जनांदोलनों की भूमिका पर संवाद

प्रोफ़ेसर बनवारी लाल शर्मा जन्म दिवस

प्रोफेसर बनवारी लाल शर्माजी के जन्मदिवस पर शुक्रवार को स्वराज विद्यापीठ में वर्तमान समय में जनांदोलनों की भूमिका पर एक संवाद कार्यक्रम का आयोजन किया गया।

प्रोफ़ेसर बनवारी लाल शर्मा

मुख्य वक्ता के रूप में प्रो. बिमल कुमार जी ने कहा कि आज लगातार कॉर्पोरेटी शक्तियां हावी होती जा रही हैं। अपना आधिपत्य जमाने के लिए उन्होंने ऐसा माहौल बना दिया है कि समाज टूटने की कगार पर है। अगर हम समाज को बचा पाए तो इन कॉर्पोरेटी शक्तियों के हाथों गुलाम बनने से बच सकेंगे। जनांदोलन ही वह रास्ता है जो समाज परिवर्तन की सच्ची राह दिखा सकता है। अध्यक्षीय उद्बोधन में वरिष्ठ अधिवक्ता रवि किरन जैन ने कहा कि प्रो. शर्मा ने अपना पूरा जीवन सामाजिक समानता, सद्भाव एवम् समरसता के लिए जिया। उनके जन्मदिवस पर हमें शपथ लेनी चाहिए कि हम भारत की इस संस्कृति को सजोकर रखेंगे। कार्यक्रम में हरियाणा से आए हुए साथियों के साथ ही साथ प्रयागराज के कई साथियों ने अपने विचार रखे।

इस अवसर पीआर एक जल यात्रा की शुरुआत भी हुई। यह यात्रा 20 मई से 5 जून तक प्रयागराज एवं आसपास के जिलों में जायेगी। जल संरक्षण एवं संवर्धन को लेकर यह यात्रा गांव गांव व शहर में भी लोगों के बीच जल के सामुदायिक प्रबन्धन के विचार को फैलाने का कार्य करेगी। प्रयागराज के बाहर के साथियों से भी निवेदन है कि इस तरह की यात्रा का आयोजन यथा सम्भव करें। इससे हम सभी को बल मिलेगा और जल, जंगल, जमीन के सामुदायिक विचार को समाज में फैलाने में हम सभी की महती भूमिका भी होगी।

यात्रा शुरू

प्रकृति ने जल का वितरण भी कुछ इस ढंग से किया है कि वह स्वभाव से सांझेपन की ओर जाता है। आकाश से वर्षा होती है। सब के आंगन में, खेतों में, गांव में, शहर में, और तो और निर्जन प्रदेशों में, घने वनों में, उजड़े वनों में, बर्फीले क्षेत्रों में, रेगिस्तानी क्षेत्रों में सभी जगह बिना भेदभाव के, बिना अमीर गरीब का, अनपढ़ पढ़े-लिखे का भेद किए- सभी जगह वर्षा होती है।

उसकी मात्रा क्षेत्र विशेष के अनुरूप कहीं कुछ कम या ज्यादा जरूर हो सकती है, पर इससे उसका साझा स्वभाव कुछ कम नहीं होता।
जल का यह रूप वर्षा का और सतह पर बहने, ठहरने वाले पानी का है। यदि हम उसका दूसरा रूप भूजल का रूप देखें तो यहां भी उसका साझा स्वभाव बराबर मिलता है। वह सब जगह कुछ कम या ज्यादा गहराई पर सबके लिए उपलब्ध है। अब यह बात अलग है कि इसे पाने, निकालने के तरीके मानव समाज में कुछ ऐसे बना लिए हैं जहां वे जल का साझा स्वभाव बदलकर उसे निजी संपत्ति में बदल देते हैं। कोई भी समाज अपनी इस प्राकृतिक धरोहर को किस हद तक सामाजिक रूप देकर उदारता पूर्वक बांटता है और किस हद तक उसे निजी रूप में बदलकर कुछ हाथों में सीमित करना चाहता है, वह किस हद तक इन दोनों रूपों के बीच संतुलन बनाए रखता है, एवं स्वस्थ तालमेल जोड़े रखता है – इसी पर निर्भर करता है उस समाज का संपूर्ण विकास और कुछ हद तक उसका विनाश भी।
साम्राज्यवाद और कॉरपोरेट उपनिवेशवाद ने लगातार जल, जंगल, जमीन पर एकाधिपत्य स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं और वे इसमें सफल भी होते जा रहे हैं। प्रकृति द्वारा दिए गए वरदानों में सबसे सहज, सरल और तरल पानी बहुत ही पेचीदा मामला बनाया जाने लगा है। जल को लेकर जो भयानक परिस्थिति बन रही है इससे पहले के विषयों को, संकटों को, भूलों या षड्यंत्र को बिल्कुल पीछे छोड़ देगी और लगभग पूरे समाज को, पूरी आबादी को, शहर और गांव को एक सी क्रूरता से चोट पहुंचाएगी।
हमारे समाज में जो जीवनदायी संसाधन थे उनका नियंत्रण प्रायः समाज के हाथ में ही सौंपा जाता था। इसमें जंगल, जमीन और जल तीनों विशेष रूप से समाज द्वारा नियंत्रित रहे हैं। चूंकि इन तीनों पर ही समाज का जीवन टीका था इसलिए उनका संरक्षण और संवर्धन सामाजिक कर्तव्य निभाते हुए किया जाता था। इसमें ममत्व यानी ये मेरा है इस भाव की प्रधानता होती थी।
लेकिन एक विचित्र तरह की गुलामी और फिर वैसी ही विचित्र आजादी के दौर में इन संसाधनों की लूट शुरू हुई। पहले जंगल और जमीन अंग्रेजों के हाथ में गए फिर आजादी के बाद इन का राष्ट्रीयकरण किया गया। कोई 40 साल के राष्ट्रीयकरण के बाद उसमें से निकली सारी अव्यवस्था को ढकने और उसे ठीक करने के नाम पर इन अमूल्य जीवनदायी संसाधनों का अब निजीकरण किया जाने लगा है।
ऐसे विचित्र और भयानक परिदृश्य में भारत क्या करे? यहां पानी का प्रश्न जन संगठनों और जन आंदोलनों के सामने आज नहीं तो कल एक बड़ी चुनौती की तरह खड़ा होगा। इसका कोई सरल उत्तर एकाएक सामने नहीं दीखता फिर भी मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि इसमें संघर्ष के साथ-साथ रचना को भी पूरा स्थान देना होगा एक तरफ क्रूर निजीकरण के हाथों में जाने वाली एक एक बूंद को बचाना होगा तो दूसरी तरफ प्रकृति से मिलने वाली एक एक बूंद को पूरे ममत्व के साथ सहेजने की तैयारी रखनी होगी। अभी या सीमित जरूर है लेकिन इसका विस्तार किया जाना जरूरी है।
अगर हम ऐसा कर पाए तो हम कह सकेंगे कि जल की बारी नहीं आनी और यदि हमने आने वाले वर्षों में यह शक्ति खड़ी कर ली तो हम जमीन और जंगल को फिर से समाज के हाथ में वापस लाने की योग्य पात्रता दिखा सकेंगे।
(ये विचार प्रसिद्ध पर्यावरणविद अनुपम मिश्र जी के लेखों से लेकर लिखे गए हैं।)

अपने जीवन में लगातार प्रो. बनवारी लाल शर्मा ने जल, जंगल एवम् जमीन के निजीकरण के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी और सामुदायिक व्यवस्था की स्थापना के लिए रचना भी की। आज़ादी बचाओ आंदोलन एवं स्वराज विद्यापीठ इन्हीं का अप्रितम उदाहरण है। अपने जीवन के अन्तिम समय में जल के निजीकरण के खिलाफ़ प्रो. शर्मा एक जन आंदोलनों का समन्वय भी चाहते थे जिसमें रचना और संघर्ष दोनों का ही मेल हो। देशभर में घूम घूम कर वे इसके लिए एक माहौल भी बना रहे थे। 20 को उनके जन्मदिवस के अवसर पर हम उनके विचारों को आगे बढ़ा सकें और इसके लिए कृत संकल्पित हो सकें। इसको ध्यान में रखते हुए 20 मई से 5 जून तक एक जल यात्रा का आयोजन किया जा रहा है। इस यात्रा को हम विचार और कर्म दोनों के ही द्वारा विस्तार दे सकेंगे ऐसा संकल्प 20 मई,2022 को लिया गया।
स्वराज विद्यापीठ में 20 मई 2022 को सायं 5 बजे “वर्तमान समय में जन आंदोलनों की भूमिका” विषय पर आयोजित संवाद कार्यक्रम के पश्चात यह यात्रा शुरू हुई।

यात्रा का कार्यक्रम

20 मई 2022 से 5 जून 2022 – प्रयागराज के विभिन्न गांवों, विद्यालयों वा मुहल्लों में ।
प्रयागराज के बाहर के साथियों से भी निवेदन है कि इस तरह की यात्रा का आयोजन यथा सम्भव करें। इससे हम सभी को बल मिलेगा और जल, जंगल, जमीन के सामुदायिक विचार को समाज में फैलाने में हम सभी की महती भूमिका भी होगी।

  • स्वप्निल श्रीवास्तव

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