स्वामी विवेकानंद का मानव धर्म
स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekananda) मानव धर्म के प्रवर्तक थे लेकिन उनके नाम का भी एक आभूषण की तरह से इस्तेमाल करने का चलन हो गया है। जन्मदिन और पुण्यतिथि पर याद करके अन्य महापुरुषों की तरह ही तस्वीरों पर माल्यार्पण करने की, सेमिनार और किताबों मे फ्रेम करने की वस्तु बना दिया गया है।उनके नाम का अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करने वालों के लिए स्वामी जी का लेखन पढ़ना तो दूर की बात है, वे उन पर प्रमाणिक लेखन भी नहीं पढ़ते हैं और बिना किसी संकोच के उनके वाक्यांशों को इधर-उधर उछाला करते हैं। ऐसे संक्रमण काल मे आवश्यक है स्वामी जी को उनसे प्राप्त शिक्षा के आलोक मे देखने की।
स्वामी विवेकानंद और उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस का जीवन,उनके सिद्धांत और दर्शन एक अलग ही स्तर के थे जिसको साधारण तार्किक बुद्धि से समझना संभव नहीं है। उसके लिए आपको अपने आडंबर और दुराग्रह के तमाम लबादे उतार कर फेंकने होंगे।1893 की शिकागो मे आयोजित जिस धर्म संसद के माध्यम से अधिकांश लोगों उन्हें जानते हैं, उसके पहले कभी भी दुनिया के महानतम धर्मों के प्रतिनिधि ऐसे किसी एक स्थान पर एकत्रित नहीं हुए थे जहां वे अपने अपने धार्मिक विश्वासों को बिना किसी भय के विश्व के चुनिंदा हजारों मनुष्यों के समक्ष रख सके।
वह सभा किस वृहद स्तर पर,किस प्रकार से आयोजित हुई उसके बारे में अलग से। यहां यह उल्लेख करना उचित होगा कि इसकी तैयारी 1889 से हो रही थी। पर स्वामी जी को लगता था इसकी महत्ता का आभास था तभी उन्होंने स्वामी तुरियानंद से कहा था “धर्म महासभा का संगठन मेरे लिए हो रहा है।मेरा मन मुझ से ऐसा कहता है। सत्य सिद्ध होने में अधिक समय नहीं लगेगा।” इस धर्म सभा मे बम्बई के बी. बी.नगरकर और कलकत्ता के प्रताप चंद्र मजुमदार ने ब्रम्ह समाज‘ का प्रतिनिधित्व किया था। इसके अतिरिक्त कलकत्ता स्थित महाबोधि सोसायटी के महासचिव धर्मपाल और बंबई स्थित जैन मुनि आत्माराम जी भी सक्रिय रहे। हिन्दू अखबार की सूचना ने स्वामी जी मे वहां जाने की उत्कंठा का बीज प्रस्फुटित किया
शिकागो में अपने बोलने की बारी को बार-बार टालने वाले स्वामी विवेकानंद जब मन ही मन वाग्देवी माता सरस्वती को प्रणाम करके धर्म सभा के माध्यम से विश्व को संबोधित करने को खड़े हुए तो किसे पता था कि आने वाले कुछ पलों मे इतिहास रचा जानेवाला है।उनके शब्द “अमेरिकी बहनों तथा भाइयों” के बाद लगातार दो मिनट तक तालियों की गड़गड़ाहट की ध्वनि ही सुनाई पड़ती रही।हजारों लोग एक नवयुवक के सम्मान में खड़े हो गए और भाषण की समाप्ति पर उनसे मिलने के लिए व्याकुल हो उठे।वहां उपस्थित लोगों से उनका जो तारतम्य स्थापित हुआ वह आज भी उनके भाषण को सुनते हुए रोमांच पैदा करता है।
उनके भाषण के कुछ प्राथमिक वाक्य थे “आपने जिस सौहार्द और स्नेह भरे सुंदर शब्दों से हम लोगों का स्वागत किया है, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से उभर रहा है। जिसके गौतम मात्र एक सदस्य ही थे, उस संसार के सन्यासियों की सबसे प्राचीन परंपरा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूं।धर्मों की माता की ओर से,बौद्ध और जैन सम्प्रदाय जिसकी प्रशाखाएं ही हैं, मैं धन्यवाद देता हूं और अंततः सभी संप्रदायों एवं मतों के कोटि-कोटि हिंदुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूं। मै इस मंच पर से बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूं, जिन्होंने आपसे कहा कि सुदूर देशों के यह विभिन्न लोग सहिष्णुता का जो भाव यहां देखेंगे उसे अपने अपने देशों में साथ ले जाएंगे।इस कल्पना के लिए मैं उन्हें धन्यवाद देता हूं।
मैं एक ऐसे धर्म का अनुयाई होने में गर्व का अनुभव करता हूं जिसने संसार को सहिष्णुता और स्वीकृति दोनों की ही शिक्षा दी है। हम लोग केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन समस्त धर्म सत्य मानते हैं।मुझे आपसे कहने में गर्व है कि मैं ऐसे धर्म का अनुनायी हूं जिसकी पवित्र भाषा संस्कृत में एक्सक्लूजन शब्द अननुवाद्ध है। मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मो और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है
मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता है कि जिस वर्ष यहूदियों का मंदिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया उसी वर्ष विशुद्धतम यहूदियों के एक अंश को जिसने दक्षिण भारत आकर शरण ली थी,अपने हृदय में स्थान दिया था।मैं उस धर्म का अनुयाई होने में गर्व अनुभव करता हूं जिसने महान जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह आज भी कर रहा है”। स्वामी जी का संबोधन लोगों के ह्रदय मे बस गया।
कोलकाता के बंगाली कुलीन कायस्थ श्री विश्वनाथ दत्त और श्रीमती भुवनेश्वरी देवी के घर 12 जनवरी 1863 को जन्मे बालक नरेंद्र को शिकागो मे लोग ब्राह्मण संयासी के नाम से सम्बोधित करने लगे।ज्ञान और अध्यात्म की पारलौकिक आभा से प्रदीप्त सांचे मे गढ़ा व्यक्तिव हर किसी के लिए आकर्षण का केन्द्र बन गये। स्वामी विवेकानंद जी को सादर नमन।
लेखकः राकेश श्रीवास्तव