“रास बिहारी बोस :  दि फादर ऑफ़ इंडियन नैशनल आर्मी” 

अशोक शरण

जब मैंने पढ़ा आजाद हिन्द फ़ौज की स्थापना रास बिहारी बोस ने की थी तो मुझे विश्वास नहीं हुआ. अपनी अज्ञानता से परदा हटाने के लिए और वास्तु स्थिति जानने के लिए मैंने अपने मित्रों, शिक्षक, विद्यार्थी, पुरुष, महिला अन्य नौकरी पेशा लोगों  से यह सवाल किया कि आजाद हिन्द फ़ौज की स्थापना किसने की ? उनमें  से नब्बे प्रतिशत लोगों  का उत्तर था सुभाष चन्द्र बोस ! देश की आजादी में कैसे हम अपने स्वतंत्रता सेनानियों और क्रांतिकारियों के योगदान को भूलते जा रहे हैं या कम जानते हैं यह इस बात का प्रमाण है. आजाद हिन्द फ़ौज, जिसने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे, की स्थापना रास बिहारी बोस ने ‘इंडियन इंडिपेंडेंस लीग’ के आर्मी इकाई के रूप में की थी. उन्होंने इसका झंडा चुना और सुभाष चन्द्र बोस को जर्मनी से बुला कर वर्ष 1943 में सौप दिया. लेखक एलिजाबेथ एटसन व लेक्सी कवाबे ने अपनी पुस्तक का नाम ही “रास बिहारी बोस : दि फादर ऑफ़ इंडियन नेशनल आर्मी” रखा है.

Ras Bihari Bose

रास बिहारी बोस का जन्म पूर्वी बर्दमान जिले के सुबलदाह गांव में 25 मई, 1986 को हुआ और 58 वर्ष की उम्र में 21 जनवरी, 1945 को तपेदिक की बिमारी के कारण उनका निधन टोकियो में हुआ. उनका विवाह जापानी लड़की तोशिका सोमा से हुआ. उनका वैवाहिक जीवन आठ वर्ष रहा. उनकी पत्नी का निधन सन 1925 में 27 वर्ष की आयु में न्युमोनिया से हुआ. उनको एक पुत्र और एक पुत्री थी. पुत्र का निधन 24 वर्ष की उम्र में सेना में लड़ते हुए हुआ. 

ब्रिटिश सरकार ने बंगाल में क्रांतिकारियों और आये दिन बम धमाकों  से परेशान होकर अपनी राजधानी कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने के निर्णय लिया. राजधानी बनाने के बाद उस समय के वाईस राय लार्ड हार्डिंग 23 दिसम्बर, 1912 को हाथी पर सवार होकर दिल्ली के चांदनी चौक में निकले तो उन पर बम से हमला हुआ जिसमें  वह बाल बाल बच गए. हाथी पर सवार उनका अंगरक्षक मारा गया. इस हमले के मास्टरमाइंड रास बिहारी बोस थे. इस हमले के लिए जिम्मेदार अन्य लोगों  को फांसी और आजीवन कारावास की सजा दी गयी. हमले के बाद बोस देहरादून के लिए रवाना हो गए और अगली सुबह अपने ऑफिस फारेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट में जा कर काम करने लगे जैसे उन्हें कुछ पता ही न हो. वहां वे हेड क्लर्क के तौर पर काम करते थे जहां से उन्हें पूरे देश में घूमने का अवसर मिला जिसका लाभ उठाते हुए उन्होंने अंग्रेजी शासन के खिलाफ क्रांतिकारियों को संगठित किया. बेशक यह हमला असफल रहा परन्तु पूरे  विश्व में यह बात फ़ैल गयी कि भारतीय क्रांतिकारी शक्ति का प्रयोग करते हुए अंग्रेजी हुकूमत मत को उखाड़ फ़ेंकना चाहती है. लार्ड हार्डिंग पर हमले से बोस क्रांतिकारियों के बीच लोकप्रिय हो गए थे.  

रास बिहारी बोस एक व्यूह रचना के तहत अपने को अंग्रजों का वफादार दिखाते रहे परन्तु अन्दर से अंग्रेजी हुकूमत  को भारत से उखाड़ फेकने के लिए कार्य कर रहे थे. वर्ष 1913 में पुलिस द्वारा एक छापेमारी के दौरान उन्हें शक हुआ कि रास बिहारी बोस भारत को अंग्रजों  से मुक्त कराना चाहते हैं.  1914 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अमरीका, कनाडा, जर्मनी से कई क्रांतिकारियों ने भारत आकर सेना के यूनिटो से संपर्क किया और उन्हें विद्रोह करने के लिए तैयार किया. वे इसके लिए तैयार हो गए कि जब भी आवाहन किया जायेगा वह तैयार रहेंगे. सिंगापुर में भी कई यूनिट इसके लिए तैयार हो गयी. इस विद्रोह की तारीख 21 फरवरी, 1915 लाहौर रखी गयी. जासूसों द्वारा सरकार को इसकी भनक लगते ही अंग्रजों ने भारतीय सैनिकों  से हथियार ले लिए और यह विद्रोह असफल रहा.

बोस को पकड़ने के लिए अंग्रेजों  ने उन के सिर पर 7500/- रुपये का इनाम रखा. उन को चकमा देकर वे १२ मई, 1915 को रविंद्रनाथ ठाकुर के एक रिश्तेदार के छद्मनाम से कलकत्ता बंदरगाह से जापान के लिए रवाना हो गए. वहां पहुँचने  पर  महसूस किया कि जापान का एक शक्ति के रूप में उभरने से उन जैसे अन्य क्रांतिकारियों के लिए यह देश बहुत लाभदायक रहेगा. सन 1902 से 1923 तक जापान ब्रिटेन का सहयोगी था परन्तु उसने अपने दरवाजे उन क्रांतिकारियों के लिए खोल रखे थे जो भारत में अंग्रेजी राज का अंत करना चाहते थे. जापानी वैसे भी भारतीयों के प्रति सहानुभूति रखते थे. इसका कारण छठी शताब्दी में बौध धर्म का भारत से कोरिया होते हुए जापान पहुँचना  था.

बोस को पकड़ने के लिए अंग्रेजों ने एक प्राइवेट जापानी जासूसी एजेंसी को कार्य सौपा था. टोकियों में बोस की पहचान चीन के ‘रेवोलुशनरी आर्मी’ के प्रमुख सुन यात्सेन से हुयी जिसे चीन से कुइंग सरकार के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह के कारण निष्काषित कर दिया गया था.  वह जापान से चीन में शस्त्र क्रांति के लिये सहायता  चाहता था. सुन यात्सेन ने बोस का परिचय जापान के राजनैतिक गलियारों में प्रभावशाली व्यक्ति मित्सुरू तोयामा से कराया जिसने बोस को छुपाने के लिए एक कैफे नाकामुराया सालोक के इसाई मालिक आयजो और कोको सोमा से अनुरोध किया. बोस को पकड़ने से बचाने के लिए तोयामा ने इनकी बड़ी बेटी तोशिको से बोस का विवाह कराने के लिए प्रोत्साहित किया. लड़की ने इस पर विचार करने के लिए कुछ समय मांगा और इन दोनों की शादी सन 1918 में  हुयी. इस विवाह से बोस को जापानी समाज में मान्यता मिली जिससे उन्होंने भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन की लडाई को योजनाबद्ध तरीके से स्थापित किया. इसी शादी की वजह से उन्हें सन 1923 में जापानी नागरिकता प्राप्त हुई . वे भारत के एकमात्र ऐसे स्वतंत्रता सेनानी थे जो भारत के नागरिक (1886-1915), बिना किसी देश के नागरिक (1915-1923) और जापानी नागरिक (1923-1945) होने के नाते देश को आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया. उन्होंने जापान में जुगांतर, इंडियन इंडिपेंडेंस लीग और इंडियन नैशनल आर्मी की स्थापना की. भारत और जापान के बीच सांस्कृतिक सम्बंध मजबूत करने के लिए उन्होंने ‘इंडो जापान फ्रेंड्स सोसाईटी’ बनाया. टोकियोंमें पढ़ रहे एशियाई देशों के विद्यार्थियों के लिए ‘विला एशियन’ के नाम से एक होस्टल स्थापित किया. बोस समय के साथ साथ जापानी समाज में अपनी एक निर्भीक छवि बना रहे थे और लगातार समाचार पत्रों में छप रहे थे. जापान सरकार ने उन्हें देश के द्वितीय सबसे बड़े पुरुस्कार ‘आर्डर ऑफ़ राइजिंग सन’ से सम्मानित किया. उनके रुतबे का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि उनकी मृत्यु के बाद उनके शव को जापान के सम्राट के शव गाडी में ले जाया गया. सन 1959 में उनकी बेटी तेत्सू हिगुची अपने पिता की अस्थियाँ लेकर भारत आयी. 

15 फरवरी 1942 को  लगभग एक लाख बीस हजार ब्रिटिश  सेनाओं ने मलेशिया, सिंगापुर, हौंकांग आदि स्थानों पर जापानी सेना के सामने समर्पण कर दिया और इनमें भारतीय  युद्धबंदियों को प्रोत्साहित किया गया कि भारत को आजादी दिलाने के लिए वे जापानी सेना के  साथ लड़ाई करे. बोस ने 28-30 मार्च 1942 को जापानी अधिकारियों  के साथ एक कांफ्रेंस किया जिसमें  तय किया गया कि इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना की जाये. 1942 के जून महीने में हौंकांग में इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की एक सभा रास बिहारी बोस की अध्यक्षता में संपन्न हुयी जिसमे निर्णय किया गया कि बोस आजाद हिन्द फ़ौज का नेतृत्व करे. उन्होंने जापान से  भारतीय युद्धबंदियों को छोड़ने के लिए कहा जिन्हें लाखो की संख्या में इस फ़ौज में भरती किया गया. 

यह रास बिहारी बोस का भारत की आजादी में सबसे अधिक उत्कर्ष वाला और महत्वपूर्ण  भूमिका थी जिसे भारतवर्ष में जाना जाना चाहिए था परन्तु ऐसा नहीं हुआ. उनके बारे में पाठ्यपुस्तकों में नहीं लिखा गया जिससे विद्यार्थी और देश उनके बारे में जानता. वे 29 वर्ष की उम्र में भारत छोड़ गए थे और जापान में रह कर भारत की आजादी की लडाई लड़ी. आजाद हिन्द फ़ौज की स्थापना  के बावजूद आज सुभाष चन्द्र बोस आजाद हिन्द फ़ौज के ज़्यादा  नजदीक है. 

अपनी बढती उम्र और गिरते स्वास्थ्य के कारण उन्हें एक ऐसे व्यक्ति की तलाश थी जो इस आजाद हिन्द फ़ौज की कमान संभाले. सुभाष से उपयुक्त उन्हें और कोई व्यक्ति नहीं लगा. जापानी दूतावास के माध्यम से जर्मनी में उन्होंने सुभाष को जापान आने का निमंत्रण भेजा. उधर जर्मनी में एशिया को लेकर हिटलर और सुभाष के मध्य पहले जैसा व्यवहार नहीं था. उन्हें लगने लगा कि हिटलर भारत के बारे में किये गए अपने वादे से मुकर रहा है और उनकी सेना का उपयोग अपनी सुविधा अनुसार करना चाहता है. बोस चाहते थे कि उनकी सेना रूस के खिलाफ लड़ाई में शामिल न हो. उन्होंने हिटलर से पूर्वी एशिया में अंग्रजों  के खिलाफ लडाई लड़ने की बात कही. हिटलर ने उन्हें जर्मन पनडुब्बी से जापान के लिए रवाना कर दिया. जाने से पूर्व सुभाष ने अपने सैनिको को रूस के खिलाफ युद्ध में शामिल होने से मना किया था. बाद में हिटलर ने उनके बहुत से सिपाहियों को अपने फायरिंग स्क्वाड के सामने खड़ा कर मरवा दिया.    

देश के स्वतंत्रता आन्दोलन में बंगाल के इन दोनों बोस का महतवपूर्ण  योगदान है. रास बिहारी बोस ने जापान में भारत की आजादी के लिए नीव बनाई जो बहुत मजबूत थी. रास बिहारी बोस सुभाष बोस को इंडियन इंडिपेंडेंस लीग और इंडियन नेशनल आर्मी की कमान सौपते हुए तनिक भी नहीं हिचकिचाए. उसी मजबूत नीव पर खड़े होकर सुभास चन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फ़ौज का नेतृत्व किया, उसके रैंक में सुधार किया, नए ब्रिगेड बनाये जिसका नाम गांधी ब्रिगेड, नेहरु ब्रिगेड, मौलाना आजाद ब्रिगेड रखा और अंग्रेजी सेना के दात खट्टे किये.

यह दुखद है कि अपने ही देश में रास बिहारी बोस जैसे महान क्रातिकारी के योगदान को भुला दिया गया. किसी पाठ्य पुस्तक में उनके बारे में नहीं पढाया जाता. यहां तक कि देश में जब आजाद हिन्द फ़ौज का नाम लिया जाता है तो उसके साथ केवल सुभाष चन्द्र बोस को याद किया जाता है. सरकार को ऐसे गुमनाम स्वतंत्रता  सेनानियों के बारे देशवासियों को विभिन्न माध्यम से जानकारी देनी चाहिए.  

अशोक शरण सर्व सेवा संघ, सेवा ग्राम के प्रबंधक ट्रस्टी है.

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