कठघरे में तीस्ता सीतलवाड

राम दत्त त्रिपाठी
राम दत्त त्रिपाठी,
पूर्व संवाददाता बीबीसी

सुप्रीम कोर्ट Supreme Court ने गुजरात दंगों पर जाकिया जाफ़री की याचिका पर अपने फ़ैसले में तीस्ता सीतलवाड Teesta Seetalvaad एवं दो और पुलिस अधिकारियों को को कठघरे में खड़ा दिया है। इसके बाद अब अदालत से न्याय माँगना या पीड़ित की मदद करना जोखिम भरा काम हो गया है।गुजरात दंगों के दौरान सत्ता शीर्ष पर बैठे दोषियों को सजा दिलाने की मुहिम में जो हुआ उससे तो यही धारणा बनती है। सुप्रीम कोर्ट ने न केवल दंगा  पीड़ित Zakia Ehsan Jafri जाकिया एहसान जाफ़री की याचिका ख़ारिज कर दी, बल्कि उन लोगों  को कठघरे में खड़ा करने के हुक्म दे  दिया, जो याचिका कर्ता  के मददगार माने जाते हैं ,  यद्यपि वे न तो मामले के पक्षकार थे और न उनको दोषी करार देने से पहले उन्हें सुनवाई का मौक़ा दिया गया।

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सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में इस बात पर भी प्रश्न चिन्ह लगाया गया कि इन लोगों ने ऊँचे पदों पर बैठे लोगों के खिलाफ अभियान चलाने की  धृष्टता कैसे की?  उच्च पदस्थ लोगों को न्यायिक प्रक्रिया के तहत जवाबदेह बनाना कब से जुर्म हो गया ? 

अगर सुप्रीम कोर्ट की बेंच को लगा था कि तीस्ता सीतलवाड या कोई अन्य लोग न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग कर कर रहे हैं तो वह उन लोगों को अदालत की अवमानना का नोटिस देकर उनको अपनी बात कहने का मौक़ा देने के बाद दोष सिद्ध होने पर उचित दंड का आदेश पारित कर सकती थी . 

आम तौर पर पुलिस प्रशासन अदालत के आदेश पर तब तक कोई कार्यवाही नहीं करता जब तक उसकी प्रमाणित प्रति मिलने के बाद सरकार का न्याय विभाग उसका परीक्षण नहीं करके दिशा निर्देश नहीं देता . पर ऐसा लगता है गुजरात पुलिस ने इस मामले में पहले से अनुमान लगाकर सारी कार्यवाही की तैयारी कर ली थी, या उनके पता था कि सुप्रीम कोर्ट यही आदेश देगी. 

पुलिस ने मानव अधिकारों के लिए काम करने वाली पत्रकार तीस्ता सीतलवाड, गुजरात के पूर्व पुलिस महा निदेशक आरबी श्रीकुमार और एक अन्य पुलिस अधिकारी संजीव भट्ट के ख़िलाफ़ मुक़दमा क़ायम कर लिया। फटाफट तीस्ता और आरबी श्रीकुमार की गिरफ़्तारी हो गयी, संजीव भट्ट पहले से एक दूसरे मामले में जेल में हैं। 

सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से स्तब्ध 

न केवल भारत बल्कि दुनिया में लोग सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले से स्तब्ध हैं. देश के तमाम वकीलों और पूर्व जजों ने इस मामले में लेख लिखकर और बयान देकर चिंता प्रकार की है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मदन बी लोक़ुर Justice madan B Lokur ने तो एक लेख लिखकर फ़ैसला देने वाली सुप्रीम कोर्ट बेंच के जजों को सुझाव दिया कि वे एक स्पष्टीकरण जारी करें कि उन्होंने तीस्ता सीतलवाद और दोनों पुलिस अधिकारियों की गिरफ़्तारी का सुझाव नहीं दिया न उनकी ऐसी नीयत थी.

उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि फ़ैसला लिखने वाली बेंच को फ़ौरन ही तीस्ता सीतलवाद को जेल से रिहा करने का आदेश देना चाहिए. लेकिन सुप्रीम कोर्ट बेंच की ओर से ऐसी कोई पहल नहीं हुई है. 

इस सिलसिले में यह भी विचारणीय है कि इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने ही हाईकोर्ट आदेश के खिलाफ जाकिया एहसान जाफ़री की याचिका को सुनवाई के लिए स्वीकार किया था ।तो क्या उन जजों ने बिना किसी आधार के याचिका स्वीकार की थी?

तीस्ता को न्याय कौन देगा? 

चूँकि इस मामले में गिरफ़्तारी सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हुई इसलिए निचली अदालतों से तीस्ता को ज़मानत या न्याय मिलना असंभव सा लगता है. 

सुप्रीम कोर्ट के कुछ वकीलों ने इस बात पर भी आश्चर्य प्रकट किया है कि अयोध्या जजमेंट की तरह इस फ़ैसले पर भी किसी जज ने हस्ताक्षर नहीं किया . यदि ऐसा है तो यह अपने आप में बहुत गंभीर बात है और कई प्रश्न खड़े करता है. 

मामले की जड़ 

मामले की जड़ यह है कि जाकिया जाफ़री अपने सांसद पति और अन्य लोगों की दंगों में सुनियोजित हत्या के लिए गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और अन्य उच्च पदाधिकारियों समेत 63 लोगों की  ज़िम्मेदारी का निर्धारण कराकर उन्हें सजा दिलाना चाहती थीं . तीस्ता सीतलवाद एवं अन्य लोग इस अभियान में साथ दे रहे थे. 

यह आम चर्चा रही है कि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने दंगाइयों को  पूरी छूट दी थी और पुलिस प्रशासन को उनके काम में हस्तक्षेप से मना किया था. अगर मुख्यमंत्री ने न भी रोका हो तो भी यह तो एक निर्विवाद तथ्य है कि पुलिस ने दंगाइयों को रोकने की कोशिश नहीं की. फिर वे किसके इशारे पर हाथ पर हटा धरे बैठे थे। सॉंसद एहसान जाफ़री सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों को मदद के लिए फ़ोन करते रहे पर किसी ने मदद नहीं की. ज़िम्मेदार पदों  बैठे लोगों ने इसकी गवाही भी दी है। 

एसआईटी रिपोर्ट 

सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर गठित एस आई टी ने अपनी रिपोर्ट में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी समेत किसी के खिलाफ आपराधिक लापरवाही या दंगा के षड्यंत्र में शामिल होने का सबूत नहीं पाया . लेकिन जाकिया जाफ़री और तीस्ता सीतलवाद ने इसे स्वीकार नहीं किया . जाकिया न्याय के लिए फिर सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर पहुँची थी . 

चूँकि बहुत बड़े और शक्तिशाली लोगों के ख़िलाफ़ मामला था सुप्रीम कोर्ट बेंच  की ज़िम्मेदारी थी कि वह एसआईटी रिपोर्ट की गहराई से छानबीन करती , आवश्यकता होती तो उन्हें फिर से जॉंच और सबूत जुटाने को कहती . कोई सबूत नहीं मिलते तो बेशक याचिका ख़ारिज कर दी जाती. 

न्याय में मदद करने वालों को जेल 

किन्तु जाकिया जाफ़री Zakia Jafri मामले में सुप्रीम कोर्ट ने न्याय की लड़ाई में मदद करने वालों के खिलाफ टिप्पणी करके उन्हें जेल भिजवाया है तो अब उसके बाद कौन किसी दंगा पीड़ित या गरीब की मदद करने अथवा बड़े लोगों के खिलाफ गवाही देने का जोखिम लेगा.

पुलिस वालों का क्या होगा?

इस प्रकरण में एक और अहम सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि जो आपराधिक मामले पुलिस दायर करती है बाद में अदालत में अगर सबूतों के अभाव में मुल्जिम छूट जाते हैं और बाइज़्ज़त बरी हो जाते हैं तो क्या मुक़दमा क़ायम करने वाले पुलिस वालों के खिलाफ भी आपराधिक कार्यवाही होगी ? 

ग़लत नज़ीर बदली जाए 

सुप्रीम कोर्ट देश में क़ानून के शासन और नागरिकों के अधिकारों का संरक्षक है . लेकिन तीस्ता को कठघरे में खड़ा करने के आदेश से ग़लत नज़ीर पड़ी है. बेहतर होगा कि चीफ़ जस्टिस  इस फ़ैसले की समीक्षा के लिए एक बड़ी बेंच का गठन करें जो दोनों पक्षों के सुनकर उचित आदेश पारित करे . अन्यथा समाज में यही धारणा बनेगी कि – समरथ को नहीं दोष गुसाईं . और लोग सत्ता पर बैठे लोगों के ख़िलाफ़ बोलने का जोखिम नहीं लेंगे। 

@ramdutttripathi

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