देश के सामाजिक आंदोलनों का हो चुका है बाजारीकरण

आजादी बचाओ आंदोलन के महानायक डॉ. बनवारी लाल शर्मा के पुण्यतिथि पर (26 सितंबर) उनके एक कार्यकर्ता का उनके नाम पत्र

सर प्रणाम…

आपको इस दुनिया से रुखसत हुए आज 8 साल हो गए।

लगता है मानो कल की ही बात हो जब आप मुझे अपने जीवन के आखिरी दिनों में साइकिल रैली करवाने और युवाओं को एकजुट करने के लिए प्रेरित करते थे।

आज से 16 साल पहले मैं आप के संपर्क में आया था। सात-आठ साल तक आपका सानिध्य मिला।

शाम को अक्सर आंगन में चाय और लाई चना के साथ देश और दुनिया की वर्तमान परिस्थिति के बारे में आपसे चर्चा होती थी।

मैं अक्सर राजनीतिक बातें करता था। आप सुनते जरूर थे लेकिन आपकी राय स्पष्ट थी कि वर्तमान परिस्थिति में गैर राजनीतिक माध्यमों के द्वारा ही समाज निर्माण हो सकता है।

मैं आपसे सहमत तो था लेकिन राजनीतिक जानकारी मेरे दिमाग में जल्दी घुस जाती थी इसलिए मुझे आपसे बात करना अच्छा लगता था।

एक वह वक्त था और आज यह वक्त है जब मुझे राजनीति इतनी कलंकित, घृणित और दूषित नजर आती है कि मैं खुद आंदोलनकारी के सिवा किसी से इस मुद्दे पर बात करना पसंद नहीं करता।

सामाजिक संगठन महत्वाकांक्षा पूरी करने का अड्डा

लेकिन दुख की बात यह भी है कि जिस बाजारवाद को आप समाज कर्मी और सामाजिक संगठन के माध्यम से हटाना चाहते थे, अपने आंदोलन समेत देश के सभी  सामाजिक आंदोलनों का बाजारीकरण हो चुका है।

सामाजिक संगठन अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने और दुकान चलाने का अड्डा बनता जा रहा है।

इलाहाबाद समेत हर एक शहर के विभिन्न सामाजिक संगठनों में आपसी मनमुटाव और एकजुटता की कमी स्पष्ट दिख रही है।

अगर किसी शहर में विभिन्न संगठन के द्वारा कोई एक आंदोलन चलाया जाता है तो आंदोलन को अपने नियंत्रण में लेने की लड़ाई शुरू हो जाती है।

आप चाहते तो आज से 35 साल पहले संसद सदस्य बन सकते थे लेकिन इतना बड़ा बलिदान.,.. और फिर कभी किसी साधारण चुनाव में भी अपने या अपने संगठन को सक्रिय रुप से दूर रखना, ऐसा माद्दा किसी में नहीं दिखता।

बिना किसी पद और सम्मान के ऐसा कोई कार्यकर्ता जो बौद्धिक भी हो, समाज निर्माण के प्रति समर्पित हो अंगुली पर गिनने लायक बचे हैं।

हालांकि अपने अपने स्तर से लोग प्रयासरत हैं लेकिन आप जिस सत्याग्रही के बल पर क्रांति का सपना देखते थे, उसकी लगातार कमी होती जा रही है।

सप्ताहिक गोष्ठी या अन्य जगह अपनी बात रखते हुए अगर देश की परिस्थिति का वास्तविक चित्रण किया जाता था, निराशा प्रकट की जाती थी तो आप तपाक से बोल पड़ते कि क्रांति तो हमेशा विपरीत परिस्थिति में ही आती है।

विपरीत परिस्थितियां अवसर मुहैया कराती है। आज हम लोग उसी स्थिति से गुजर रहे हैं।

युवाओं के संगठन में आधे दर्जन युवा भी सक्रिय नहीं

अपने आंदोलन की सप्ताहिक गोष्ठी में दस बाहरी युवा साथी भी नहीं आ रहे हैं, ऐसे संगठन जो केवल युवा का है वहां आधे दर्जन सक्रिय युवा साथी भी नहीं है।

विशेष आयोजन पर भीड़ जुटाना अलग बात है।

भीड़ क्रांति नहीं करती, ऐसा आपके गुरु जयप्रकाश नारायण कहा करते थे।

हालत यह है कि आप जिस बाजारवाद से जुड़े अवयव जैसे मोबाइल, मॉल्स, सोशल मीडिया या उनसे जुड़े जॉब कॉल सेंटर आदि, पैकेज कल्चर को लेकर जितने बड़े विरोधी थे, सामाजिक संगठन के युवा को भी उनमें काम करने से (व्यवस्था दोष के कारण ही सही) कोई गुरेज नहीं है!

महिलाओं के आत्मनिर्भरता के प्रति आप काफी संवेदनशील थे।

दुख की बात यह है कि चंद प्रतिशत को छोड़ दिया जाए तो महिलाओं के द्वारा उस तरह की नौकरियां की जा रही है मानो पूंजीवाद को श्रमिक की आवश्यकता हो।

देश किस विपत्ति से गुजर रहा है आप समझ सकते हैं?

लेकिन विपरीत परिस्थिति अवसर मुहैया कराती है आपके इस कथन से हमारे जैसे लोग उत्साहित रहते हैं।

क्योंकि मैं आपके विचार से पूर्णतः सहमत रहा हूं, इसलिए विभिन्न आंदोलनकारियों की करनी कथनी के अंतर को देखकर काफी हताश रहता हूं।

मैं खुद भी “छिद्रान्वेषी” बनता जा रहा हूं!

मेरा दुर्भाग्य देखिए कि मुझे पीयूसीएल के सचिव (इलाहाबाद) की जिम्मेदारी दी गई है जहां मैं ही एकमात्र युवा हूं और मैं खुद 35 साल के ऊपर का हो चुका हूं!

इलाहाबाद में सब मिलाकर पीयूसीएल के 5 सक्रिय कार्यकर्ता नहीं है।

ऐसी हताशा की स्थिति में यह सोच कर कि घटाटोप अंधकार के बाद (विपरीत परिस्थितियां) उजाला आता है, आशावान हूं कि आपके सपनों का भारत बनेगा, देश कॉर्पोरेट मुक्त होगा।

अब नहीं है डॉ. शर्मा जैसा नेतृत्वकर्ता

आज भी इलाहाबाद में आंदोलनकारियों के बीच अक्सर चर्चा होती है कि डॉ शर्मा जैसा नेतृत्वकर्ता अब कोई नहीं बचा।

आपको लगा कि कीटनाशक खेती हो रही है तो  जैविक खेती के काम को बढ़ावा देना शुरू किया।

जल जंगल जमीन को कॉर्पोरेट हड़प रहा है तो आपने झारखंड में उसके खिलाफ प्रयोग किया।

आज इलाहाबाद और देश के अन्य हिस्सों में आंदोलन कार्यों के बीच संघर्षशीलता में कमी तो नहीं आई है लेकिन रचनाशीलता में जबरदस्त अभाव दिखता है।

आपसे आशीर्वाद का अभिलाषी हूं कि नए समाज निर्माण के लिए अगले दो- ढाई दशक तक अपना योगदान दे सकूं!

 

मनीष सिन्हा

जिला सचिव पीयूसीएल 

इलाहाबाद

Leave a Reply

Your email address will not be published.

twenty − 12 =

Related Articles

Back to top button