स तीर्थराजो जयति प्रयागः –एक 

डा चन्द्रविजय चतुर्वेदी

भारतीय संस्कृति की विशिष्टता प्रकृति के साथ तादात्म्य है |भारतीय मानस में गंगा -यामुना जैसी नदियों के प्रति आस्था का स्वरूप भौतिक और आध्यात्मिक रहा है |इन नदियों के साथ हमारी देवी प्रगाढ़ता में कभी व्यवधान नहीं आया ,हमारे साथ इनका जीवित सम्बन्ध रहा है |माघ मकरगत जब रवि होई ,तीरथपतिहिं आब सब कोई –तीर्थराज प्रयाग के आस्थामय इस अमृत -महोत्सव में ,ऋषियों ,महर्षियों ,पुरावेत्ताओं ,धर्माधिकारियों ,दार्शनिकों सहित समाज के अंतिम व्यक्ति की उपस्थिति का दर्ज होना किसी अंध -श्रद्धा की परिणति मात्र नहीं कहा जा सकता |यह सहस्त्रों वर्ष की वह निरंतरता है जिसके मूल में गंभीर शास्त्रीयएवं   वैज्ञानिक मंतव्य अन्तर्निहित हैं |प्रयाग के संगम तट पर

जुड़ने वाले इस मेले ने भारत की उस सांस्कृतिक धरोहर को समृद्ध किया है ,जिस धरोहर ने प्रकृति के प्रत्यक्ष स्वरूप  से ज्ञान और चेतना में सामंजस्य स्थापित कर ऐसी संस्कृति विकसित की जिसमे ज्ञाता ज्ञान की विवेचना करके उसे ,उसे परिष्कृत विचारों और भावनाओं के माध्यम से वास्तविक व्यवहारों में संप्रेषित करता रहा है |इस सांस्कृतिक विरासत के कारण भारत ,अपने जिस गौरव की पराकाष्ठा के लिए विख्यात है वह गौरव है ,समृद्ध ज्ञान और समरसता का अमृतत्व जिससे भारतीय मन और भारतीय आदर्श सदाशयता और आत्मबलिदान की भूमि पर पुष्पित पल्लवित हुआ |

परम्परागत भारतीय समाज की आर्थिक ,सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्थाएं ,जिन शाश्वत सिंद्धांतों पर आधारित हैं ,वे किसी न किसी रूप में प्रकृति से जुडी हुई हैं |प्राणदायिनी विशाल नदियाँ ,पर्वत और वन ऐसे पुण्यप्रद दिव्य स्थल रहे हैं जो ऋषियों ,महर्षियों और महापुरुषों के अपूर्व धैर्य ,साहस ,पुन्य और सौख्य के अनेक प्रसंगों के माध्यम से निरंतर चेतना का संचार करते रहे हैं |ये विशिष्ट स्थल अपनी पवित्रता के कारण तीर्थ कहलाये –तरति अनेन इति तीर्थं –अर्थात जिसके द्वारा मनुष्य इस अपार संसार से तर जाए |

युगों से भारत की सांस्कृतिक एकता को बनाए रखने में ,तीर्थ स्थानों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है |कई राज्यों में विभाजित ,अनेक जातियों में बंटा हुआ ,संकीर्णताओं में फंसा हुआ भारतवासी यदि कहीं आध्यात्मिक चेतना प्राप्त करता है तो वे हैं तीर्थस्थल |इन तीर्थस्थलों में धर्म और अध्यात्म के समागम ने क्षुद्र मानव में न केवल उच्चतर नैतिकऔर आध्यात्मिक मूल्यों का संचरण किया बल्कि उत्तर –दक्षिण ,पूर्व– पश्चिम की सांस्कृतिक विविधताओं को एक  स्थल पर बैठा दिया |

भारत के तीर्थों में प्रयाग की प्रतिष्ठा महाभारत काल से ही तीर्थराज के रूप में होती रही है| वनपर्व में उल्लेख है की प्रजापति ब्रह्मा ने यहाँ प्राचीन काल में यग्य किया इसी से यज धातु से प्रयाग बना| स्कन्द पुराण में प्रयाग का अर्थ –यागेभ्यः प्रकृष्टह –अर्थात जो यज्ञों से बढ़कर है |अथवा –प्रकृष्ट यागेभ्यः –अर्थात जहाँ उत्कृष्ट यग्य है के रूप में किया गया है |ब्रह्मपुराण में प्रयाग को  प्रकृष्टता के कारण तीर्थराज कहा गया है |प्रयाग ब्रह्मा की वेदियों में बीच वाली वेदी है ,अन्य वेदियों में -कुरुक्षेत्र उत्तर वेदी है तथा गया पूर्व वेदी है |महाभारत में तीर्थराज प्रयाग को पवित्रतम और श्रेष्ठतम बताते हुए सोम वरुण और प्रजापति का जन्मस्थान कहा गया है |

तुलसी बाबा ने –को कहि सकहि प्रयाग प्रभाऊ–कहते हुए तीर्थराज की महिमा में लिखा –

सचिव सत्य श्रद्धा प्रिय नारी ,माधव सरिस मितु हितकारी |चारि पदारथ भरा भंडारु ,पुन्य प्रदेश देसअति  चारु –अर्थात तीर्थराज प्रयाग का मंत्री सत्य है ,श्रद्धा उनकी प्यारी स्त्री है तथा माधव सरीखे हितैषी मित्र हैं |तीर्थराज का भण्डार चार पदारथ -अर्थ ,धर्म ,काम ,मोक्ष से भरा हुआ है |यह पुन्य प्रदेश बहुत सुन्दर है |शास्त्रों में कहा गया है की प्रयाग क्षेत्र का विस्तार परिधि में पांच योजन है और ज्यों ही कोई इस क्षेत्र में प्रवेश करता है उसके प्रत्येक पद पर अश्वमेध का फल मिलता है |

प्रयाग की प्रधानता और इसका तीर्थराज होना इसलिए है की यह एक साथ वैष्णव क्षेत्र है ,शैव क्षेत्र है ,शाक्त क्षेत्र है ,ऋषि क्षेत्र है ,,नाग क्षेत्र है ,बौद्ध क्षेत्र है ,जैन क्षेत्र है ,योग क्षेत्र है , सितासित क्षेत्र है तथा त्रिवेणी क्षेत्र है |

अज्ञः सुविग्याःप्रभावोपिज्ञाह सप्त स्व्पिद्धाह सुकृतान भिज्ञा,

विग्यापयांतः सततं हि काले स तीर्थराजो जयति प्रयागः  |

अर्थात मुर्ख ,पंडित ,स्वामी यग्य ,ग्यानी तथा समस्त वर्गों के पुन्यवान जिनके यश का निरंतर विज्ञापन करते रहते हैं ऐसे तीर्थराज प्रयाग की जय हो |

क्रमशः

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