श्रीराम ने भी खाया था लिट्टी-चोखा

प्रियदर्शन शर्मा

बिहार में मगही में कहते हैं कि – जै खइहें लिट्टीचोखा, कहियो नै खैमे धोखा

भारत की विविधता की पहचान इसके खानपान में भी है। हर राज्य के साथ कोई न कोई एक ऐसा व्यंजन जुड़ा है जो उसे एक विशेष भौगोलिक पहचान देता है।

यहाँ तक कि हर राज्य में भी अलग अलग क्षेत्र के साथ विशेष स्वाद जुड़ा है। इसी क्रम में पिछले वर्षों के दौरान बिहार के साथ ‘लिट्टी-चोखा’ की पहचान जुड़ी है।

सच कहिये तो इसे पहचान देने में अपने ठेंठ गंवई अंदाज वाले लालू यादव की अहम भूमिका रही जिन्होंने अपने पारिवारिक, सामाजिक और राजनैतिक आयोजनों में लिट्टी – चोखा को अहम स्थान दिया और ‘मीडिया कवरेज’ ने इसे राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध कर दिया। यहाँ तक कि लालू जब केंद्र में रेलमंत्री बने तब उन्होंने रेलवे के खानपान में भी लिट्टी-चोखा को विशेष तौर पर उभारा।

वैसे राष्ट्रीय स्तर पर लिट्टी-चोखा को प्रसिद्ध करने में बिहार का पलायनवाद भी एक कारण बना। पिछले करीब तीन दशक की अवधि में देश में सर्वाधिक पलायन का दंश जिन राज्यों ने झेला है उनमें बिहार को शीर्ष पर रखा जा सकता है।

बिहारी  जहां जहां गए अपने साथ खानपान के नाम पर एक ‘लिट्टी-चोखा’ ही साथ ले गए। या कहिये भांति भांति की भाषा और व्यंजनों वाले बिहार में विविधतापूर्ण बिहार को एक सूत्र में बांधने का काम भी लिट्टी-चोखा ने किया।

 चाहे भोजपुर हो या मगध, विदेह का मिथिला हो या कर्ण का अंग क्षेत्र, यहां तक कि झारखंड के सभी क्षेत्रों में अगर कोई एक व्यंजन सबकी जुबान पर और सबके स्वाद में मिलता है तो वह है ‘लिट्टी-चोखा’।

हालांकि लिट्टी-चोखा की शुरुआत कब हुई, कहां से हुई इसे लेकर कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। न कोई विशेष दन्तकथा है, हां एक जगह यह प्रसंग जरूर है कि श्री राम ने भी लिट्टी-चोखा खाया था।

जैसे ही ठंड का मौसम आता है बिहार में सब के घर में लिट्टी चोखा बनना शुरू हो जाता है लेकिन बिहार का एक ऐसा जिला है जहां हर घर में एक दिन लिट्टी चोखा ही बनता है।

 मेरे एक मित्र ने बताया था, ऐसा बक्सर जिले में होता है जहां पर इसके पीछे एक पौराणिक मान्यता भी है। बक्सर ही नहीं आस पास के जिलों में भी लोग हिन्दी माह के अगहन के कृष्ण पक्ष को लिट्टी चोखा प्रसाद के रुप में ग्रहण करते हैं। लोग इस दिन को पंचकोश के रूप में भी जानते हैं।

 पहले बक्सर में पांच दिनों का मेला लगता है और मेला जिस दिन समाप्त होता है उस दिन को वहां के लोग पंचकोश के नाम से जानते है। फिर वहां के लोग लिट्टी चोखा खाते हैं। इसे सनातन धर्म की आभा कहें या जिला वासियों का संस्कृति से लगाव।

 कहा जाता है कि हिन्दी माह के अगहन  कृष्ण पक्ष में भगवान श्रीराम और लक्ष्मण जब सिद्धाश्रम पहुंचे तो इस क्षेत्र में रहने वाले पांच ऋषियों के आश्रम पर आर्शीवाद लेने आए थे। वहीं विश्वामित्र मुनि ने उन्हें लिट्टी-चोखा खाने के लिए दिया था और भगवान राम ने इसे बड़े ही प्यार से खाया था।

लिट्टी चोखा सामाजिक सामंजस्य स्थापित करने का एक सशक्त माध्यम भी है। यह पूरे गांव-समाज या मित्रमंडली को  जाड़े की शीतल रात में एक जगह जुटने का कारण भी बनता है। भूले-बिछड़े यारों को साथ लाने का काम करता है। और सबसे बड़ी बात पुरुषों के भीतर छुपी पाककला को भी उभारता है। रसोई से हमेशा दूर रहने वाले मर्दजात को आटा गूंथने से लेकर प्याज काटने का सबक भी लिट्टी-चोखा बनाने से मिलता है।

तो #छठ की पूर्णाहुति के बाद शनिवार की शाम अपने पास-पड़ोसियों संग लिट्टी-चोखा-खीर का आनंद लें…..

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