उपनिषद काल का समाज कैसा था
-ऋषि विनोबा
उपनिषद काल का राजा अश्वपति अपने राज्य की महिमा का वर्णन करते हुए कहता है :
न मे स्तेनों जनपदे, न कनदरपो न मद्यप:। न अनाहितागनिर न । अविद्वान न स्वैरी स्वैरिणी कुत:* मेरे राज्य में न तो चोर है, न कंजूस। अर्थात वह दोनों को, एक ही पंक्ति में बैठाता है और इस तरह संकेत करता है कि कृपण चोरों के जनक तथा चोर उनके उत्तराधिकारी पुत्र हैं। कंजूस ने चोरों को पैदा किया है। कंजूस चोरों का बाप है। उनके औरस पुत्रों को हम जेल भेजते हैं और पिता को खुले छोड़ते हैं। वे शिष्ट बनकर समाज में घूमते हैं और गद्दी पर बैठते हैं, यह कहां का न्याय है?
इसके साथ ही *न मद्यप:* कहकर उस राजा ने मानो शरीर राज्यव्यवहार के लिए एक कार्यक्रम भी बता दिया है। कहीं चोरी नहीं होनी चाहिए। कहीं कंजूस नहीं होने चाहिए और कोई शराब न पिए और न कोई व्यसनी ही रहे।
आगे यही राजा कहता है- न मेरे राज्य में भगवान की भक्ति न करने वाला कोई भी नहीं है । उन दिनों भगवान की भक्ति अग्नि की उपासना के जरिए होती थी। मतलब यह परमेश्वर की उपासना न करने वाला कोई नहीं, और फिर वह कहता है *नाविद्वान* अविद्वान कोई नहीं यानी हमारे राज्य में सभी विद्वान हैं। सामान्य पढ़ना लिखना सभी को आता है। सभी साक्षर थे। साक्षर का अर्थ यह नहीं कि उन्हें सिर्फ अक्षर ही आते थे। बल्कि पूरे अक्षर और अर्थ उनके जीवन में उतरे थे। वैसे ही हमारे राज्य में हर व्यक्ति विद्वान होना चाहिए। राजा ने अंत में कहा *न स्वैरी स्वैरिणी कुत:* ।
मेरे राज्य में दुराचार करने वाला पुरुष कोई नहीं है ।फिर जहां ऐसा पुरुष नहीं होगा तो वहां दुराचार करनेवाली स्त्री हो ही नहीं सकती। दुराचार की सारी जिम्मेदारी पुरुषों पर डाली गई है।
अस्वाद का आशय?
अस्वाद कोई नई चीज नहीं, परंतु अस्वाद- व्रत नई चीज है। अस्वाद को छांदोग्य उपनिषद में *वैश्वानर- विद्या* नाम दिया है। उसको *ब्रह्म प्राप्ति* का साधन मानकर वैश्वानर अग्नि की उपासना कही। *वैश्वानर वह है, जो पेट में पडे हुए अन्न को पचाता है*। उस वैश्वानर को ब्रह्म का प्रतीक समझकर उसकी उपासना बतायी। *प्राणाय स्वाहा* इत्यादि पंचाहुति बतायी। हवनकुंड में आहुति देना है, इससे बेहतर वर्णन क्या हो सकता है। अस्वाद- व्रत का नाम नहीं लिया है। लेकिन साक्षात, उपासना बतायी।
*खाने को बैठे यानी वैश्वानर भगवान को आहुति देने बैठे। जो चीज उपासना में आ गयी, उसका व्रत से कम अर्थ नहीं है।* शायद कुछ ज्यादा ही अर्थ निकले।
निद्रा की क्या स्थिति?
निद्रा की अनुभूति सबको होती है, लेकिन वह निद्रा किस तरह आती है, इसकी मीमांसा अभीतक नहीं हुई है। तत्वज्ञानियों के अनेक ग्रंथ पड़े हैं , जिनमें कहा गया है कि निद्रा में क्या होता है। उसका वर्णन और व्याख्या कुछ भी कीजिए, उसकी कोई हाथ नहीं आयी है।
योगशास्त्र में कहा है- *अभाव- प्रत्ययालंबना वृत्ति: निद्रा* निद्रा एक वृत्ति है , जिसका आधार अभाव की अनुभूति है । उपनिषद कहता है कि निद्रा में जीवात्मा परमात्मा में लीन हो जाता है, लेकिन अज्ञान की उपाधि चित्त को लगी रहती है। *अतः सति संपद्य न विदु: सति संपद्यामहे* सत को प्राप्त होकर भी हम सत से एकरूप हुए हैं , ऐसा जानते नहीं।
आत्मा परमात्मा में लीन
एक बोतल में गंगा जल है, और उस बोतल को सील करके गंगा के पानी में डाल दिया है । ऐसा देखा जाए तो अंदर – बाहर गंगा का ही पानी है। लेकिन बोतल का गंगाजल सील किया हुआ है। जबतक सील है, बोतल का गंगाजल, गंगा के अलग रहेगा। सील टूट जाएगा तो पानी एक हो जायेगा । उसी तरह जीवात्मा – अहंकार वेष्टित आत्मा- परमात्मा में लीन नहीं होता। परंतु अगर वह अहंकारवेप्टित न हो, तो पानी में पानी मिल जाएगा।और मुक्ति का अनुभव आयेगा।
प्रस्तुति: विनोबा प्रचार प्रवाह की ओर से
रमेश भइया ,
विनोबा सेवा आश्रम, शाहजहाँपुर द्वारा प्रसारित