सम्पूर्ण स्वराज क्या है? डा वंदना शिवा से प्रो. स्वप्निल श्रीवास्तव की बातचीत

कृषि वैज्ञानिक, पर्यावरणविद् एवं समाजकर्मी डॉ. वन्दना शिवा का साक्षात्कार.  डॉ. शिवा से यह बातचीत की इविंग क्रिश्चियन कॉलेज संघटक महाविद्यालय इलाहाबाद विश्वविद्यालय  में गणित के प्रोफ़ेसर  डॉ. स्वप्निल श्रीवास्तव ने उन दोनों के बीच सम्पूर्ण स्वराज के विविध पक्षों पर हुए संवाद के प्रमुख अंश दिये जा रहे हैं।)

स्वप्निल श्रीवास्तव – स्वराज एक पूर्ण परिकल्पना है और आप इसे अलग-अलग विषय जैसे-अन्न स्वराज, बीज स्वराज, जल स्वराज, वन स्वराज, भूस्वराज, संसाधन स्वराज, ज्ञान स्वराज आदि में बाँटकर लोगों के सामने प्रस्तुत करती हैं। क्या इनमें कोई अन्तर्सम्बन्ध नहीं है और वास्तव में हम इन्हें अलग-अलग करके देख सकते हैं?

डॉ. वन्दना शिवा – यह बात सही है कि मैं स्वराज को अलग-अलग विषयों में बाँटकर लोगों के सामने प्रस्तुत कर रही हूँ। सम्पूर्ण स्वराज इन सारी चीज़ों को जोड़कर ही समझा जा सकता है। अकेले स्वराज की बात करने से लोग गाँधी के समय के स्वराज को अथवा भारत की राजनैतिक स्वतन्त्रता को समझने लगते हैं। लोगों को लगता है कि भारत 15 अगस्त 1947 को आज़ाद हो गया है तो फिर हम किस स्वराज की बात कर रहे हैं। गाँधी जी ने भी स्वराज को अपने समय में जन- मानस तक पहुँचाने में नमक सत्याग्रह, नील सत्याग्रह, चरखा स्वराज आदि नामों का प्रयोग किया था। आज भूमण्डलीकरण के युग में बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ लोगों को निचोड़कर जीवन के हर अंग को समाप्त कर रही हैं। लोग अपनी दैनिक आवश्यकताओं के लिए उन पर निर्भर होते जा रहे हैं और एक तरह की नई गुलामी में फँसते जा रहे हैं। जैसे बीज की गुलामी, अन्न की गुलामी, शिक्षा की गुलामी आदि। इन सारी चीज़ों को समझने के लिए स्वराज को भी गुलामी के इन प्रकारों की भाँति अलग-अलग करके विस्तार से देखने की जरूरत है। पूर्णतावादी सोच की क्षमता बहुत ही कम है अतः पूर्ण स्वराज को साकार करने के लिए उसे अलग-अलग करके देखना आवश्यक हो जाता है।

स्वप्निल श्रीवास्तव – जल ही जीवन है। अगर हमें खेती को बचाना है, जंगलों को बचाना है तो जल की बात करनी आवश्यक हो जाती है। स्वराज के सन्दर्भ में जल को अर्थात् जल स्वराज को कैसे समझा जा सकता है?

डॉ. वन्दना शिवा – जल का निजीकरण करके उसे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सौंप देने के लिए सरकारें दृढ़ प्रतिज्ञ हैं। स्वेज कम्पनी को पानी के ठेके दिये गये। जगह-जगह आन्दोलनों से उसे रोका भी गया। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पानी पर सभी का हक उसमें मानव जाति के अलावा पशु-पक्षी एवं पेड़ पौधे भी शामिल हैं। वर्तमान में पड़ा सूखा भी पानी के निजीकरण, कोक-पेप्सी कम्पनियों द्वारा जल का अन्धाधुन्ध दोहन तथा गलत ढंग की खेती को बढ़ावा देने का ही परिणाम है। ट्रेन से, टैंकरों से जगह-जगह पानी पहुँचाया जा रहा है लेकिन ऐसा कब तक किया जा सकता है। इस तरह से कोई System जिन्दा नहीं रखा जा सकता है।

स्वप्निल श्रीवास्तव – पानी की बात होती है तो नदी की बात करना आवश्यक हो जाता है। सरकार की नदी जोड़ो परियोजना पर आपकी क्या राय है और साथ ही साथ जल के स्थानीय संसाधनों पर भी अपनी राय स्पष्ट करें।

डॉ. वन्दना शिवा – जहाँ तक नदी का सवाल है तो हम यह भूल जाते हैं कि नदी का अपना स्वराज है। नदी को कहाँ बहना है और अपने प्राकृतिक रूप में कैसे बहना है यह तय करने का हक उसका अपना है। नदी का निजीकरण या नदी जोड़ो परियोजना भारतीय संस्कृति ही नहीं अपितु सम्पूर्ण मानव संस्कृति पर आक्रमण है। गंगा माँ को हानि पहुँचाने वाले लोगों को रोकना होगा। माँ गंगा के साथ ही साथ सभी नदियों के अधिकारों को समझना होगा। पानी का केन्द्रीकरण करके उसे गलत दिशा में ले जाया जा रहा है। तालाब व कुएँ गाँव का हक, और अन्य जल स्रोतों पर प्रान्त का हक समाप्त किया जा रहा है। मैं यह बिल्कुल नहीं कह रही हूँ कि विकेन्द्रीकृत व्यवस्था में सब कुछ अच्छा ही होगा परन्तु यह बात निश्चित है कि केन्द्रीय स्तर पर गड़बड़ी से सब गड़बड़ हो जाता है जबकि विकेन्द्रीकरण से कुछ गड़बड़ हुआ भी तो बहुत कुछ ठीक भी रहता है। जल के केन्द्रीकरण एवं निजीकरण के विरोध में सत्याग्रह जल स्वराज का हिस्सा माना जा सकता है।

स्वप्निल श्रीवास्तव – जल के अलावा भी प्राकृतिक संसाधन हैं जैसे जंगल, जमीन, खनिज आदि। स्वराज के दृष्टिकोण से इन्हें कैसे देखा जा सकता है?

डॉ. वन्दना शिवा – वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा से ही स्वराज की बात शुरू होती है। हमें यह सोचने की जरूरत है कि यह प्रकृति सभी की है, इसकी रक्षा करना सभी का कर्तव्य है। प्राकृतिक संसाधन सभी को समुचित रूप से मिल पायें वह स्वराज का भाग है। हम सभी प्रकृति एवं पृथ्वी के भाग हैं। एक जगह का over consumption दूसरी जगह के under consumption के लिए उत्तरदायी है। ऐसी व्यवस्था से स्वराज की बात करना बेमानी है। हम सभी रंग, रूप, लिंग, धर्म के रूप में अलग-अलग जरूर हैं परन्तु हम सभी की मौलिक आवश्यकता समान है। किसी भी व्यक्ति के द्वारा प्रकृति का अन्धाधुन्ध दोहन व किसी को दाने-दाने के लिए मोहताज होना स्वराज के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण एवं उनको बचाना ही स्वराज है। collective और integrated freedom की रक्षा ही सत्य बनता है और उसकी रक्षा करना ही सत्याग्रह है। मेरे खयाल से सत्याग्रह एवं स्वराज एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

स्वप्निल श्रीवास्तव – आपने कहा कि सत्याग्रह व स्वराज एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और प्राकृतिक संसाधनों को बचाना ही स्वराज है। स्पष्ट करें कि कौन प्राकृतिक संसाधनों अर्थात् स्वराज को नष्ट करने में लगा है और कैसे प्राकृतिक संसाधनों को बचाया जा सकता है?

डॉ. वन्दना शिवा – वर्तमान विकास का मॉडल पश्चिमी सोच की उपज है (और वह स्वराज के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है।) पश्चिम की सोच कि प्रकृति को कुचलकर, उस पर विजय प्राप्त कर ही आगे बढ़ा जा सकता है। उनकी इस सोच में मौलिकता का अभाव है और वह अवैज्ञानिक भी हैं। किसी भी जीवित प्रणाली की अपनी आयोजक प्रणाली होती है (Every living system is self organizing system) और यह self organizing system उच्च सत्ता के द्वारा तय नहीं किया जा सकता है। इंसानियत की गहराई प्रकृति साथ ही है न कि प्रकृति पर विजय की लालसा से। विकास के वर्तमान मॉडल को बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ परोस रही हैं, और सरकारें उसको अमलीजामा पहनाने में लगी हुई हैं। भारत सरकार का निर्णय उसका स्वयं का नहीं होता है वह तो वैश्विक, अमरीका एवं अमरीकी काॅरपोरेशन्स के दबाव में लिया गया होता है। आज सत्ता शोषकों के हाथ में है, वे शोषण के नये-नये तरीके खोज लेते हैं। आज की नक्सली समस्या भी इसी शोषण का परिणाम है। आज देश में जगह-जगह इस शोषण के खिलाफ़ सत्याग्रह चल रहे हैं पर इन्हें एक साथ जुड़ने की जरूरत है। स्थानीय सत्याग्रह के साथ ही साथ संयोजित सत्याग्रह से ही प्रकृति, पारिस्थितिकी को बचाया जा सकता है।

स्वप्निल श्रीवास्तव – वर्तमान विकास का मॉडल स्वराज के लिए बाधा है और वर्तमान विकास का मॉडल मुक्त व्यापार पर टिका है। मुक्त व्यापार और स्वराज के बीच सम्बन्ध को कैसे देखा जा सकता है?

डॉ. वन्दना शिवा – मुक्त व्यापार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा प्रयुक्त किया जाने वाला एक हथियार है। मुक्त व्यापार के नाम पर नयी तरह की गुलामी को बढ़ावा दे रहे हैं। हमें अहसास भी नहीं होता कि हम गुलाम हैं और इसके शिकंजे में कसते चले जा रहे हैं। उदाहरण के तौर पर हमारे ही देश का पानी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा पैक कर हमें ही बेचा जा रहा है और हमें जरा भी अटपटा नहीं लगता। हम यह नहीं सोच पाते हैं कि हमारी जल सम्पदा पर इन कम्पनियों का
कब्जा हो गया है। मुक्त व्यापार के नाम पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ देश की अकूत प्राकृतिक सम्पदा को हथियाने में लगी हुई हैं। ये कम्पनियाँ शिक्षा के माध्यम से लोगों की सोच एवं भाषा को खत्म करने में लगी हुई हैं जिससे हमें हमारी गुलामी का पता भी न चले। दूसरे शब्दों में हम मानसिक गुलाम होते जा रहे हैं।

स्वप्निल श्रीवास्तव – आज सरकारें सुराज की बातें बड़ी दृढ़ता से करती हैं और स्वराज की बातें सरकारों के प्रचारकों व हितैषियों द्वारा भी की जाती है। आपके दृष्टिकोण में सुराज एवं स्वराज में क्या अन्तर्सम्बन्ध है?

डॉ. वन्दना शिवा – स्वराज की सोच समझ धर्म एवं बदलाव की है। स्वराज एक दूसरे को जोड़ने का काम है जबकि सुराज तोड़ने का काम है। सुराज का मतलब है केन्द्रीय नियन्त्रण। यदि आप ने सत्ता के खिलाफ़ बोला तो गोलियाँ तैयार हैं। सुराज दमनात्मक प्रक्रिया है। सुराज वैश्विक हित व क्षेत्रीय हित एक दूसरे को पुष्ट करते हैं। विकेन्द्रीकृत व्यवस्था के बिना स्वराज की कल्पना नहीं की जा सकती है। सुराज पश्चिमी व्यवस्था का अंग है जिसमें माँ और गर्भ में पल रहे जीव के अलग-अलग अधिकारों की बात की जाती है और उनमें किसी अन्तर्सम्बन्ध का कोई जिक्र नहीं है। लोग fragmented freedom की सोच रख रहे हैं जिससे उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा मिल रहा है। लोगों को एक दूसरे का दुश्मन बनाया जा रहा है। यह खेल काॅरपोरेट सत्ता के द्वारा पूरी दुनिया में खेला जा रहा है। स्वराज इसके ठीक उलट है इसमें माँ और गर्भ में पल रहे शिशु के अधिकार अलग-अलग नहीं अपितु एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसमें देश, जंगल, नदीProf Swapnil Shrivastav mathematics department Allahabad University , प्राकृतिक संसाधन, देशवासी, प्राणिमात्र आदि सभी के अधिकार एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और एक दूसरे पर अतिक्रमण का कोई स्थान नहीं है। एक का स्वराज दूसरे के स्वराज में बाधा नहीं बनता। एक दूसरे को जोड़ने की प्रक्रिया है स्वराज।

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