गांधी विचार से ही आत्मनिर्भरता संभव
यह सच है कि, महात्मा गांधी अमर हैं, क्योंकि, गांधी विचार, उनकी स्मृतियों, जीवन और कार्यों का स्मरण करते हुए विश्वभर में निरंतर कार्यक्रम आयोजित होते रहते हैं।
और महात्मा गांधी के नाम पर स्थापित संस्थाओं और अकादमिक शोध पीठों द्वारा समय-समय पर संवाद और चर्चाएं आयोजित की जाती हैं।
लेकिन, सिर्फ इतना ही नहीं, बल्कि, गांधीजी की शास्वतता और अमरता को विशेषकर भारत में उनके आदर्शों को मानने वाले असंख्य व्यक्तियों द्वारा जीवित रखे जाने के संदर्भ में बापू की अमरता स्थापित होती है।
लेकिन, क्या महात्मा गांधी के आदर्शों, सिद्धांतों और व्यवहारिक कार्यों को वास्तविक जीवन में अपनाया जाता है?
सैद्धांतिक और व्यावहारिक पक्षों के मध्य अंतराल
यह तो स्पष्ट है महात्मा गांधी के आदर्शों और कार्यों कब धरातल पर क्रियान्वयन होना असंभव नहीं है।
क्योंकि, उन सच्चाईयों को नजरअंदाज कर देने से जो कि वास्तविक हैं, गांधीजी को सच्ची श्रद्धांजलि नहीं दी जा सकती।
सच्चाई यह है कि पर-निर्भरता, मशीनीकरण, पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली, जीवन शैली, झूठ, बेईमानी, स्वार्थ, ईर्ष्या, लालच की बीमारियां घर-घर में है।
फिर, गांधी विचार का क्रियान्वयन करेगा कौन?
हाल ही में बापू और बा की 150वीं जयंती देशभर में मनाई गई।
अखबारों में समाचार आए, घोषणाएं हुईं और कार्यक्रम आयोजित किए गए, लेकिन व्यावहारिक रूप से उनके कार्यों के अनुरूप कोई कार्य किए गए क्या?
यह सब जो हुआ , वह भी प्रायोजित कार्यक्रमों की तरह दिखावटी और सतही रहा।
यदि, ऐसा नहीं होता तो आज देश के 500000 से अधिक बुनकरों के सामने आजीविका का संकट क्यों पैदा हुआ होता?
इस भीषण वैश्विक महामारी के दौर में करोड़ों लोग इतने पीड़ित और परेशान क्यों हुए होते ?
गांधी के देश में जहां पर्याप्त संसाधन, सरकारों के खरबों के बजट और धर्मार्थ संस्थाओं और अन्यान्य के पास खरबों रुपये की पूंजी और हीरे जवाहरात उपलब्ध है, करोड़ों लोगों के रोजगार पर संकट क्यों उत्पन्न होता?
आज भी करोड़ों लोग बेरोजगार और गरीबी रेखा से नीचे क्यों होते?
मोटे तौर पर यह वास्तविकताएँ ही गांधीजी के आदर्श की चर्चा करने और उनके धरातल पर क्रियान्वयन के अंतराल को स्पष्ट कर देते हैं।
क्यो प्रासंगिक हैं गांधी विचार?
गांधी विचार इसलिए प्रासंगिक हैं, क्योंकि वह व्यावहारिक हैं।
और इस वैश्विक और राष्ट्रीय महासंकट के दौर में गांधीवादियों द्वारा इसीलिए गांधीजी की महत्ता और महत्व को रेखांकित किया जा रहा है।
लेकिन, समस्या यह है की व्यक्तिगत रूप से गांधी जी के कार्यों को बढ़ाने के लिए सामने आने का जोखिम कोई मोल नहीं लेना चाहता।
गांधी जी के नाम पर स्थापित ट्रस्ट और संस्थाएं उनके पास उपलब्ध जमीन, खेती, संसाधन, संगठन का प्रबंध करने, उन पर अपना स्वामित्व बनाए रखने आदि कार्यों में व्यस्त हैं।
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चंद गिने-चुने सिद्ध पुरुषों के पास अनेकों ट्रस्टों की जिम्मेदारियां है।
और केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के पास बहुराष्ट्रीय कंपनियों और देश की बहुराष्ट्रीय कंपनियों और पूंजीवादी उपक्रमों के साथ साठगांठ करके बड़े-बड़े प्रोजेक्टों से शहरी उच्च और मध्यम आयवर्ग के मतदाताओं को संतुष्ट करने और विकास का दावा करने के कार्य हैं।
फिर गांधी जी के मार्ग पर चलने के लिए जो कसौटी आवश्यक है, जिनका उल्लेख प्रारंभ में किया गया है।
उस कठिन मार्ग पर चलकर जिनमें स्वदेशी तकनालाजी, श्रम आधारित उत्पादन पद्धति, संसाधनों का विकेंद्रीकरण, न्यास धारिता का उत्पादन और वितरण के कार्यों में क्रियान्वयन, संयम, विलासिता और आडंबरपूर्ण जीवन शैली का त्याग इत्यादि का अनुकरण कैसे होगा?
कैसे बन सकती है देश में गांधीवादी व्यवस्था
निसंदेह, जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया कि, गांधीजी के आदर्शों को व्यवहारिक जीवन में अपनाने वाले व्यक्तियों की संख्या भी काफी है।
यह अनुभव इस साल जनवरी माह में गांधीजी के द्वारा स्थापित अहमदाबाद स्थित गुजरात विद्यापीठ के प्रवास के दौरान हुआ।
अध्यापन कार्य के दौरान कर्तव्यनिष्ठ गांधीवादी विद्यार्थियों के द्वारा मुझसे प्रश्न किया गया कि अंततः देश में गांधीवादी व्यवस्था कैसे स्थापित हो सकती है?
सहज रूप से इसका उत्तर जो मुझे सूझा, वह यह था कि, देश भर में ऐसे 1000 गुजरात विद्यापीठ स्थापित करके।
आशय यह है कि ,पूंजीवादी व्यवस्था के इस दौर में और उससे उत्पन्न खतरों से बचने के लिए जीवन शैली, सोच और व्यवहार में गांधीवादी आचार-विचार को अपनाने के लिए देशभर में शिक्षण की ऐसी संस्थाओं की आवश्यकता है जैसी गुजरात विद्यापीठ में है।
यहां से उच्च शिक्षा प्राप्त विद्यार्थी, प्राध्यापक और एक पूर्व कुलपति तक गुजरात के सुदूर आदिवासी क्षेत्रों में गांधी जी के विचारों पर आधारित समाज और अर्थव्यवस्था के निर्माण के द्वारा लाखों लोगों के जीवन में परिवर्तन लाने के लिए कार्य कर रहे हैं।
लेकिन विडंबना यह है कि, गांधीजी की जयंती के 150वें वर्ष में एक राज्य के मुख्यमंत्री ने राज्य के प्रत्येक कॉलेज में गांधी जी की मूर्ति स्थापित करने की घोषणा कर दी थी। यह कर रही हैं हमारी सरकारें।
गांधी के देश को समझ आ जाना चाहिए कि, 140 करोड़ की विशाल जनसंख्या और विशाल संसाधनों वाले देश में स्वदेशी टेक्नोलॉजी और गांधी जी के उपायों और “विकास मॉडल” को अपनाकर सारी समस्याओं का निराकरण संभव है।
साथ ही आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था, विश्व गुरु की पदवी और महाशक्ति बनना सबकुछ संभव है।
पर क्या यह देश, सरकारें और जनता “गांधी मार्ग को अपनाएंगे
लेखक परिचय
अर्थशास्त्री प्रो. अमिताभ शुक्ल विगत 4 दशकों से शोध, अध्यापन और लेखन में रत हैं। सागर (वर्तमान में डॉक्टर हरिसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय) से डॉक्टरेट कर अध्यापन और शोध प्रारंभ कर भारत और विश्व के अनेकों देशों में अर्थशास्त्र और प्रबन्ध के संस्थानों में प्रोफेसर और निर्देशक के रूप में कार्य किया।
आर्थिक विषयों पर 7 किताबें और 100 शोध पत्र लिखने के अलावा वैश्विक अर्थव्यवस्था और भारत की अर्थव्यवस्था संबंधी विषयों पर पत्र-पत्रिकाओं में लेखन का दीर्घ अनुभव है। “विकास” विषयक विषय पर किए गए शोध कार्य हेतु उन्हें भारत सरकार के “योजना आयोग” द्वारा “कौटिल्य पुरस्कार” से सम्मानित किया जा चुका है। प्रो
. शुक्ल ने रीजनल साइंस एसोसिएशन के उपाध्यक्ष और भारतीय अर्थशास्त्र परिषद की कार्यकारिणी परिषद के सदस्य के रूप में भी योगदान दिया है और अनेकों शोध संस्थाओं और सरकार के शोध प्रकल्पों को निर्देशित किया है। विकास की वैकल्पिक अवधारणाओं और गांधी जी के अर्थशास्त्र पर कार्यरत हैं। वर्तमान में शोध और लेखन में रत रहकर इन विषयों पर मौलिक किताबों के लेखन पर कार्यरत हैं।