तो रमेश बतरा सत्तर बरस के हो जाते
हिन्दी में लघुकथा लिखने वाली पहली पीढ़ी के स्तंभ माने जाने वाले रमेश बतरा ने टाइम्स ऑफ इंडिया समूह की कथा पत्रिका सारिका से पत्रकारिता शुरू करके नवभारत टाइम्स और फिर साप्ताहिक संडे मेल में बतौर सहायक संपादक काम किया था। उनसे जुड़ी यादें साझा कर रहे हैं त्रिलोक दीप जो संडे मेल के कार्यकारी संपादक थे:
23 नवंबर को मेरे अज़ीज़ रमेश बतरा का जन्मदिन था। अगर आज वह हमारे बीच होते तो सत्तर बरस के हो गए होते अर्थात् उम्र में मुझ से सवा पंद्रह साल छोटे लेकिन सोच विचार में मुझ से आगे।
मैं काल और वर्ष को पैमाना नहीं मानता। यह भी तो कहा जा सकता है कि जीते जी वह इतना कुछ कर गया कि आज उसके जन्मदिन पर कहीं उसकी याद में विशेष कार्यकम हो रहे हैं तो कहीं पुस्तक लोकार्पण के प्रोग्राम चल रहे हैं। बेशक़ व्याख्या का अपना अपना पैमाना होता है।
अगर काल और साल के लिहाज से यह पूछा जाये कि मैं रमेश बतरा को कब से जानता था तो इसका सीधा सपाट और दुनियावी उत्तर है,चार-पांच बरस से। कितना जानता था इस पैमाने को तय करने का मेरा अपना शुद्ध निजी अधिकार है ।उसे मैंने उसके नाम से तो उसकी कहानियों और ‘सारिका ‘पढ़ कर जाना था और उसे समझा था ‘संडे मेल ‘ में उसके साथ काम करके।
मुंबई से शिफ्ट होकर ‘सारिका ‘ पत्रिका जब दिल्ली आयी तो हम ‘दिनमान’ और ‘पराग ‘ के लोग 10, दरियागंज के दफ्तर में एक ही हाल में बैठा करते थे।
कुछ साथी कहा करते थे कि ‘सारिका’ के लोग परदे में बैठते हैं।
संपादक कन्हैयालाल नंदन ने अपनी कैबिन के साथ ही एक जुड़वा कैबिन बनवा रखी है जहां उन्होंने ‘सारिका ‘के साथियों को पर्देदारी में रखा हुआ है, सिर्फ सहायक संपादक अवध नारायण मुद्गाल के लिए दिनमान की तरफ़ उन्हें एक कैबिन बनवा दी है ।इस पर्देदारी के बावजूद सारिका के लोग दिनमान और पराग के अपने साथियों से खुल कर मिलते रहते थे।
जिस हाल में हम सब लोग बैठते थे उसके बीचोंबीच एक बड़ी -सी टेबल थी जो वहां रखे टाइपराइटर से पहचानी जा सकती थी ।वहां मैं बैठता था। शिष्टाचार के नाते रमेश बतरा वहां दो चार बार आकर मुझ से मिले थे। वे मेरे नाम और काम से परिचित थे और मैं उनके नाम और काम से।
किंतु सही मायने में हम दोनों एक दूसरे के करीब ‘संडे मेल’ में आये ।वहीं आकर मुझे पता चला कि नंदन जी उन्हें सहायक संपादक बना कर लाये हैं।
इसके साथ ही मुझे यह सुनने को भी मिला कि मुद्गल जी नहीं चाहते थे कि रमेश बतरा सारिका छोड़ कर जायें और उन्होंने नंदन जी से भी इस बाबत बात भी की थी ।इस पर नंदन जी ने मुद्गल जी को यह उत्तर दिया बताते हैं कि रमेश तरक्की पर जा रहा है,तुम इसके रास्ते का रोड़ा क्यों बन रहे हो।
इस पर मुद्गल जी उस समय चुप्पी तो साध गये थे लेकिन नंदन जी की यह दलील उन्हें कहीं भीतर तक ‘घायल ‘ कर गयी थी । खैर, कार्यकारी संपादक होने के नाते मैंने दिलखोल कर उनका स्वागत किया ।नंदन जी ने यह जानकारी भी दी कि रमेश बतरा संडे मेल के रंगीन पृष्ठ देखेंगे,पत्रिका उदय प्रकाश और पेपर महेश्वरदयालु गंगवार ।
इन वरिष्ठ लोगों की सलाह से बाद में कुछ और नियुक्तियां हुईं । अब धीरे-धीरे रमेश जी मेरे करीब आने लगे ।हमने एक दूसरे के मिज़ाज को समझना शुरू कर दिया ।अब हर छपने वाली सामग्री पर मुझ से भी सलाह मशविरा करने लगे ।मुझ से हमेशा वे पंजाबी में ही बातचीत किया करते थे ।मुझे वे बहुत तहजीबयफ्ता और काम में निपुण व्यक्ति लगते थे ।इन तीनों वरिष्ठ सहयोगियों की अलग-अलग केबिन थीं लिहाजा मैं भी उन लोगों से मिलने के लिए चला जाता ।रमेश अपनी सीट से खड़ा होकर मुझे बैठने के लिये कहते और कुछ देर तक मैं उनके पास बैठता भी था।
इस बीच मुझे पाकिस्तान जाना पड़ा ।संडे मेल के मालिक संजय डालमिया भारत और पाकिस्तान के बीच गैरराजनीतिक स्तर पर एक सेमिनार करना चाहते थे।उस सिलसिले में मैं कई बार पाकिस्तान गया ।लौट कर या तो मैंने कोई राजनीतिक संवाद लिख दिया अथवा उस समय चलने वाले ‘भारत-पाक महासंघ ‘के अंतर्गत कुछ और।
एक दिन रमेश बतरा मेरे केबिन में आकर खड़े खड़े बोले,’भा जी,आप से एक ज़रूरी बात करनी है।’
वे मुझे हमेशा ‘भा जी ‘कह कर ही संबोधित किया करते थे ।उनके बैठने पर पूछा’,बोलो इतने उत्तेजित क्यों हो। किसी से कहा सुनी हुई है।’
उनका जवाब था,’ ऐसा कुछ नहीं है ।मुझे आपसे शिकायत है।’
मैंने जब अपने कसूर के बारे में पूछा तो एक फरमान जारी कर के मुझे हुक्म सुनाया गया कि कल से हर हफ्ते के लिए रंगीन पृष्ठों के लिए पाकिस्तान की कला, संस्कृति, जीवनशैली आदि पर एक लेख लिखेंगे। मैंने सुनीता से कह दिया है कि सुबह की मीटिंग के बाद वह आपसे dictation लेने आ जाया करेगी और टाइप करने के बाद मैटर मुझे दे जायेगी।’
सुनीता सब्बरवाल ‘संडे मेल ‘ में मेरा सारा कामकाज देखा करती थीं ।(आज भी वह संपर्क में हैं और उन्हीं की सहायता और सहयोग से मेरी पुस्तकों पर काम चल रहा है।)
इस तरह रमेश बतरा ने ‘पाकिस्ताननामा ‘ के नाम से मेरा एक साप्ताहिक स्तंभ शुरू कर दिया। उस स्तंभ के अंतर्गत इतने आलेख बन गये जो बाद में पुस्तक के रूप में छपे। रमेश के इस अधिकारनुमा अपनेपन ने हम दोनों को काफी निकट ला दिया और हम लोग दुनिया भर की बातों पर चर्चा करने लगे थे।
एक दिन शाम को रमेश बतरा आये और बोले,’भा जी,आप से एक काम है।’ अब यह उनका प्रिय ड़ायलॉग हो गया। मैंने पूछा,बताओ।
उन्होंने कहा कि आज आपको मेरे साथ घर चलना है , जया और बच्चे आपसे मिलना चाहते हैं ।मैंने हामी भर दी और अपने घर पर फ़ोन करके अपने देर से आने की सूचना दे दी।
जया को मैं पहले से जानता था। वह पराग के लिए लिखा करती थीं ।उनके घर पहुँचनेपर जया और बच्चों ने जमकर स्वागत किया। जया ने घोषणा कर दी, रमेश जी आप को बड़ा भाई मानते हैं, उस लिहाज़ से आप मेरे जेठ जी लगे।
उसने मेरे पैर छुए और बच्चों ने भी ।हम लोग बेटियों से पैर नहीं छुआते इसलिए अन्नपूर्णा को मना कर दिया और नोशी (आज का नमन) को गले लगा लिया।
जया ने बहुत ही स्वादिष्ट भोजन बनाया था ।आनन्द आ गया ।इस प्रकार पारिवारिक स्तर पर संबंध स्थापित हो गये ।दोनों का एक दूसरे के यहां आना जाना शुरू हो गया।
सम्भव है मेरी और रमेश की करीबी की जानकारी नंदन जी को भी हो गयी हो । कभी कभी वे सहास्य कहते भी फ़लां काम रमेश बतरा से करा लेना ।कभी कभी उनका यह कथन मुझे अटपटा भी लगता ।एक दिन मैंने रमेश को समझाते हुए सलाह दी थी कि नंदन जी के साथ अपना व्यवहार पूर्ववत रखो ।मुझ से मिलाने के श्रेय के हक़दार तो वही हैं ।रमेश का फिर से नंदन जी के प्रति पहले जैसा व्यवहार हो गया।
इस बीच टाइम्स ऑफ़ इंडिया से अवकाश प्राप्त कर योगेन्द्र बाली भी हमारी टीम में शामिल हो गये ।उन्हें ब्यूरो प्रमुख बनाया गया ।विशेष मीटिंग्स में रमेश बतरा के साथ बाली जी भी रहा करते थे ।बाली जी की खासियत यह थी कि अंग्रेज़ी के अलावा हिंदी और उर्दू पर भी उनकी अच्छी पकड़ थी ।रमेश बतरा के ‘संडे मेल के ‘दूसरे विभागों से भी बहुत अच्छे संबंध हुआ करते थे।
‘संडे मेल’ के लोकार्पण समारोह में विभिन्न संस्थाओं और पत्रकार समूहों से लोगों को आमंत्रित किया गया था ।दिल्ली के तत्कालीन उपराज्यपाल एयर चीफ़ मार्शल अर्जन सिंह मुख्य अतिथि थे ।लोकसभा स्पीकर बलराम जाखड़ ,वसंत साठे जैसे राजनीतिक भी थे तो राजेन्द्र माथुर, एस. पी.सिंह, एस.निहाल सिंह, अवध नारायण मुद्गल, घनश्याम पंकज, उदयन शर्मा जैसे पत्रकार भी थे।
एक तरफ मुद्गल जी रमेश के साथ कुछ खास बातचीत करना चाहते तो कभी समीर उनके बीच में आ जाता तो कभी कोई और ।मुद्गल जी को मैंने रमेश से यह कहते सुन लिया था कि तुम्हारे चले जाने के बाद मैं अकेला पड़ गया हूं। भाई साहब ने यह अच्छा नहीं किया ।’नंदन जी को रमेश और मुद्गल जी भाई साहब कह कर संबोधित किया करते थे।
रमेश बतरा से जुड़ी और भी बहुत सी यादें हैं जो फिर कभी ।आज उनके जन्मदिन के अवसर पर बस इतनी ही । उनकी असामयिक मृत्यु से मैं टूट सा गया।
भाई मेरे जहां भी हो अच्छे रहो ।तुम्हारी यादें दिलों में अमिट रहेंगी । उन्हें कोई शक्ति मिटा नहीं सकती।