अगस्त क्रांति की भावना पुनर्जीवित करें

बिमल कुमार

इतिहास के कुछ क्षण राष्ट्र की सामूहिक स्मृति में लंबे समय तक बने रहते हैं, जो हमें प्रेरणा भी देते हैं तथा किन तत्त्वों से सावधान रहना है, उनसे भी सचेत करते हैं। अगस्त क्रांति यानी ९ अगस्त १९४२ को भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान तथा स्वतंत्रता दिवस—ये दोनों ऐसे ही क्षण हैं।
अगस्त क्रांति ने भारतीय जन समुदाय की स्वतंत्रता तथा न्यायपूर्ण व्यवस्था की आकांक्षा को मुखर रूप दिया। भारतीय जन समुदाय की अद्भुत एकता प्रकट हुई। यह एकता औपनिवेशिक शासन के खिलाफ थी, वैश्विक पूंजीवादी शोषण के खिलाफ थी, भारत में सभी विभाजनकारी शक्तियों (मुख्यत: सांप्रदायिक विभाजन के पैरोकारों) के खिलाफ थी तथा जमींदारी व रजवाड़ों के खिलाफ थीं। इस रूप में अगस्त क्रांति एक नये समाज के निर्माण का सूत्र भी प्रस्तुत करते हुए दिखती है। उसकी आज भी उतनी ही प्रासंगिकता है।

दूसरी ओर उसी समय में सांप्रदायिक शक्तियां जमींदारों और रजवाड़ों की सरपरस्ती में व उनके सहयोग से औपनिवेशिक शासन के पक्ष में खड़ी थीं। मुस्लिम लीग तथा हिन्दू महासभा दोनों संप्रदाय आधारित राष्ट्र के पैरोकार थे तथा दोनों ने हाथ मिलाकर ४ राज्यों में गठबंधन कर सरकार बनाई थी। बंगाल में तो इन शक्तियों ने व्यापक रूप से जनता से अपील की थी कि सेना में शामिल हों, ताकि पूर्वी सीमा पर आसन्न युद्ध में ये भारत की ओर से लड़ सकें। इसमें यह बात छिपी थी कि भारत में ब्रिटिश शासन को मजबूत करें तथा आजाद हिन्द फौज को हराने में पूरी ताकत लगायें। सांप्रदायिक शक्तियों का वैश्विक विस्तारवादी पूंजीवाद से गठजोड़ औपनिवेशिक काल में ही मजबूत हो चुका था।

ये भी पढ़ें: गांधी का अनूठा सिपाही: मदन मोहन वर्मा

पाकिस्तान में तो सांप्रदायिक शक्तियों, जमींदारों एवं वैश्विक विस्तारवादी पूंजीवाद का गठजोड़ प्रारंभ से ही बना रहा, इसी कारण सेना की भूमिका महत्त्वपूर्ण बनी रही तथा पूरा सत्ता प्रतिष्ठान जन-विरोधी बना रहा। भारत में सांप्रदायिक शक्तियों को जड़ जमाने में लगभग ४० वर्ष लग गये। यद्यपि इन शक्तियों ने अपनी व अंग्रेजी शासन की भूमिका छिपाने (यहां तक कि मुस्लिम लीग की भी भूमिका छिपाने) का पूरा प्रयास किया तथा भारत विभाजन का दोष कांग्रेस के नेताओं (गांधी, नेहरू व पटेल) पर डालने का पूरा प्रयास किया। इसी आधार पर सत्ता पर पहुंच बनाने का प्रयास भी हुआ। किन्तु भारत के गांव-गांव, मुहल्ले-मुहल्ले में लोगों ने देखा था कि सांप्रदायिक शक्तियां अंग्रेजी सत्ता के पक्ष में खड़ी थीं, इसलिए इन्हें पूरी तरह से अस्वीकार कर दिया गया। उस पीढ़ी के गुजर जाने के बाद ही झूठ की बुनियाद पर नये सिरे से सांप्रदायिक व वैश्विक विस्तारवादी पूंजीवाद का गठजोड़ भारत में पुन: मजबूत बनाने में सफल हुआ दिखता है।
भारत के संसाधनों तथा भारत के बाजार पर वैश्विक पूंजी, विशेषकर वित्तीय पूंजी का कब्जा अभूतपूर्व गति से बढ़ा है। सार्वजनिक उद्यमों तथा संस्थाओं को तेजी से विसर्जित किया जा रहा है, जो निजी कारपोरेट पूंजी पर अंकुश रखने का माध्यम बन सकते थे। निजीकरण से प्राप्त धन भी कारपोरेट जगत के डूबे कर्ज (एनपीए) की प्रतिपूर्ति के लिए किया जा रहा है।
इस बीच कोरोना वैश्विक महामारी को कारपोरेट जगत ने ‘आपदा को अवसर में बदलने’ का काम किया है। लघु एवं मध्यम इकाइयां पहले से ही संकट में थीं। किसान, मजदूर, आदिवासी आदि की स्थिति बिगड़ती जा रही थी तथा बेरोजगारी व बदहाली बढ़ रही थी। कोरोना महामारी के दौर में ये सब पूर्ण बर्बादी के कगार पर आ गये।
एक और बड़ी बात यह हुई है कि सामाजिक क्षेत्रों में भी गिरावट आने से बदहाली बढ़ी है। उदाहरण के लिए ‘सेव द चिल्ड्रेन’ की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में ९ करोड़ से ११.७ करोड़ बच्चे गरीबी के बढ़ने के कारण स्कूल की शिक्षा से बाहर हो जायेंगे। शिक्षा बजट मे कटौती का प्रभाव इसे और बढ़ा सकता है। इतना ही नहीं, स्वास्थ्य क्षेत्र की स्थिति भी बद से बदतर होती जा रही है। कोरोना से हटकर अन्य बीमारियों का इलाज दुश्वार होता जा रहा है। जिन्हें स्वास्थ्य केन्द्रों की सुविधा नहीं मिल पा रही है, ऐसे लोगों की मृत्यु की संख्या का अनुमान लगाना मुश्किल है और इन सबके बीच राजसत्ता ने जन-दमन करने की शक्ति कई गुना बढ़ा ली है व लोक स्वातंत्र्य का दायरा काफी हद तक सिकोड़ कर कमजोर कर दिया है।

 

(बिमल कुमार प्रख्यात लेखक हैं)

Leave a Reply

Your email address will not be published.

20 − 6 =

Related Articles

Back to top button