कच्‍छ के सिख किसानों की व्‍यथा कथा

सोशल मीडिया पर दोपहर तक ये माहौल बना कि प्रधानमंत्री ने कच्‍छ में सिख किसानों से मुलाकात की है और उनका दुख-दर्द सुना है। जिन्‍हें निंदा करनी थी, उन्‍होंने भी झट से यही मान लिया और फिर सवाल उठा दिया कि प्रधानमंत्री ने दिल्‍ली में डेरा डाले किसानों से नहीं, बल्कि कच्‍छ जाकर सिख किसानों से मुलाकात क्‍यों की।

सोशल मीडिया पर दोपहर तक ये माहौल बना कि प्रधानमंत्री ने कच्‍छ में सिख किसानों से मुलाकात की है और उनका दुख-दर्द सुना है। जिन्‍हें निंदा करनी थी, उन्‍होंने भी झट से यही मान लिया और फिर सवाल उठा दिया कि प्रधानमंत्री ने दिल्‍ली में डेरा डाले किसानों से नहीं, बल्कि कच्‍छ जाकर सिख किसानों से मुलाकात क्‍यों की। शाम होते-होते तस्‍वीर पर विवाद खड़ा हो गया क्‍योंकि मैंने ‘जनपथ’ पर इसके बारे में सबसे पहली स्‍टोरी की और उसके आधार पर नेशनल हेरल्‍ड में अंग्रेजी में एक स्‍टोरी छप गयी। फिर कुछ और स्‍थानीय चैनलों पर खबर चल गयी कि प्रधानमंत्री से मिलने आए लोग बेशक किसान रहे हों लेकिन सभी भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता थे।

अभिषेक श्रीवास्‍तव

यह 15 दिसंबर 2020 की बात है। दिल्‍ली की सरहदों पर बीस दिन पहले शुरू हुआ किसान आंदोलन उस वक्‍त अपने उरुज पर था और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कुछ विकास परियोजनाओं का लोकार्पण करने कच्‍छ गए थे। इस मौके पर समाचार एजेंसी एएनआइ ने कुछ तस्‍वीरें जारी की थीं जिसमें उन्‍हें कुछ सिखों के साथ बैठा हुआ दिखाया गया था। इस तस्‍वीर को गुजरात बीजेपी से लेकर राज्‍य के तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री विजय रुपानी ने भी ट्वीट किया।

मूल ट्वीट में विवरण लिखा था- ‘प्रधानमंत्री मोदी ने आज कच्‍छ में विभिन्‍न समूहों के लोगों से मुलाकात की।’ भाजपा और उसके कुछ नेताओं ने ‘विभिन्‍न समूहों’ में ”किसानों” को भी जोड़ दिया था। एक व्‍यक्ति ने तस्‍वीर के साथ लिखा था कि अपने नेतृत्‍व में वे “कच्‍छ के सिख किसानों का प्रतिनिधिमंडल लेकर प्रधानमंत्री से मिलने गए हैं।” इनका नाम था जुगराज सिंह उर्फ राजू भाई सरदार।

सोशल मीडिया पर दोपहर तक ये माहौल बना कि प्रधानमंत्री ने कच्‍छ में सिख किसानों से मुलाकात की है और उनका दुख-दर्द सुना है। जिन्‍हें निंदा करनी थी, उन्‍होंने भी झट से यही मान लिया और फिर सवाल उठा दिया कि प्रधानमंत्री ने दिल्‍ली में डेरा डाले किसानों से नहीं, बल्कि कच्‍छ जाकर सिख किसानों से मुलाकात क्‍यों की। शाम होते-होते तस्‍वीर पर विवाद खड़ा हो गया क्‍योंकि मैंने ‘जनपथ’ पर इसके बारे में सबसे पहली स्‍टोरी की और उसके आधार पर नेशनल हेरल्‍ड में अंग्रेजी में एक स्‍टोरी छप गयी। फिर कुछ और स्‍थानीय चैनलों पर खबर चल गयी कि प्रधानमंत्री से मिलने आए लोग बेशक किसान रहे हों लेकिन सभी भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता थे। इसके बाद जुगराज सिंह उर्फ राजू भाई सरदार की प्रोफाइल कई जगहों पर आ गयी जिसमें उन्‍हें भारतीय जनता पार्टी का मंडल महासचिव बताया गया। उसी के बाद कारवां पत्रिका में पंजाब से शिव इंदर सिंह ने कच्‍छ के सिख किसानों पर एक विस्‍तृत स्‍टोरी लिखी।

The Prime Minister, Shri Narendra Modi meets the various groups of people, in Kutch, Gujarat on December 15, 2020. The Chief Minister of Gujarat, Shri Vijay Rupani is also seen.

दिल्‍ली में और सोशल मीडिया पर तो जो हुआ सो हुआ, ज्‍यादा दिलचस्‍प यह रहा कि जीएसटीवी नाम के चैनल ने इसी मुलाकात के बीच लखपत के एक गांव कोठारा में प्रधानमंत्री और कृषि कानूनों का विरोध करते हुए किसानों की फुटेज चला दी। भाजपा नेता के नेतृत्‍व में किसानों का प्रधानमंत्री से मिलने जाना अपने आप में कोई समस्‍या नहीं थी, सवाल बस इतना था कि ये किसान किस समस्‍या का जिक्र करने प्रधानमंत्री के पास गए थे। क्‍या उन्‍होंने कृषि कानून पर कोई चर्चा की? इसका जवाब हमें आजतक की रिपोर्टर के एक सवाल में मिलता है जब नरेंद्र मोदी के साथ बैठक कर के लौट रहे एक सिख से उसने पूछा कि किसान कानून पर उनकी प्रधानमंत्री से क्‍या बात हुई। उन्‍होंने साफ़ कह दिया कि कानून पर कोई बात नहीं हुई, केवल गुरुद्वारा बनाने पर बात हुई है।

मीडिया में ऐसे विवादों की उम्र चौबीस घंटे से ज्‍यादा नहीं होती लेकिन स्‍थानीय स्‍तर पर विभिन्‍न पक्षों के बीच इसका कुछ भी परिणाम हो सकता है। दिल्‍ली का मीडिया फैक्‍ट चेक करते वक्‍त उससे गाफिल रहता है और बाद में अपने किये का फॉलो-अप भी नहीं करता। हुआ यह कि इस प्रकरण पर लखपत के कुछ सिख बहुल गांवों में 15 दिसंबर के बहुत बाद तक तनाव बना रहा। इस तनाव को समझने के लिए यह बताया जाना जरूरी है कि इस पूरे प्रकरण में केंद्र में राजू भाई सरदार नाम के जो शख्‍स हैं, उनका एक और अहम परिचय यह है कि वे लखपत में उदासी पंथ के ऐतिहासिक गुरुद्वारे के अध्‍यक्ष भी हैं। इसके अलावा वे प्रधानमंत्री के अल्‍पसंख्‍यक 15 सूत्री कार्यक्रम के सदस्‍य हैं और सिख बहुल नरा गांव के सरपंच रह चुके हैं। उनके बाकी परिचय उन्‍हीं के नाम की निजी वेबसाइट पर देखे जा सकते हैं। इनमें सबसे गैर-ज़रूरी परिचय यह है कि वे लखपत के दयापर स्थित सरदार होटल और दीप्‍स रेस्‍त्रां के मालिक हैं।

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इस घटना के कोई नौ महीने बाद सितम्‍बर 2021 में मैं कच्‍छ गया। भुज से लखपत के रास्‍ते में दो तीन काम निपटाते हुए मैं खड़ी दोपहर डेढ़ बजे के आसपास दयापर पहुंचा।

दयापर बाजार से कुछ फर्लांग आगे बायीं पटरी पर स्थित सरदार होटल कच्‍छ के रेगिस्‍तान में किसी तालाब की तरह दूर से चमकता है। बेहतरीन आधुनिक डिजाइन वाली उम्‍दा लकड़ी और कांच से बनी इमारत और परिसर में लगे हुए हरे-हरे पेड़ पौधे उड़ती धूल और बरसती आग के बीच आंखों को राहत देते हैं। बारिश हुए तीन दिन हो चुके थे और मौसम गरम था। भूख परवान चढ़ चुकी थी और लियाकत हमें लेने अब तक नहीं पहुंचा था। मौका था और दस्‍तूर भी, सो दोपहर का भोजन राजू भाई के सरदार होटल में हुआ। बाहर तीन सौ साठ डिग्री नजर दौड़ाकर जितने प्राणी गिने जा सकते थे, आश्‍चर्यजनक रूप से होटल के भीतर उससे ज्‍यादा इंसान मौजूद थे। आसपास चल रही परियोजनाओं के ठेकेदार, इंजीनियर से लेकर सीमा सुरक्षा बल के गश्‍ती दल के सिपाही और कुछ सम्‍भ्रांत राहगीर व पर्यटक, सब भोजन पर जुटे थे।

दिल्‍ली के किसी भी तीन सितारा रेस्‍त्रां को मात देने वाली व्‍यवस्‍था है राजू भाई के होटल में, ऐसा कहने मे कंजूसी नहीं करनी चाहिए। ईमानदारी का तकाज़ा है कि यह भी कह दिया जाय कि भोजन बेहद उम्‍दा और लजीज़ था- शुद्ध पंजाबी दाल और मुलायम नान। बीते दस साल की अपनी निरंतर कच्‍छ यात्रा के दौरान लखपत के उजाड़ के बीच ऐसा वैभव इससे पहले मैंने नहीं देखा था गोकि दयापर होते हुए ही हर बार लखपत जाना हुआ। इसकी वजह ये है कि यह होटल दो साल पहले से ही ऐसा बना है। उसके पहले यह एक सामान्‍य ढाबा था। लोग बताते हैं कि भुज में भी राजू भाई का एक होटल है।

राजू भाई से मिलने की हमने कोशिश नहीं की। उनका नंबर था। बात भी की जा सकती थी, लेकिन उससे कुछ सधता नहीं। हमने लोगों से बात की। लखपत के गुरुद्वारे में बात की। पूरी कहानी समझी, कि आखिर कच्‍छ के सिख किसानों का मसला क्‍या है। लोगों के अनुभव तो अपनी जगह हैं, लेकिन लखपत और अब्‍डासा की राजनीतिक तस्‍वीर को जाने बगैर उन अनुभवों को समझना मुश्किल होगा।

दरअसल, कच्‍छ के लखपत तालुका का नरा और अब्‍डासा तालुका का कोठारा दो ऐसे गांव हैं जो सिख बहुल हैं। नरा को यहां का मिनी पंजाब कहा जाता है। लखपत के लोगों से बात करने पर पता चला कि जितने भी सिख किसान प्रधानमंत्री से मिलने गए थे, ज्‍यादातर नरा के थे। राजू भाई नरा के सरपंच रह चुके हैं। गुरुद्वारे के ग्रंथीजी भी नरा में ही रहते हैं, हालांकि मूलनिवासी वे उत्‍तराखंड के रूद्रपुर के हैं। पिछले स्‍थानीय निकाय चुनाव में अकेले लखपत तालुका ही था, जिसे भाजपा ने कांग्रेस से छीन लिया था। इससे पहले वह कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था। स्‍थानीय अखबारों की मानें तो 2018 के इस चुनाव में कांग्रेस को पटकनी देने के लिए भाजपा ने कर्नाटक मॉडल पर काम किया था। 20 जून 2018 के कच्‍छ खबर ने इस शीर्षक से एक समाचार छापा था, ‘घर का भेदी लखपत ढाए’। इसके बाद बीते दो साल में लखपत तालुका की स्‍थानीय राजनीति में भाजपा की पैठ गहरी हो गयी। इस पैठ की बड़ी वजह बना लखपत का गुरुद्वारा, जिसके अध्‍यक्ष राजू भाई सरदार हैं और आजकल वे वहां 18 कमरों का रिजॉर्ट बनवा रहे हैं।

20 जून 2018 के कच्‍छ खबर ने इस शीर्षक से एक समाचार छापा था, ‘घर का भेदी लखपत ढाए’। इसके बाद बीते दो साल में लखपत तालुका की स्‍थानीय राजनीति में भाजपा की पैठ गहरी हो गयी। इस पैठ की बड़ी वजह बना लखपत का गुरुद्वारा, जिसके अध्‍यक्ष राजू भाई सरदार हैं और आजकल वे वहां 18 कमरों का रिजॉर्ट बनवा रहे हैं।

बताते हैं कि चुनावी जीत और सियासी वर्चस्व के बावजूद भारतीय जनता पार्टी को अब भी यहां के बहुसंख्‍य सिख किसानों का सामाजिक समर्थन प्राप्‍त नहीं है। इसकी वजह यह है कि भाजपा के ही राज में आज से दस साल पहले यहां के सिख किसान अपनी ज़मीनों से महरूम हो गए थे। नरेंद्र मोदी के आखिरी मुख्‍यमंत्रित्‍व काल में गुजरात सरकार ने करीब 800 सिख किसानों की ज़मीनों के खाते फ्रीज़ कर दिए थे। वे न अपनी जमीन बेच सकते थे, न उन पर लोन उठा सकते थे।

2010 में पहली बार कच्‍छ के जिलाधिकारी के माध्‍यम से आए नोटिस से इन किसानों को पता चला कि ये ज़मीनें उनकी नहीं हैं क्‍योंकि वे गुजरात के मूलनिवासी नहीं हैं। यह साबित करने के लिए 1973 का कोई सरकारी सर्कुलर इस्‍तेमाल किया गया, जो कांग्रेस की तत्‍कालीन सरकार ने जारी किया था। इसके बाद ये किसान इस मसले को लेकर गुजरात हाइकोर्ट गए, जहां 2012 में इन्‍हें जीत मिली, लेकिन गुजरात की तत्‍कालीन मोदी सरकार ने हाइकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी।

किसान आंदोलन के बीचोंबीच नरेंद्र मोदी के कच्छ दौरे के बहाने फिर से उभर आया यह पूरा मामला। संक्षेप में पंजाब के वरिष्ठ पत्रकार जतिंदर तूर ने उसी दौरान एक पंजाबी चैनल पर समझाया था, जिसके बाद बात निकल कर दिल्‍ली के मीडिया तक पहुंची। बताते हैं कि हाइकोर्ट के फैसले के बाद कोई 52 किसानों की ज़मीनों का मामला निपट गया। उसके बाद से ये 52 किसान लगातार एक स्‍वर में यह बात कहते रहे हैं कि केवल वही किसान बचे हुए हैं, जिनके पास 1973 के सर्कुलर के हिसाब से काग़ज़ात नहीं हैं। उनके मुताबिक इनकी भी संख्‍या 700 से ऊपर है।

सुप्रीम कोर्ट में कच्‍छ के इन सिख किसानों का मुकदमा लड़ रहे चंडीगढ़ के अधिवक्‍ता हिम्‍मत सिंह शेरगिल के मुताबिक अपनी ज़मीन से महरूम ऐसे कच्‍छी सिख किसानों की संख्‍या कम से कम 5000 है। कुछ साल पहले जब यह मामला पंजाब चुनाव में उछला था, तब कांग्रेस नेता प्रताप सिंह बाजवा ने इनकी संख्‍या 50,000 के करीब बतायी थी।

हिम्‍मत सिंह शेरगिल फिलहाल चंडीगढ़ में रहते हैं। दिसंबर में जब प्रधानमंत्री के दौरे पर विवाद उठा था, उसी दौरान फोन पर विस्‍तार से हुई बातचीत में उन्‍होंने पूरे मामले की पृष्‍ठभूमि को समझाते हुए मुझे बताया था, “कुल फ्रीज़ की गयी ज़मीन कोई एक लाख एकड़ से ज्‍यादा है, जिसे गुजरात सरकार उद्योगपतियों को देना चाहती थी। इस केस में सुप्रीम कोर्ट में आखिरी तारीख 2015 में पड़ी थी। उसके बाद से सुप्रीम कोर्ट में कोई तारीख ही नहीं लगी।” स्‍थानीय लोगों के बयान इस दावे से बेमेल हैं। यह पूछे जाने पर कि 52 किसानों को तो जमीन वापस मिल गयी थी न? उनका जवाब था:
”ये जानकारी मुझे नहीं है कि ऐसा कुछ हुआ था। मेरे खयाल से तो सबका मुकदमा गुजरात सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अटका रखा है। राहत मिलेगी तो सबको एक साथ मिलेगी। कानून सब पर एक बराबर लागू होता है, अलग अलग नहीं। हाइकोर्ट ने भी सभी किसानों के हक में निर्णय दिया था।”

यही वे 52 किसान हैं, जो हर बार नरेंद्र मोदी के लिए संकटमोचक बनकर सामने आते हैं। राजू भाई सरदार इन्‍हीं के नेता हैं। नरेंद्र मोदी के भाजपा में प्रधानमंत्री पद का आधिकारिक उम्‍मीदवार चुने जाने के बाद जब आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने कच्‍छ के सिख किसानों की ज़मीन का मामला दिल्‍ली में उठाया था, तब इन्‍हीं किसानों का समूह राजू भाई की अगुवाई में दिल्‍ली आया था।

लोकसभा चुनाव 2014 के दौरान अरविंद केजरीवाल और कांग्रेस पार्टी दोनों ने ही तत्‍कालीन गुजरात सरकार और मोदी पर सवाल उठाया था कि वे सुप्रीम कोर्ट के सहारे क्‍यों सिख किसानों की ज़मीन हड़पना चाह रहे हैं।

केजरीवाल दो दिन के फैक्‍ट फाइंडिंग मिशन पर गुजरात के कच्‍छ 2014 के मार्च के पहले सप्‍ताह में गए थे। वहां उन्‍होंने अब्‍डासा के किसानों से मुलाकात की थी और बहुत विस्‍तार से राज्‍य की मोदी सरकार पर सवाल उठाया था।

इससे पहले पंजाब कांग्रेस नरेंद्र मोदी पर सवाल उठा चुकी थी। पंजाब में कांग्रेस के अध्‍यक्ष प्रताप सिंह बाजवा ने नरेंद्र मोदी को इस मसले पर एक पत्र भी लिखा था और 2010 में कच्‍छ के जिलाधिकारी के आदेश को भेदभावकारी ठहराया था। इससे भाजपा की गठबंधन सहयोगी अकाली दल पर बहुत दबाव बन गया था।

इस दबाव से अकाली को उबारने और तत्‍कालीन गुजरात सरकार को क्‍लीन चिट देने में राजू भाई सरदार और वही पचास किसान दिल्‍ली आए थे, जो 15 दिसंबर, 2020 को प्रधानमंत्री से कच्‍छ में मिलने गए।

सवाल है कि 15 दिसंबर को जो सिख किसान मोदी से कच्‍छ में मिले, उन्‍होंने बात क्‍या की? कुछ जगहों पर यह सूचना फैलायी गयी है कि इन किसानों ने अपनी फ्रीज़ ज़मीनों के बारे में बात की। यह तो तथ्‍यात्‍मक रूप से गलत बात है क्‍योंकि ये उन्‍हीं किसानों का समूह है जिनकी ज़मीनों का मामला सुलझ चुका है, फिर ये जमीन पर बात क्‍यों करने जाएंगे। खुद इस तथ्य को राजू भाई सरदार सही ठहराते हैं, जब वे कच्छ के सिख किसानों पर अंकित अग्रवाल के बनाए एक यूट्यूब वीडियो को प्रमाणित करते हुए ट्वीट करते हैं कि ”यही सच्ची कहानी है और सभी विवरण दुरुस्‍त हैं”।

इस तरह एक बात तो तभी तय हो गयी थी कि इस बैठक का न तो किसान कानूनों से कोई लेना देना था, न ही कच्‍छ में बसे सिख किसानों की समस्‍या से। किसान आंदोलन से तो इसका दूर-दूर तक कोई वास्‍ता नहीं था। बिलकुल वैसे ही, जैसे 19 नवंबर 2021 को प्रधानमंत्री द्वारा कृषि कानूनों को वापस लेने सम्‍बंधी की गयी घोषणा का न तो किसान आंदोलन से लेना-देना था न किसानों की समस्‍याओं से, बल्कि यह विशुद्ध चुनावी निर्णय था। इस बात को दिन चढ़ते-चढ़ते इस देश का हर मतदाता समझ चुका था।

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रात लखपत में गुजारने के बाद अगली सुबह जब हम गुरुद्वारे में पहुंचे तो प्रवेश द्वार पहले से बहुत संकरा हो चुका था और चारों ओर से निर्माण कार्य की आवाजें आ रही थीं। पिछले चार साल से मैं सुन रहा था कि इस गुरुद्वारे का नवीनीकरण होना है। कोरोना से पहले पिछली बार 2019 के अक्‍टूबर में जब आया था तो यहां एक मास्‍टर प्‍लान का लेआउट भी लगा हुआ था। तभी चाबर मिली थी कि निर्माण कार्य का लोकार्पण करवाने की योजना में अमिताभ बच्‍चन का यहां आना भी शामिल है, हालांकि वह सफल नहीं हो सका। इस बार काम पूरे शबाब पर था।

इस गुरुद्वारे के नवनिर्माण के लिए 2017 में पांच करोड़ रुपये स्‍वीकृत हुए थे। गुरद्वारे का प्रबंधन एक ट्रस्‍ट करता है, जिसमें सभी धर्मों के प्रतिनिधि शामिल हैं, हालांकि यह इमारत पुरातत्‍व सर्वेक्षण के अंतर्गत विरासतों में गिनी जाती है क्‍योंकि गुरुनानक देव यहीं से मक्‍का गए थे और उनके बेटे श्रीचंद जी ने उदासी पंथ के इस केंद्र की स्‍थापना की थी। सरकार सीधे इसे पैसा देती है। इस स्‍थल के महत्‍व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि साल भर में इस सुदूर इलाके में लाखों श्रद्धालु देश-विदेश से आते हैं। पीक सीज़न नवंबर में शुरू होकर पूरे रण महोत्‍सव की अवधि तक चलता है। स्‍थानीय श्रद्धालुओं की भी कमी नहीं है क्‍योंकि यहां के पांध्रो, नरा, नलिया, कोठारा, मांडवी और भुज तक सिखों की अच्‍छी खासी तादाद है।

मेरी पहली मुलाकात गुरुद्वारे के ग्रंथी 36 वर्षीय फतेह सिंह जी से हुई। वे उत्‍तराखंड के रूद्रपुर के मूल निवासी हैं और यहां तीन साल से हैं। उन्‍होंने मुद्दा उठाते ही यह जानकारी दी कि निर्माण कार्य के आर्किटेक्‍ट ने पूरे काम का 18 करोड़ रुपये का बजट दिया है। राजू भाई सरदार और उनके साथी नरेंद्र मोदी से इसी बढ़े हुए बजट पर चर्चा करने के लिए 15 दिसंबर, 2020 को गए थे। उस बातचीत में खेती-किसानी या किसान आंदोलन का कोई मसला शामिल नहीं था।

आखिर यहां के किसानों का मुद्दा क्‍या है, मैंने सीधे फतेह सिंह जी से जानना चाहा। मैंने ये भी पूछा कि दस महीने हो गए किसान आंदोलन को दिल्‍ली में चलते हुए, क्‍या उन लोगों के बीच से समर्थन के लिए कोई जत्‍था वहां गया था। यहां कच्‍छ में और पूरे गुजरात में खेती-किसानी की क्‍या हालत है और किसान आंदोलन से वे खुद को कितना करीब पाते हैं, जबकि उनके भाई-बंधु वहां जान दे रहे हैं। इन सवालों पर ग्रंथी जी ने खुलकर बात की और बहुत उदास मन से बात की।

फतेह सिंह जी बोले, ”जो किसान वहां मर रहे हैं, उन्‍हें हम लोग ‘शहीद’ कहते हैं। दिल से बहुत बुरा लगता है जब किसी की जान जाती है।” उन्‍होंने बताया कि कच्‍छ से कोई जत्‍था दिल्‍ली नहीं गया, तो इसकी खास वजह है। यहां वे लोग राज्‍य सरकार या नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक आवाज नहीं उठा सकते वरना किसी की बिजली काट दी जाएगी तो किसी का पानी बंद कर दिया जाएगा। यहां के सिख किसानों की स्थिति ऐसी है कि यहां रह कर किसी से कुछ बोल नहीं सकते और पंजाब वापस जा नहीं सकते। वहां कौन बैठा के खिलाएगा?

वे मानते हैं कि आंदोलनरत किसान सच्‍चे हैं। उनका कहना था कि अगर मोदीजी ने एमएसपी पर कानूनी गारंटी नहीं दी और किसानों को उनकी उपज का सही मूल्‍य नहीं मिला, तो किसान उन पर भरोसा नहीं कर पाएंगे।

पिछले कुछ वर्षों से कच्‍छ के किसानों के बीच नरमा (कपास) उपजाने की आदत लग गयी है। कपास बहुत पानी पीता है। जमीन की हालत ये है कि हर साल नमक की मात्रा बढ़ती ही जा रही है।

वे बताते हैं कि पिछले कुछ वर्षों से कच्‍छ के किसानों के बीच नरमा (कपास) उपजाने की आदत लग गयी है। कपास बहुत पानी पीता है। जमीन की हालत ये है कि हर साल नमक की मात्रा बढ़ती ही जा रही है। पिछले साल एक एकड़ जमीन में 20 से 30 मन नमक निकला था। इससे जमीन की उपजाऊ ताकत जाती रही है। यह यहां के किसानों का बड़ा संकट है।

शुरुआत में जब 2007-08 के दौरान यहां के किसानों ने कपास की बुवाई शुरू की थी तो एक एकड़ मे 80 मन उपज होती थी। आज यह उपज गिरकर 15 मन पर आ गयी है। फसल पर सब्सिडी केवल उन किसानों को मिलती है, जिनके पास ड्रिप सिंचाई प्रणाली है। ये कुछ बड़े किसान हैं। बाकी छोटे किसानों ने मोटर लगवा ली। जमीन में नमी बढ़ती गयी, जिसके चलते बहुत से किसानों को अपनी जमीनें छोड़ कर कहीं और जाना पड़ा।

कृषि कानून लागू होने से पहले यहां गेहूं की खरीद 2025 रुपये पर हुई थी। इस साल उन्‍हें इसके 1600 भी नहीं मिले हैं। किसानों ने इंतजार किया कि खरीद की दर किसी तरह बढ़ जाए, लेकिन उलटे वह गिरकर 1300 पर आ गयी। फतेह सिंह कहते हैं कि भुज में कृषि मंडी बेशक है लेकिन खरीद की दर यहां स्‍थानीय स्‍तर पर ही तय हो जाती है, मंडियों में नहीं।

इसके अलावा यहां के कपास में एक समस्‍या भी है। बाहर से देखने में वह बहुत सुंदर लगता है लेकिन उसके भीतर एक कीड़ा बैठा रहता है। पंजाब में कपास में कीड़ा लगने पर मुआवजे का प्रावधान है और किसान उसका दावा ठोक देते हैं। वे बताते हैं, ”यहां पूरा सिस्‍टम प्राइवेट है। बीज विदेशी होते हैं और हमारे पास बीज और स्‍प्रे की खरीद के बिल नहीं होते। इसके अलावा यहां कपास पर फसल बीमा भी नहीं है क्‍योंकि गुजरात सरकार का मानना है कि यहां की मिट्टी कपास उपजाने के लिए नहीं है।”

दो दिन पहले की ही एक घटना वे बता रहे थे कि दयापर में किसानों से 1300 के रेट पर गेहूं की खरीद की गयी और आगे उसे 2500 में बेच दिया गया। इसका नतीजा यह हुआ है कि गेहूं उपजाने वाले सिख किसानों को अब अपनी जेब से बाजार से आटा खरीदना पड़ रहा है। दूसरे खेतिहार समुदायों की स्थिति सिखों के मुकाबले बेहतर है क्‍योंकि वे पूरी तरह खेती पर निर्भर नहीं हैं। फतेह सिंह जी बताते हैं कि पटेल जैसी बिरादरी खेती से बहुत कम कमाती है, बाकी काम-धंधों पर उसका जीवन टिका होता है। इसके ठीक उलट सिख परिवारों की आय का एकमात्र साधन खेती है क्‍योंकि वे यहां दूसरे काम-धंधे नहीं कर पाते।

इन तमाम वजहों से कच्‍छ के सिख किसानों की हालत बहुत नाजुक हो चुकी है लेकिन संकट यह है कि वे बोल नहीं सकते। सन 1991-92 में नरा गांव को मिनी पंजाब का अवॉर्ड मिला था। आज यह मिनी पंजाब संकट में घिर चुका है क्‍योंकि तब वाली सरकार नहीं रही। पिछले बीस साल से भाजपा की सरकार ने सिखों की खेती को बहुत मुश्किल बना दिया है।

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यह हाल तब है जबकि पंजाब, हरियाणा, सिंध और उत्‍तराखण्‍ड के सिखों ने इस इलाके को अपनी मेहनत से उपजाऊ बनाया है। सन 1965 में तत्‍कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्‍त्री ने इन किसानों को यहां जमीनें दी थीं। सरकार ने इन विस्‍थापितों को छह से आठ महीने का समय दिया था कि वे जंगल काट के अपने लिए जमीन को उपजाऊ बना लें। फतेह सिंह के पूर्वजों ने इस जंगल की जमीन को अपनी हाड़तोड़ मेहनत से खेती के लायक बनाया और यहीं बस गए। जब तक कांग्रेस की सरकार रही, इनके सामने कोई संकट नहीं आया।

फतेह सिंह बताते हैं कि समस्‍या 2004-05 में शुरू हुई जब राज्‍य की मोदी सरकार ने सिख किसानों को ‘परप्रान्‍ती’ या बाहर का कह दिया और उन्‍हें चले जाने को कहा। सबके लोन खाते सीज़ कर दिए गए। इस मामले को कानूनी रूप से उठाने का काम कांग्रेस के नेता शक्तिसिंह गोहिल ने किया और अंतत: उच्‍च न्‍यायालय में गुजरात सरकार मुकदमा हार गयी। फिर मामला सुप्रीम कोर्ट में गया जहां आज तक लटका हुआ है। वे बताते हैं कि आज भी कुछ किसानों के लोन खाते सीज़ हैं। उन्‍हें सही-सही संख्‍या का अंदाजा नहीं है।

फतेह सिंह एक दर्दनाक बात कहते हैं, ”देश के किसी भी इलाके के सिख किसानों से हमारी हालत मिला के आप देख लो। हमारा हाल ये है कि न हम इधर के रहे न उधर के। और जगहों के किसान कम से कम आवाज तो उठा सकते हैं। यहां बोलना मना है।”

कच्‍छ के किसानों ने 2011 और उसके बाद पंजाब के तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री प्रकाश सिंह बादल से मदद की गुहार लगायी थी। आज भले बादल की पार्टी शिरोमणि अकाली दल किसान आंदोलन के समर्थन में है लेकिन उस वक्‍त उन्‍होंने कई बार के आवेदन के बावजूद यहां के किसानों की आवाज को अनसुना कर दिया था। इसके पीछे का कारण ग्रंथी जी बताते हैं, ”राजू भाई का कुछ लेना देना बादलों के साथ है।”

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19 नवंबर 2021 को कृषि कानूनों को संसदीय रास्‍ते से वापस लिए जाने सम्‍बंधी प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद मीडिया में कई जगह अजीबोगरीब विश्‍लेषण छपे हैं। मसलन, न्‍यूज़18 के राजनीतिक संपादक अमिताभ सिन्‍हा लिखते हैं:

”पीएम मोदी सिख समुदाय की भावनाओं को लेकर हमेशा खासे संवेदनशील रहे हैं। जब सिख समुदाय के एक प्रतिनिधि मंडल ने उनसे मिलकर करतारपुरसाहिब खोलने की मांग की तो पीएम ने फैसला लेने में देर नहीं लगायी।जब कृषि कानून की बारी आयी तो उन्होंने गुरुनानक जयंती का दिन चुना।”

इसी तरह आउटलुक की वेबसाइट ने घोषणा के बाद प्रधानमंत्री को सिखों का हितैशी ठहराते हुए प्रेस ट्रस्‍ट ऑफ इंडिया के इनपुट से एक स्‍टोरी छापी। इस स्‍टोरी में याद दिलाया गया कि कैसे उन्‍होंने गुजरात का मुख्‍यमंत्री रहते हुए 2001 में आए भूकंप के बाद लखपत के गुरुद्वारे का नवीनीकरण करवाया था।

खुद प्रधानमंत्री ने घोषणा करने के बाद बुंदेलखंड में कुछ परियोजनाओं का लोकार्पण करते हुए जो भाषण दिया, उसमें कच्‍छ के साथ बुंदेलखंड की तुलना करते हुए कहा कि अच्‍छे से जानते हैं कि पानी की समस्‍या के कारण किसानों को क्‍या दिक्‍कतें आती हैं।

ऊपर के उदाहरणों के पीछे कारणों को समझने के लिए याद किया जाना चाहिए कि कच्‍छ में राजू भाई सरदार और उनके साथियों से मोदी के मिलकर आने के बाद केंद्र सरकार ने एक पुस्तिका जारी की थी जिसमें मोदी सरकार का सिखों से कितना गहरा नाता रहा है, ये जताने की कोशिश की गयी थी। पुस्तिका का नाम था: ”पीएम मोदी और उनकी सरकार का सिखों के साथ विशेष सम्‍बंध”। पूरे मीडिया ने इस पुस्तिका के बारे में रिपोर्ट किया था। भारतीय रेलवे की केटरिंग एजेंसी आइआरसीटीसी ने दो करोड़ यात्रियों को इस पुस्तिका के मेल भेजे थे।

कुल मिलाकर देखा जाय तो खुद प्रधानमंत्री और उनके साथ सारा मीडिया बार-बार सिखों के प्रति मोदी के ‘विशेष लगाव’ का हवाला देता रहा और बीच-बीच में कच्‍छ का भी जिक्र आता रहा। किसी मीडिया ने यह दिखाने की जहमत नहीं उठायी कि मोदी के कच्‍छ दौरे पर वहां के कुछ किसानों ने वाकई प्‍लेकार्ड लेकर कृषि कानूनों का विरोध किया था। कच्‍छ के किसानों की ज़बान पर लगी पाबंदियों का जो जिक्र लखपत गुरुद्वारे के ग्रंथी ने हमसे किया था, उसके बाद कुछ कहने-सुनने को रह नहीं जाता।

बस एक पंजाबी किसान की कहानी पूरे मामले को संक्षेप में समझने में मददगार होगी।

हरजिंदर सिंह 2010 में मोदी के वाइब्रेंट गुजरात निवेश सम्‍मेलन से प्रभावित होकर पंजाब से कच्‍छ चले गए थे। उन्‍होंने वहां जमीन भी अपने नाम रजिस्‍ट्री करवा ली थी, लेकिन विभाग ने दाखिल खारिज करने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि वे बाहरी हैं। इस चक्‍कर में वे ट्यूबवेल का कनेक्‍शन भी नहीं लगवा पाए। ऊपर से डीजल-पेट्रोल पंजाब से ज्‍यादा महंगा था। पंजाब की तरह वहां मंडी भी नहीं थी और गेहूं का एमएसपी 1200 से 1300 रुपये क्विंटल था, जो पंजाब में उस वक्‍त 1950 चल रहा था। आखिरकार कई सीजन में घाटे के बाद उन्‍हें पंजाब लौट आना पड़ा।

यह कहानी लिखे जाने तक हरजिंदर सिंह दिल्‍ली के सिंघू बॉर्डर पर साल भर से आंदोलनरत किसानों के बीच शामिल थे और देश के किसानों को संसद का शीतसत्र शुरू होने का इंतजार था।

*(अभिषेक श्रीवास्‍तव स्‍वतंत्र पत्रकार हैं। भारत के जन आंदोलनों पर केंद्रित रिपोर्ताज का उनका एक संकलन ‘देसगांव’ अगोरा प्रकाशन से 2018 में प्रकाशित हो चुका है। गुजरात के कच्‍छ जिले में वे बीते पांच साल से घूम रहे हैं और कच्‍छ पर केंद्रित एक यात्रा-वृतान्‍त राजकमल प्रकाशन से शीघ्र प्रकाशित होने वाला है।)

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