खबर लहरिया के 20 वर्षों की बेमिसाल यात्रा :-

बुंदेलखंड जैसे पिछड़े क्षेत्र से कैसे हुई खबर लहरिया अखबार की शुरुआत किन किन चुनौतियों का सामना करके आज विश्व स्तर पर पहुंचा है ये अखबार

किसी भी देश और समाज के विकास और सकारात्मक बदलाव के लिए जरूरी है कि जानकारियों का आदान-प्रदान हो सके और जब भारत जैसे देश के समाज की बात करें तो हम पाते है कि यहाँ पर यह ज्यादा मायने रखता है। बस जरूरी है कि समय के साथ सही जानकारी समाज और देश के लोगों तक पहुँचे। खबर लहरिया एकमात्र ऐसा ग्रामीण अखबार है जो कि महिलाओं के द्वारा ही पूरी तरह से संचालित होता है जिसकी ख्याति और विश्वसनीयता लगातार बढ़ रही है। ”खबर लहरिया” नाम सुनकर आपको किसी प्रकार का कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि यह भी सभी सामान्य अखबार की तरह ही है क्योंकि ऐसा बिल्कुल भी नही है। खबर लहरिया अखबार की शुरुआत जिस तरह से हुई उससे साफ-साफ पता चलता है कि ये एक भारी संघर्ष से निकली हुई आवाज है जो आज हमारे सामने अखबार के रूप में है।

कैसे हुई शुरुआत

2002 जहाँ एक ओर पूरे देश में हिन्दू-मुस्लिम दंगे का केंद्र भारत का पश्चिमी राज्य गुजरात बन रहा था वहीं भारत के उत्तरप्रदेश में बुंदेलखंड क्षेत्र के चित्रकूट जिले की छोटी-सी तहसील से महिलाओं के द्वारा एक शुरुआत की जा रही थी। एक ऐसी शुरुआत जिसको खुद शायद जानकारी नही होगी कि यह शुरुआत आज अपने 20 वर्ष पूरे कर लेगी और एक ऐसे समाज और वर्ग की सशक्त आवाज़ बनेगी जो कि बिल्कुल हाशिए पर है।

कविता जो कि अभी सिर्फ 16 वर्ष की थी, जब उनकी शादी हो जाती है उनका दाम्पत्य जीवन बहुत अच्छा नही चल रहा था। उन्होने शादी से अलग होकर ”निरंतर” नाम की गैर-सरकारी संस्था के साथ जुड़कर साक्षरता कार्यक्रम में हिस्सा लिया। कैंप पूरा हो जाने के बाद भी कविता ने अपना पढ़ना-लिखना जारी रखा और फिर यहीं से खबर लहरिया की शुरुआत हुई। कैंप के दौरान गांव की महिलाओं की कहानियां लिखी गई जो कि लोगों में काफी लोकप्रिय हुई क्योंकि इनमें केवल गांव की समस्याओं का ही जिक्र था और फिर निर्णय लिया गया कि क्यों ना अखबार शुरू किया जाए और इस तरह 2 पेज के ब्लैक-एंड-व्हाइट महीने वाले अखबार की शुरुआत हुई।

पत्रकारिता का अनोखा प्रयोग और चुनौतिया

2002 में खबर लहरिया एक प्रयोग था कि कैसे एक ऐसी पत्रकारिता को जगह मिले जो देश दुनिया के अखबारों और बड़े न्यूज़ चैनलों से दूर है। खबर लहरिया ने इस प्रयोग का जिम्मा अपने सिर पर तब लिया जब न तो लोग ही इतना व्यापक होकर सोच पा रहे थे ना ही देश की मीडिया।

खबर लहरिया ने गांव के मुद्दों को सबसे अधिक महत्वपूर्ण मानते हुए अपने अखबार में गांव और आस-पास के क्षेत्र से जुड़ी सभी खबरों को स्थान देना शुरू किया। खबरों को क्षेत्र की लोकल बोली में ही लिखा गया। शुरुआत में खबरों को हाथों से लिख के ही छापा गया। किसी भी प्रकार की टायपिंग की कोई व्यवस्था तक नहीं थी, लेकिन जब लोगों को अपनी बोली में खबरे मिली तो कविता जी बताती है कि उन्होंने उन खबरों से खुद को जोड़ा ही नहीं बल्कि खुद भी खबर लहरिया का प्रचार किया। शुरुआत में कुछ औरतों ने मिलके यही किया जो कि सभी दलित और अतिपिछड़े समाज से आती थी। सभी महिलाएं पहले अपने घर का काम करती इसके बाद अपने अखबार का काम करती।

कविता जो कि ‘खबर लहरिया’ की संपादक है वो अपने एक इंटरव्यू में बताती है कि शुरुआत में जो महिलाएं खबर लहरिया से जुड़ी वो पास के गांव की ही थी। कुछ ऐसी भी थी जिनको पढ़ना-लिखना बहुत ही कम आता था, कुछ तो अपनी शिक्षा भी पूरी नही कर पाई थी, कुछ केवल 5वीं क्लास तक ही पढ़ी थी, कुछ ऐसी भी महिलाएं थी जिनके अंदर समाज और मीडिया के सम्बंध को लेकर कोई ठोस समझ भी नही थी। धीरे-धीरे उनको प्रशिक्षित किया गया और फिर महिलाओं ने पूरी रूची के साथ काम किया।

शुरुआत में महिलाओं को न्यूज इकट्ठा करने और समाज में जाकर पत्रकारिता करने में कई दिक्कते आई। चूंकि कोई भी इस बात पर विश्वास ही नहीं कर पा रहा था कि उनके आस-पास के समाज और गांव की ही दलित, आदिवासी और मुस्लिम महिलाएं पत्रकार हैं। समाज का मानना शायद यही रहा होगा कि पत्रकारिता का काम महिलाओं का नही है। सरकारी कर्मचारियों से लेकर गांव और समाज के लोग शरूआत में खबर लहरिया और महिला पत्रकारो को गंभीरता से भी नही लेते थे। लेकिन फिर भी महिलाएं पूरी हिम्मत के साथ अपना काम जारी रखती, महिलाएं दूर-दराज के गांव तक खबरे लेने के लिए पैदल जाती थीं, लोगों से बाते करती, सूचनाओं को लाती और फिर बैठकर हाथों से तैयार करती।

विशेष क्यों है खबर लहरिया

खबर लहरिया के तब-जब 20 वर्ष अब पूरे हो चुके हो तो सवाल आता है कि आखिर खबर लहरिया जैसी पत्रकारिता हमारे लिए विशेष क्यों है? देखा जाए तो शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति आज होगा पत्रकारिता क्षेत्र का जिसको खबर लहरिया की जानकारी ना हो और बात जब विशेषता कि हो तो हम पाते है कि अपने आप में यह एक अलग पत्रकारिता है जिसमें महिलाओं को केंद्र में रखकर अखबार निकाला जाता है। जरूरी है तो बस यह कि हम इस बात को गंभीरता से समझे कि आखिर इसकी आवश्यकता हमको क्यों पड़ी। जब भारत की पत्रकारिता का स्तर केवल क्राइम, दुर्घटना, राजनीति, चुनाव के इर्द-गिर्द ही हो, उस समय पर ग्रामीण समस्याओं को ध्यान में रखकर खबरों को जगह देना अपने आप में एक विशेषता ही है। ‘खबर लहरिया’ महिलाओं की समस्याओं और जीवन जीने की उनकी कठिनाइयों को ध्यान में रखकर शुरू किया गया लेकिन आज यह सभी प्रकार की खबरों के साथ हमारे बीच है। खबरों में आज भी गांव क्षेत्र की समस्याओं और ख़बरो को जगह दी जा रही है। खबर लहरिया की सबसे बड़ी विशेषता है की उसमें काम करने वाला पूरा स्टाफ महिलाओं का है। खबर लहरिया एक मात्र ऐसा मीडिया समूह है जिसका संचालन केवल दलित, पिछड़े और मुस्लिम समाज की महिलाओं के द्वारा किया जा रहा है।

पुरस्कार और विवाद

खबर लहरिया ने जब अपनी शुरुआत की थी तब उसके सामने कई चुनौतियाँ थी लेकिन आज जब 20 वर्ष पूरे हुए है तो ऐसा नही है के चुनौतियाँ खत्म हो गई है। लेकिन इन सबके बाद भी निरन्तरता से अखबार कार्य करता रहा। ‘खबर लहरिया’ को 2004 में ही पत्रकारिता में महिलाओं के लिए प्रतिष्ठित ‘चमेली देवी जैन’ पुरुस्कार से सम्मानित किया गया। इसके बाद अखबार को 2009 में ”यूनेस्को किंग सेजोंग साक्षात्कार पुरुस्कार” से सम्मानित किया गया। इस तरह से अखबार ने अपने विस्तार की योजना पर काम किया और वर्ष 2012 में ”अखबार ने लिंग संवेदनशील रिपोर्टिंग” के लिए ‘लाडली मीडिया आवार्ड’ भी जीता। ठीक उसी वर्ष भारतीय समाचार चैनल ”टाइम्स नाउ”’ ने खबर लहरिया को ‘द अमेजिंग इंडियन अवार्ड’ से सम्मानित किया। 2013 में कवि ”कैफ़ी आज़मी” की याद में अखबार को ‘कैफ़ी आज़मी’ पुरुस्कार से सम्मानित किया गया। 2014 में जर्मन मीडिया चैनल ड्यूश वेले ने जर्मनी में बॉन में आयोजित ‘बेस्ट ऑफ ब्लॉग्स’ वार्षिक सम्मेलन में अख़बार की वेबसाइट को प्रतिष्ठित ”ग्लोबल मीडिया फोरम अवार्ड” से सम्मानित किया। इन सभी के इतर 2021 में राइटिंग विद फायर नामक अखबार के बारे में एक भारतीय डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म 2021 में रिलीज हुई जिसने कई अंतरराष्ट्रीय पुरुस्कार जरूर जीते लेकिन इससे खबर लहरिया ने अपने आप को यह कहकर दूर कर लिया कि इसमें हमे जिस तरह से दिखाया गया है वो पूरी तरह सही नही है। हाल ही में ऑस्कर में भी यह फ़िल्म नॉमिनेट हुई लेकिन खबर लहरिया ने अपनी वेबसाइट पर एक लेख लिखकर अपना पक्ष फ़िल्म को लेकर रखा है। विवाद कुछ इस तरह का है कि खबर लहरिया का कहना है कि जिस तरह से हमें केवल एक दलित समुदाय के रूप में दिखाया गया है वो पूरी तरह गलत है हमारा काम केवल दलित समाज की समस्याओं को या उनकी खबरों को उजागर करना या छापना नही रहा है। हमारी और भी मुश्किल रही है जिसको फ़िल्म निर्माताओं ने ईमानदारी से नहीं दिखाया है। हमारा काम गांव देहात की छोटी-छोटी और TV मीडिया से दूर हुई खबरों को स्थान देने के साथ-साथ गांव की और आम जीवन से जुड़ी समस्याओं को उजागर करके अखबार के माध्यम से सस्थानीय लोगों तक पहुँचना रहा है।

विवाद और सारी चर्चाओं के दरकिनार तो नही किया जा सकता है क्योंकि भारत जैसे देश में अपना अलग वजूद बनाने वाले अखबार की यात्रा आज जरूर 20 वर्ष के पड़ाव पर हो लेकिन समस्याओं का जिस तरह से सामना किया जिस तरह के समाज की समझ को दिखाने और गांव स्थानीय खबरों को उनकी ही भाषा में लोगों तक पहुँचाने का काम किया है वो जरूर ही बहुत चुनौती पूर्ण रहा होगा। अखबार के लिए यह तब और ज्यादा कठिन हो जाता है जब यह महिला समूह वाला एकमात्र ग्रामीण अखबार हो। आज ‘खबर लहरिया’ कई स्थानीय भाषाओं में प्रकाशित हो रहा है अखबार आज उत्तरप्रदेश के बांदा, चित्रकूट, महोबा में निकल रहा है। इसी के साथ लखनऊ, वाराणसी के साथ बिहार में भी कई जिलों तक अपने पैर पसार चुका है। दिल्ली में आज खबर लहरिया का केंद्रीय कार्यालय भी है। साथ ही लगभग 600 गांव तक अखबार पहुँच रहा है और इस तरह लाखों पाठक तक पहुँचता है 2013 में खबर लहरिया को मुंबई में भी शुरू किया गया जा चुका है। हम सभी को भी सामूहिक और व्यक्तिगत जिम्मेदारी समझते हुए खबर लहरिया जैसे संस्थानों का खुलकर समर्थन करने की आज आवश्यकता है।

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