सरकार की कमज़ोरी ‘दिखी’ किसानों की ताक़त?
देश के 'बुद्धिजीवी' एवं राजनीतिक समीक्षक इन कानूनों तथा सरकार के ताज़ा निर्णय को अभी, और आगे किस रूप में देखेंगे, ये बात सबके लिए अवसरों के अनुकूल हो सकती है! अलबत्ता, यह अवश्य ज़ाहिर हुआ है कि केन्द्र की वर्तमान सरकार ने पहले जैसी शक्ति खो दी है।
‘कृषि जीवन’ को प्रभावित करने वाले- ‘केन्द्र के स्थापित’ तीनों कानूनों को लेकर लम्बे समय से जिस प्रकार सड़क से लेकर संसद तक घमासान मचा हुआ था, उनके मद्देनज़र सरकार का गत दिवस का निर्णय हर दृष्टिकोण से संज़ीदा, साथ ही विचारणीय है। इसका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कारण दिल्ली की सीमाओं पर जारी किसान आन्दोलन है जिसकी शुरुआत पिछले साल 25/26 नवम्बर को कथित किसानों के जुटान के साथ हुई थी। अब कोई एक वर्ष पश्चात प्रधानमंत्री ने साल की सबसे बड़ी ‘पूर्णिमा’ के दिन तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करने का ऐलान किया है तो इस सम्बन्ध में विचार के अनेक अन्य पहलू उभर रहे हैं।
सामाजिक कहावतों में कहा है-
“मनुज बली नहिं होत है समय होत बलवान।
भीलन लूटी गोपिका वहि अर्जुन वहि बान।।”
आखिरकार बहुचर्चित ‘तीनों कृषि कानून’ वापस ले लेने की घोषणा कर दी गयी। यों, इसकी अपेक्षा न थी; भले इनके विरोध में शुरू हुए आन्दोलन को एक वर्ष पूरा होने को आया है। हाल के दिनों में सर्वाधिक चर्चित रहे ये कानून कोई 14 महीने पहले सरकार के ‘दृढ़ सङ्कल्प’ के रूप में प्रकट हुए थे। इन्हें उसकी ताक़त समझा गया और बहुतेरे बयानों से अलग ख़ुद प्रधानमंत्री ने भी प्रचारित किया था। देश के ‘बुद्धिजीवी’ एवं राजनीतिक समीक्षक इन कानूनों तथा सरकार के ताज़ा निर्णय को अभी, और आगे किस रूप में देखेंगे, ये बात सबके लिए अवसरों के अनुकूल हो सकती है! अलबत्ता, यह अवश्य ज़ाहिर हुआ है कि केन्द्र की वर्तमान सरकार ने पहले जैसी शक्ति खो दी है। हालाँकि “लोकतंत्र में किसी सरकार की शक्ति का मतलब जन-भावनाओं को कुचलना नहीं होता, फ़िर बहुमत के दृष्टिकोण की रक्षा कैसे हो, किन्तु सरकार ने तो इन कानूनों को लोकतंत्र के साथ अपनी इच्छाओं की ताक़त बताया था जो स्वयं सक्रिय बहुमत के आधार पर देश और समाज के कल्याण के लिए बनी है! तो इसे क्या यह समझा जाए कि सरकार का ऐलान लोकतांत्रिक भावनाओं की पराजय है जिनपर एक ख़ास तबका किन्हीं दुराग्रहों के चलते हावी हो गया?
प्रधानमंत्री ने पूर्णिमा के रोज़ (19 दिसम्बर को) स्वयं विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस ले लेने की घोषणा करते हुए खेद सहित कहा है कि कदाचित उनकी तपस्या में ही कोई कमी रह गयी होगी जिससे ‘दीये के प्रकाश जैसा सत्य’ उनकी सरकार (जिसके वे मुखिया हैं) किसानों के एक छोटे वर्ग को समझा पाने में असफल रही। ग़ौर करना होगा कि कोई सरकार ‘व्यक्ति-विशेष’ नहीं होती! प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री का नेतृत्व भर होता है। कोई भी निर्णय पूरी सरकार का होता है। इससे तो… स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री इस मुद्दे पर अपने ही लोगों का अपेक्षित समर्थन जुटा पाने में बुरी तरह नाक़ाम रहे। यह सरकार के लोगों में असहयोग का प्रतिबिम्ब है। इस बारे में यह भी ध्यान देना होगा कि (विशेषकर) गत अगस्त में लालकिले पर ‘किसानों की आड़ में उपद्रवियों के हमले’ के बाद प्रधानमंत्री और उनके दल ने अपने लोगों से देशभर में फैल जाने का आग्रह करते हुए आम लोगों को कृषि कानून सम्बन्धी सचाई को किसानों तथा आम जनता को समझाने का अनुरोध किया था।
सरकार के कृषि कानूनों पर इस विचार के सभी शब्द ख़ुद सरकार के अनेकानेक वक्तव्यों में छुपे हुए अथवा, उनसे ही प्रकट हुए हैं। गत वर्ष (2020 में) 17 सितम्बर को जब तीनों कृषि कानूनों को संसद की स्वीकृति मिली थी तो प्रधानमंत्री से लेकर भाजपा और पार्टी के विभिन्न क्षत्रपों से लगायत समर्थकों तक ने उसे न सिर्फ़ सरकार बल्कि “लोकतंत्र की बड़ी विजय” कहा और बाद में प्रकारान्तर से यथासम्भव प्रचारित भी किया/करवाया था।
‘कृषि जीवन’ को प्रभावित करने वाले- ‘केन्द्र के स्थापित’ तीनों कानूनों को लेकर लम्बे समय से जिस प्रकार सड़क से लेकर संसद तक घमासान मचा हुआ था, उनके मद्देनज़र सरकार का गत दिवस का निर्णय हर दृष्टिकोण से संज़ीदा, साथ ही विचारणीय है। इसका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कारण दिल्ली की सीमाओं पर जारी किसान आन्दोलन है जिसकी शुरुआत पिछले साल 25/26 नवम्बर को कथित किसानों के जुटान के साथ हुई थी। अब कोई एक वर्ष पश्चात प्रधानमंत्री ने साल की सबसे बड़ी ‘पूर्णिमा’ के दिन तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करने का ऐलान किया है तो इस सम्बन्ध में विचार के अनेक अन्य पहलू उभर रहे हैं।
राष्ट्र के नाम सम्बोधन में कही गयी ताज़ातरीन बातों को कुछ लोग प्रधानमंत्री की मज़बूरी कह रहे हैं तो कुछ जन इसे सियासत में “उनका मास्टरस्ट्रोक” भी मान रहे हैं। यह सच है कि आगामी साल के शुरुआती महीनों में ही पाँच राज्यों- उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा, मणिपुर और उत्तराखण्ड में विधानसभा चुनाव होने हैं और कृषि कानूनों के विरुद्ध ज़ारी किसान आन्दोलन का कहीं उलटा असर न हो जाए, भाजपा को इसकी आशङ्का अवश्य सता रही होगी। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश समेत पाँच राज्य विधानसभाओं के चुनाव से ठीक पहले प्रधानमंत्री की घोषणा के कई मायने भी लगाये जा रहे हैं। किसान आन्दोलन का छोटे या, बड़े रूप में फैलाव चुनाव वाले राज्यों के साथ मुख्य तौर पर उत्तर प्रदेश एवं पंजाब में हैं। पंजाब में कांग्रेस की जबकि उत्तर प्रदेश में भाजपा के बहुमत वाली सरकार है। कृषि कानूनों को लेकर जिस तरह से सक्रिय प्रदर्शनकारी किसान (यह विश्लेषण किये जाने तक डटे हुए) थे, उसे देखते हुए उत्तर प्रदेश में भाजपा को अधिक नुकसान होने के आसार अब भी दिख रहे हैं। इसकी एक अहम वज़ह प्रधानमंत्री के ऐलान से उत्साहित किसान नेता राकेश टिकैत की यह घोषणा है कि “न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) कानून बनने तक आन्दोलन ज़ारी रहेगा।” इससे एक बात तो साफ है प्रधानमंत्री के ऐलान ने उनकी बज़ाय टिकैत का वज़न फ़िलहाल अधिक बढ़ा दिया है। (उन्हें उन दलों, संगठनों से अब मोलतोल में अधिक सुविधा होगी जो) फ़िर भी मुमकिन है कि कानूनों की वापसी के बाद भाजपा की राह आसान हो?
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उपर्युक्त बात का एक स्पष्ट कारण है। कृषि कानूनों को आधार बनाकर जो राजनीतिक दल भाजपा पर हमला करने को आतुर थे, उन्हें अब अपनी रणनीति में बदलाव करने की ज़रूरत होगी; क्योंकि इस बात में बल अधिक है कि तीनों कानूनों को आगे निरस्त किये जाने की घोषणा ने विपक्ष का एक बड़ा मुद्दा तो फिर से अवश्य झटक लिया है जिसे सरकार के गत वर्ष के निर्णय ने ही दिया था। कांग्रेस से लेकर टीएमसी और सपा-बसपा को भी अब सरकार के साथ केन्द्र में सत्तारूढ़ दल, विशेषकर भाजपा पर भी हमले के लिए नया हथियार तलाशना होगा। बहरहाल, कहाँ-क्या प्रभाव होगा- यह समय बताएगा परन्तु समाचार जगत में सक्रिय एक बड़े वर्ग की दृष्टि में प्रधानमंत्री के ऐलान से मोदी ने किसानों की नाराजगी वाला सियासी हथियार छीन लिया है।
भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत का कहना है कि अभी मिठाई, लड्डू बाँटने का समय नहीं है। सङ्घर्ष ज़ारी रहेगा। “हम उस दिन की प्रतीक्षा करेंगे जब कृषि कानूनों को संसद में निरस्त किया जाएगा।” इससे सङ्केत साफ है। आन्दोलनकारी नेता एमएसपी समेत अन्य मुद्दों को लेकर नया मोर्चा खोल सकते हैं। दूसरी ओर कृषि क्षेत्र में सुधारों की गति मन्द होगी। लम्बे इन्तिज़ार के बाद 2020 में तीन नये कृषि कानून बनाये जा सके थे। इनसे देश के 80 प्रतिशत छोटे कृषकों का भला होना था। अब इन्हें रद किया गया तो अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मुक़ाबले की सरकार की रणनीति और प्रभाव भी विपरीत असर में आएँगे। इन सब से अलग यह है कि राजनीतिक क्षेत्र में अराजकता की प्रवृत्ति को अनचाहे ही बढ़ावा मिलेगा और छोटे-छोटे समूहों को यह लगेगा कि वे आक्रामक तथा अनैतिक ढङ्ग से कुछ भी करवा सकते हैं। तमाम औद्योगिक प्रगति के बावज़ूद कृषि आज भी देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। नये कृषि कानूनों को अमल में लाया जा सकता तो निश्चित ही अर्थव्यवस्था को मज़बूती मिलती तथा अधिकतर किसानों की खरीद क्षमता बढ़ती। इससे उनके जीवन-स्तर में भी ख़ुशहाली लायी जा सकती थी, साथ ही देश में हर ओर समान विकास के प्रयासों को बल मिलता। प्रधानमंत्री का यह निर्णय भी मंत्रिमण्डल में निर्णय के बाद ही आया होगा किन्तु इसमें सरकार का कोरापन और दूरदर्शिता की कमी झलकती है। बेहतर होता कि महत्त्वपूर्ण चुनावों की इस बेला में और दूरदर्शिता देखी गयी होती। प्रधानमंत्री की घोषणा ने सरकार के साथ अधिकतर किसानों के दीर्घकालिक हितों की उपेक्षा की है, परोक्ष में इसमें बहुमत के लोकतंत्र का समर्पण दिखा है।
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