अप्रैल की सैलरी आई क्या ?

श्रम दिवस पर विशेष

कुमार भावेश चंद्र

कुमार भवेश चंद्र, वरिष्ठ पत्रकार 

करोंड़ों घरों में पूछा जाने वाला ये सवाल, आज भारतीय अर्थव्यवस्था का बड़ा सच है। अपने देश, प्रदेश और शहर में कोरोना संक्रमितों की संख्या गिनते लोगों का अंकगणित अपने वेतन के हिसाब तक पहुंचते ही एक अनिश्चय में भंवर में फंस जाता है…अनसुलझा रह जाता है। अप्रैल का महीना अभी अभी खत्म हुआ है। सरकारी कर्मचारियों और कुछ अनुशासित-व्यवस्थित निजी कंपनियों ने अपने कर्मचारियों के खातों में सैलरी भेज दी है। सरकारी कर्मचारियों को भत्ते के बगैर मिली सैलरी का दर्द साल रहा है तो निजी कंपनियों में काम करने वाले करोड़ों लोगों के घरों में हर पल एसएमएस की ताकझांक के बीच यह सवाल बेहद उत्सुकता और आकुलता से पूछा जा रहा है कि सैलरी आई क्या?

वैसे तो निजी क्षेत्र के वेतनभोगी कर्मचारियों के एक बड़े तबके को मार्च में ही बड़ा झटका लग चुका है। किसी संस्थान ने 15 से 20 हजार सैलरी पाने वालों को बक्श दिया तो किसी ने उनको भी नहीं छोड़ा। किसी ने लखटकिया सैलरी पाने वालों को भत्ते का झटका दिया तो किसी ने किसी को नहीं छोड़ा। उद्योगों से अपने कर्मचारियों की सैलरी नहीं काटने की प्रधानमंत्री की अपील और नियमों की सख्ती के बीच हकीकत यही है कि लाखों वेतनभोगियों के घर इसलिए चल रहे हैं, क्योंकि रिजर्व बैंक ने जून तक लोन की ईएमआई न चुकाने का विकल्प दिया है। यह बात और है कि इसकी वजह से उनके ऊपर ब्याज का बोझ कम नहीं हुआ है।

आधी अधूरी सैलरी और सीमित खर्चों में जिंदगी काट रहे परिवारों को लॉकडाउन टूटने का इंतजार तो है लेकिन इस इंतजार के साथ एक अनिश्चय भरा भविष्य उन्हें साफ दिखाई दे रहा है। अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने और न लौटने का सवाल अर्थवेत्ताओं के लिए पहेली हो सकती है लेकिन हर महीने वेतन पर जीने वाले करोड़ों परिवारों के लिए ये हकीकत है कि आगे की जिंदगी उन्हें पहले की तरह नहीं दिख रही है। कोरोना संक्रमण पर विजय के बाद उन्हें अपना चौखट पार करने की इजाजत मिलेगी तो चौखट पर ही एक नया सवाल उनके साथ हो लेगा? क्या हमारा आज बीते हुए कल की तरह रहने वाला है। शायद नहीं?

हम सभी जब अपने घरों से निकलकर अपने ही शहर का सामना करेंगे तो वह बदला हुआ होगा। हम जिस दुनिया का सामना करेंगे, वह बदली हुई होगी। हम जिस समाज और जीवन का सामना करेंगे वह भी वैसा नहीं होगा जैसा 25 मार्च के पहले था। सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों के साथ जब नई दिनचर्या की शुरुआत होगी तो रोजगार का सवाल सबसे तीखा होगा ? हमारी आपकी बच गई तो भी अपने ढेर सारे सगे संबंधियों साथियों की नौकरी जाने की जानकारी हम सबके लिए तकलीफदेह रहने वाली है। आर्थिक गतिविधियां शुरू होगी तो किस किस तबके के पास काम रहेगा और किसके लिए इंतजार अभी लंबा रहेगा। इसको लेकर भी न जाने कितने सवाल हैं।

रोजगार पर इन्हीं चिंताओं के बीच इसके असर को कम करने के लिए कांग्रेस ने कुछ सुझाव रखे हैं। सरकारी पैकेज की मांग उठाई है। कांग्रेस का कहना है कि 12 करोड़ लोगों का रोजगार बचाने के लिए सरकार को आगे आना चाहिए। मध्यम और सूक्ष्म औद्योगिक इकाइयों (एमएसएमई) के लिए 2 लाख करोड़ के राहत पैकेज को जरूरी बताया गया है। कहा गया है कि केवल 11 करोड़ लोगों के रोजगार का सवाल तो इसी एमएसएमई सेक्टर से जुड़ा है।

यूपीए सरकार में वित्तमंत्री रहे पी चिदंबरम ने कहा है कि यदि सरकार इस दिशा में फैसला करने में देर करती है तो इससे जुड़े लोगों पर इसका बुरा असर पड़ना लगभग तय है। वित्तमंत्री के रूप में अर्थव्यवस्था की कई चुनौतियों का सामना करने का अनुभव रखने वाले चिदंबरम ने इस पैकेज को लेकर विस्तार से चर्चा की है। उनका कहना है कि एक लाख करोड़ का आवंटन वेतन सुरक्षा पैकेज के रूप में करना चाहिए जबकि शेष एक करोड़ का प्रावधान कर्ज गारंटी कोष के लिए किया जाना चाहिए। इस आर्थिक मदद से न केवल एमएसएमई की गतिविधियों को बनाए रखने में मदद मिलेगी बल्कि इस उद्योग के जुड़े उद्यमियों और कामगारों दोनों की समस्या को फिलहाल बड़ी राहत मिल जाएगी।

दरअसल अप्रैल माह में सभी उद्यमों के साथ ही एमएसएमई की गतिविधियां भी पूरी तरह ठप रहने की वजह से ‘कैश फ्लो’ बिल्कुल थम गया है यानी जरूरी खर्चों के लिए धन की कमी हो गई है। ऐसे में पैसे का प्रवाह बनाने का ये तरीका तरलता का संकट दूर करेगा। वैसे भी अर्थव्यवस्था का नियम यही कहता है कि यह तभी स्वस्थ होती है, जब पैसे हाथ बदलते हैं।

एक बार फिर वेतनभोगियों की समस्या की ओर लौटते हैं। एमएसएमई से इतर उद्यमों में काम करने वाले वेतनभोगियों के वेतन को सुनिश्चित करने के लिए पूर्व वित्तमंत्री का सुझाव भी बहुत ही व्यावहारिक दिख रहा है। उन्होंने एक आकलन पेश किया है जिसके मुताबिक तीन लाख पचास हजार तक की सालाना आय वाले वेतनभोगियों की तादाद एक करोड़ के आसपास है। उन्होंने करीब 30 हजार महीने की सैलरी पाने वालों की चिंता का समाधान के रूप में लिए प्रति कर्मचारी 15000 हजार रुपये की आर्थिक मदद का ऐलान करने पर जोर दिया है। 30 हजार तक के वेतन पाने वालों के लिए 15,000 हजार रुपये का इंतजाम  सरकार की ओर से करने पर खजाने के ऊपर 15,000 करोड़ का बोझ पड़ेगा। वे मानते हैं कि अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाए रखने के लिए यह खर्च कोई बड़ा नहीं है। एक करोड़ परिवारों को यह राहत अर्थव्यवस्था को कितनी बड़ी ताकत दे सकती है इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।

यह सही है कि सरकारी खजाने का स्रोत भी सूख गया है। 25 मार्च के बाद बाजार से लेकर छोटे बड़े सभी उद्योगों के ठप हो जाने से सरकारी कमाई पर बड़ा संकट आया है। पेट्रोल से लेकर शराब की बिक्री से होने वाली आय भी बंद है। लेकिन सरकारी कर्मचारियों के भत्ते और जन प्रतिनिधियों के खर्चों में कटौती करके सरकार ने बड़ी राशि बचाई है। ऐसे में इसका इस्तेमाल अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए किया जाए तो मंदी के माहौल में पैदा होने वाली निराशा से बचा जा सकता है। पूर्व वित्तमंत्री ने सरकार से वेतनभोगियों के पीएफ और ईएसआई कटौती से भी तीन महीने की छूट की मांग की है। अर्थव्यवस्था के बेपटरी होने की चिंताओं के बीच अर्थशास्त्रियों की ओर से भी कई सुझाव आ रहे हैं। मौजूदा चुनौतियों से पार पाने के लिए सरकार को और तेजी से कदम तो उठाने ही होंगे। कोरोना के प्रभाव से उबरते ही  अर्थव्यस्था की चुनौतियां हमारी चिंता बढ़ाने वाली हैं। इस सच का इशारा तो प्रधानमंत्री अपने सभी संबोधनों में कर ही रहे हैं। अब वक्त आ गया है कि वे इसपर कोई ठोस उपाय की घोषणा करें।

आखिर में श्रम दिवस पर सफेद कॉलर वालों की बात

भारत में सफेद कॉलर श्रमिक को लेकर कोई अलग कानून नहीं होना एक बड़ी समस्या है। किसी भी दफ्तर में काम करने वाले सभी लोगों पर एक ही तरह का श्रम कानून लागू होता है। कानून की नजर में हवाई जहाज उड़ाने वाले पायलट और एयरपोर्ट पर कार्गो ढोने वाले श्रमिकों के बीच कोई फर्क नहीं। उदारीकरण के बाद श्रमिक कानून को जिस तरह प्रबंधन के पक्ष में संशोधित कर दिया गया है उससे रोजगार की सुरक्षा एक बड़ा सवाल बन गई है। आज अधिकतर निजी कंपनियों में किसी भी स्तर की नौकरी के लिए मिलने वाले नियुक्ति पत्र में जो शर्तें लिखी जाती हैं वह रोजगार की सुरक्षा नहीं देती। कंपनियों को यह अधिकार होता है कि वह एक निश्चित समय का नोटिस जारी कर अपने कर्मचारियों को कभी भी बाहर का रास्ता दिखा सकता है। इस कानून की आड़ में कंपनियां अपने कर्मचारियों का अधिकमतम शोषण करती हैं। काम के घंटे का पालन नहीं किया जाता। लक्ष्य आधारित नौकरियों में और भी बुरा हाल है। लक्ष्य का पीछा नहीं करने वाले कर्मचारियों की नौकरी तो सुबह किसी पत्ते पर रुके हुए ओस की तरह ही है, जो कभी भी नीचे टपक सकता है… अदृश्य हो सकता है। कहते हैं श्रमिक अर्थव्यवस्था की रीढ़ होते हैं लेकिन इस रीढ़ की हालत देखकर अर्थव्यवस्था की स्थिति को समझा जा सकता है।

लेखक अमर उजाला और नेशनल वॉयस के पूर्व संपादक हैं। 

(syndicated content)

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