सुप्रीम कोर्ट के आदेश से परेशान श्रमिकों को क्या मिला?
राम दत्त त्रिपाठी, पूर्व संवाददाता, बीबीसी
तमाम हीलाहवाली के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कोरोना वायरस के चलते देश व्यापी लॉक डाउन से महानगरों में फँसे श्रमिकों एवं अन्य नागरिकों को उनके गाँव घर पहुँचाने के बारे में सरकार को जो कुछ “निर्देश” दिए हैं, वह मूलतः वही हैं जो केंद्र सरकार पहले से करती आ रही थी. इसलिए निकट भविष्य में श्रमिकों की परेशानियाँ ख़त्म होने के आसार नहीं हैं.
मोटे तौर पर केंद्र सरकार की इसी प्रक्रिया और नीति के चलते ट्रेनें नहीं चल पा रही थीं और लाखों लोग सड़क, रेल पटरी पर, साइकिल या ट्रकों से चलने को मजबूर हुए. फिर भी अभी लाखों लोग फँसे हैं.
संक्षेप में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश हैं :
1.प्रवासी श्रमिकों के लिए ट्रेन या बस से कोई किराया नहीं लिया जाएगा। रेलवे किराया का किराया राज्यों द्वारा साझा किया जाएगा।
2. प्रवासी श्रमिकों को संबंधित राज्य और केन्द्र शासित प्रदेशों द्वारा उन स्थानों पर भोजन और भोजन उपलब्ध कराया जाएगा, जहां वे ट्रेन या बस में चढ़ने के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं।
3. रेल यात्रा के दौरान, राज्यों को भोजन और पानी उपलब्ध कराएंगे।
4. रेलवे को प्रवासी श्रमिकों को भोजन और पानी उपलब्ध कराना चाहिए। बसों में भोजन और पानी भी उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
5. राज्य प्रवासियों और राज्यों के पंजीकरण की देखरेख करेंगे ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि पंजीकरण के बाद, उन्हें जल्द से जल्द परिवहन किया जा सके।
6. जिन प्रवासी श्रमिकों को सड़कों पर चलते हुए पाएं, उन्हें तुरंत आश्रयों में ले जाएं और भोजन और सभी सुविधाएं प्रदान की जानी चाहिए।
7. जब और जब राज्य सरकारें ट्रेनों के लिए अनुरोध करें हैं, तो रेलवे को उन्हें प्रदान करे।
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को मजदूरों की समस्याओं का संज्ञान लिया था। कोर्ट ने कहा था कि “हम प्रवासी मजदूरों की समस्याओं और दुखों का संज्ञान लेते हैं, जो देश के विभिन्न हिस्सों में फंसे हुए हैं। अखबारों में छपी खबरें और मीडिया रिपोर्ट लगातार लंबी दूरी तक पैदल और साइकिल से चलने वाले प्रवासी मजदूरों की दुर्भाग्यपूर्ण और दयनीय स्थिति दिखा रही हैं।
जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस एम आर शाह की बेंच ने कहा था कि “भले ही इस मुद्दे को राज्य और केंद्र दोनों स्तरों पर हल किया जा रहा हो, लेकिन प्रभावी और स्थिति को बेहतर बनाने के लिए केंद्रित प्रयासों की आवश्यकता है। “
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पहले हस्तक्षेप से मना कर दिया था
इससे पहले पंद्रह मई को सुप्रीम कोर्ट ने लॉक डाउन के कारण भूख प्यास से बहाल प्रवासी श्रमिकों को राहत देने के लिए जनहित याचिका नामंज़ूर कर दिया था. याचिका ख़ारिज करते हुए कहा था कि अदालत ने कहा कि देशभर में प्रवासी मजदूरों की गतिविधियों की निगरानी करना या उन्हें रोकना असंभव है।
अदालत ने कहा कि सरकार को इस संबंध में आवश्यक कार्रवाई करनी चाहिए।केंद्र सरकार ने तब अदालत को बताया था कि श्रमिकों को पैदल चलने के बजाय अपनी बारी का इंतज़ार करना चाहिए.
श्रमिकों का कहना था कि पंजीकरण कराने के बावजूद न ट्रेन चलायी जा रही है, न बस.औरंगाबाद ट्रेन दुर्घटना के बाद ट्रेनों में कुछ हलचल हुई थी , मगर वह पर्याप्त न थी. तमाम ट्रेनें जानी कहीं और थीं, चली कहीं और गयीं. रास्ते में लोग भूखे प्यासे तड़पते रह गए. की की जानें चली गयीं. इनमें मुज़फ़्फ़रपुर वाला वह दृश्य याद कीजिए जिसमें एक अबोध बालक अपनी मृत को जगाने की कोशिश कर रहा है.
भारतीय रेल की क्षमता प्रतिदिन चार करोड़ यात्री ले जाने की है. लेकिन रेल मंत्री पीयूष गोयल की ज़िद है की ट्रेन तभी चलेगी जब सम्बंधित राज्य सरकार जाने वाले श्रमिकों सूची उपलब्ध कराए, लेने वाला राज्य तैयार हो और किराया जमा करे. इसी लाल फ़ीता शाही और राज्यों से तालमेल के अभाव में ट्रेने नहीं चल पा रही, या जो स्पेशल ट्रेनें चलीं वे भारी अव्यवस्था का शिकार हुईं. ट्रेन हाई क्या वायुयान सेवाएँ भी बुकिंग के बाद अचानक रद्द हो गयीं.
मजबूरी में लोग महँगी दरों पर ट्रक टेम्पो करके अपने गाँव घर गए .लोग दुर्घटनाओं में मारे गए. लाखों लोग पैदल और साइकिलों से हज़ार किलोमीटर से ज़्यादा सफ़र करके पहुँचे. केवल बिस्कुट पानी के सहारे. कहीं कहीं स्थानीय लोगों और सरकारी एजेंसियों ने भी खाना पीना दिया. कुछ जगह पुलिस ने इसके लिए भी मना किया. पुलिस ने बहुत जगह लाठियाँ भांजी तो बहुत जगह सहायता भी की.
सुप्रीम कोर्ट के पंद्रह मई के निर्णय की व्यापक आलोचना हुई. कई पूर्व जजों समेत सुप्रीम कोर्ट बार के अध्यक्ष ने खरी खोटी सुनायी. देश के चोटी के वकीलों ने चीफ़ जस्टिस को तत्काल श्रमिकों को राहत दिलाने के लिए अपने संवैधानिक कर्तव्य की याद दिलायी .
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज, जस्टिस मदन बी लोकुर और वी गोपाला गौड़ा ने कोर्ट के व्यवहार की तुलना इमरजेंसी के दौर के सुप्रीम कोर्ट से की, जब कोर्ट ने नागरिकों के बुनियादी अधिकारों के प्रति निराशाजनक उदासीनता का प्रदर्शन किया था।
हाईकोर्ट के पूर्व जजों, जस्टिस ए पी शाह और कैलाश गंभीर ने कोर्ट की अपनी जिम्मेदारियों को त्याग देने के रवैये की आलोचना की। इन सभी न्यायविदों ने एकमत से कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने गंभीर संवैधानिक संकट के बीच प्रवासियों को निराश किया।
सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष और वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने सुप्रीम कोर्ट के रवैये पर निराशा व्यक्त करते हुए कहा- “जज नागरिकों के दुखों प्रति आंखें मूंदकर हाथी दांत के महलों में बैठे नहीं रह सकते।”
वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े ने कहा कि अदालत की निष्क्रियता ‘हाशिये के इंसानों से सामाजिक दूरी’ बरतने जैसी है।
कई प्रमुख वकीलों – पी चिदंबरम, आनंद ग्रोवर, इंदिरा जयसिंह, मोहन कटारकी, सिद्धार्थ लूथरा, संतोष पॉल, महालक्ष्मी पावनी, कपिल सिब्बल, चंदर उदय सिंह, विकास सिंह, प्रशांत भूषण, इकबाल चागला, अफी चिनॉय, मिहिर देसाई, जानकी देसाई, द्वारकादास, रजनी अय्यर, युसुफ मुच्छाला, राजीव पाटिल, नवरोज सरवाई, गायत्री सिंह और संजय सिंघवी – ने मुख्य न्यायधीश ने पत्र लिखकर प्रवासियों मजदूरों के मामले में सुप्रीम कोर्ट से तत्काल हस्तक्षेप करने की मांग की थी.
इसके बाद ही जस्टिस अशोक भूषण की बेंच ने मामले का “स्वतः संज्ञान” लेने का आदेश दिया, जिसकी परिणति इस आदेश में हुई.
पूरी सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार के वक़ील तुषार मेहता का रुख़ निराशाजनक रहा. उनका कहना था कि बुद्धिजीवी और अन्य लोग श्रमिकों को पैदल चलने के लिए भड़का रहे हैं. उनका यह भी कहना था की रेल विभाग खाना पानी सब दे रहा है.
श्रमिक नेता की प्रतिक्रिया
वर्कर्स फ्रंट के नेता दिनकर कपूरने अपनी प्रतिक्रिया में कहा, “बेहद निराशाजनक सुप्रीम कोर्ट का निर्णय.अभी भी राज्यों पर ही सारा बोझ.
राज्य की #मांग पर ही चलेगी ट्रेन. तब नया क्या कहा आपने मी लार्ड. उन्होंने माँग की है कि सरकार तत्काल पूरी क्षमता से ट्रेन चलाए.
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