आपत्ति नहीं होती।
संत स्वयं का वर्णन करते हुए कहते हैं, ‘निजों तरी जागे’ (नींद में भी जागे हुए)। और वैदिक ऋषि भी इच्छा करते हैं।
 
 
आज का वेद चिंतन
प्रस्तुति : रमेश भैया

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