उज्जवल है हिंदी का भविष्य

महेश चंद्र द्विवेदी
महेश चंद्र द्विवेदी

प्रसिद्ध पत्रकार मार्क टली ने कहा है, ‘बिना भारतीय भाषाओं के भारतीय संस्कृति जीवित नहीं रह सकती है’।

अतः हमें भारतीय भाषाओं, जिनमें हिंदी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है, के उच्चतर भविष्य के हेतु सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिये।

किसी भाषा का भविष्य मुख्यतः चार मानकों से नापा जा सकता हैः

जनमानस में उस भाषा की प्रतिष्ठा,

जीविकोपार्जन हेतु भाषा की उपयोगिता,

भाषा के प्रसार माध्यमों की निरअवरोध उपलब्धता,

भाषा में अन्य भाषाओं के आवश्यक शब्दों को समाहित कर लेने की क्षमता।

इन चारों मानकों पर हिंदी की स्थिति निम्नवत है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात बीसियों वर्ष तक स्थिति यह रही कि हिंदी बोलने वालों को कोई भी अंग्रेज़ी में बोलने वाला व्यक्ति अपने से श्रेष्ठ लगने लगता था।

आईएएस, पीसीएस आदि परीक्षाओं का माध्यम केवल अंग्रेज़ी होने के कारण भी सभी भारतीयों के मानस में अंग्रेज़ी का वर्चस्व था।

आज हिंदी बोलने वाला व्यक्ति अंग्रेज़ी बोलने वाले के सामने बिना हीन-भाव की अनुभूति किये अपनी भाषा में बोलना जा़री रख सकता है।

जनमानस में हिंदी की प्रतिष्ठा निरंतर बढ़ रही है।

आज हिंदी भाषी प्रदेशों की समस्त शासकीय सेवाओं एवं आईएएस सहित समस्त केंद्रीय सेवाओं में हिंदी के माध्यम से प्रवेश सम्भव है।

सेना के जवानों सहित समस्त केंद्रीय कर्मचारियों को हिंदी सीखना अनिवार्य होता है।

हिंदी के प्रसार हेतु केंद्रीय शासन के विभागों में हिंदी अधिकारी नियुक्त हैं।

हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने हेतु हिंदी पखवारा मनाया जाता है।

जल्द ही एमएनसी में भी चलेगी हिंदी

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में अभी हिंदी के माध्यम से नौकरी पाना सम्भव नहीं है।

परंतु अमेरिका, यूरोप और चीन भारत में उभरते ग्रामीण मध्यवर्ग में अपना माल बेचने को लालायित हो रहे हैं।

इससे वह दिन दूर नहीं जब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में भी हिंदी जीविकोवार्जन का साधन बन जायेगी।

यद्यपि भारत में अंग्रेज़ी आभिजात्य वर्ग की भाषा रही है।

तथापि देश में उपलब्ध प्रसार माध्यम यथा सिनेमा, नाटक, कवि सम्मेलन, समाचार-पत्र, टी. वी., आदि में हिंदी का वर्चस्व बढ़ रहा है।

अब तो उनमें हिंदी की आंचलिक भाषाओं यथा अवधी, भोजपुरी, ब्रज, कन्नौजी, हरियाणवी, राजस्थानी आदि का भी प्रवेश हो गया है।

हिंदी के समाचार पत्रों एवं उनके पढ़ने वालों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है।

हिंदी के कवि सम्मेलनों एवं साहित्यिक गोष्ठियों की तो देश एवं विदेश दोनों में धूम मची हुई है।

कम्पयूटर पर हिंदी का प्रयोग अभी सीमित है परंतु बढ़ रहा है। 

हिंदी में अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्दों को अपनाने की परम्परा रही है।

अरबी, फ़ारसी, अंग्रेजी़, बंगाली, गुजराती, मराठी एवं दक्षिण भारत की भाषाओं के शब्दों का समावेश हिंदी में अनवरत हो रहा है।

यहां तक कि दैनिक जागरण समूह के आईनेक्स्ट अखबार ने हिंग्लिश को अपना लिया है।

अमर उजाला आदि ने अपने कतिपय लेखों को हिंग्लिश में निकालना प्रारम्भ कर दिया है।

टीवी के अधिकांश कार्यक्रम भी हिंदी का प्रयोग कर रहे हैं।

इस प्रकार चाहे परिवर्तित रूप में ही सही हिंदी का प्रसार द्रुतगति से हो रहा है।

हिंदी का यह रूप अंग्रेज़ी स्कूलों में शिक्षा पाये लोगों को भी समझ में आता है एवं उनमें स्वीकार्य है।

विगत 15-20 वर्षों से विदेशों में हिंदी का तेज़ी से प्रसार

100 से अधिक विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही है।

बाज़ारवादी स्पर्धा में आगे रहने की ललक में किसी-किसी देश में हिदी के क्रैश कोर्स भी चलाये जा रहे हैं।

विश्व हिंदी सम्मेलनों, कवि सम्मेलनों, विश्व हिंदू परिषद द्वारा संचालित प्राथमिक पाठशालाओं एवं संतों के प्रवचनों ने विदेशों में हिंदी के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

यूके से प्रकाशित पुरवाई, अमेरिका से विश्व विवेक, कैनेडा से हिंदी चेतना एवं ई-पत्रिकाओं में शारजाह की अभिव्यक्ति एवं अनुभूति,  कैनेडा की साहित्य कुंज, अमेरिका की ई-विश्वा आदि हिंदी के प्रसार में बड़ा महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।

फिर भी राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के लिये अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है।

इसमें हिंदी का यूएनओ में प्रयुक्त भाषाओं में प्रवेश, हिंदी को विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा की भाषा बनाना, हिंदी को उच्च न्यायालयों में स्थापित करना, हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना एवं हिंदी को कम्पयूटर एवं जीविकोपार्जन की भाषा बनाना आदि।

हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि हिंदी की प्रतिस्पर्धा अंग्रेजी़, मंदारिन, स्पैनिश, अरेबिक आदि भाषाओं से है जिनके पास हमसे अधिक संसाधन उपलब्ध हैं।

हिंदी प्रेमियों को हिंदी की स्वीकार्यता एवं उपयोगिता बढ़ाने के लिए सतत प्रयास करते रहना चाहिये।

परंतु हमें भारत की अन्य भाषाओं से द्वेषभाव नहीं पालना चाहिये।

न यह भ्रम पालना चाहिये कि हम हमें दिखाई पड़ सकने वाले भविष्य में हिंदी को अंग्रेज़ी से अधिक महत्वपूर्ण स्थान दिला देंगे।

हमें वैश्विक स्तर पर प्रगति हेतु अंग्रेज़ी की उपयोगिता एवं उसके वर्चस्व को मन से स्वीकार करना चाहिये।

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