राम मंदिर-बाबरी मस्जिद 1952 से ही बन गया था सियासी मुद्दा

रामदत्त त्रिपाठी
राम दत्त त्रिपाठी, वरिष्ठ पत्रकार

अयोध्या का राम मंदिर बनाम बाबरी मस्जिद विवाद सदियों पुराना है, जो पिछले साल सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से समाप्त हुआ था।

लेकिन बाबरी मस्जिद विध्वंस आपराधिक मामला क़ानूनी दाँवपेंच और जटिल प्रक्रिया के चलते अट्ठाईस सालों से ट्रायल कोर्ट में ही लम्बित है।

लखनऊ स्थित सीबीआई की विशेष अदालत 30 सितंबर को अपना फैसला सुनायेगी।

इस फैसले से पूर्व मीडिया स्वराज के पाठकों के लिए पेश है राम मंदिर बनाम बाबरी मस्जिद आंदोलन के सिलसिलेवार इतिहास पर पिछले चालीस वर्ष से अयोध्या पर रिपोर्ट करते आ रहे बीबीसी के पूर्व संवाददाता राम दत्त त्रिपाठी की विस्तृत रिपोर्ट की दूसरी किश्त :

पहली किश्त पढ़ें

https://mediaswaraj.com/in-the-temple-mosque-dispute-it-was-decided-many-times-before-independence/ 

रामराज्य परिषद ने पहली बार बनाया सियासी मुद्दा

1948 में स्वामी करपात्री जी महाराज ने कांग्रेस के खिलाफ अखिल भारतीय रामराज्य परिषद बनायी जिसका प्रथम अध्यक्ष अपने विश्वासपात्र प्रिय गुरु भाई स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी महाराज को बनाया।

1952 के पहले लोकसभा चुनाव में चुनावी घोषणापत्र में रामराज्य परिषद ने स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी महाराज के अध्यक्षता में यह घोषणा की कि यदि भारत में परिषद की सरकार बनती है तो अयोध्या, मथुरा और काशी सहित देश के तमाम उन मंदिरों  का पुनरुद्धार कराया जायेगा, जिन्हें  इस्लामिक काल में नष्ट किया गया है।

यानी भारत में मन्दिरों  के पुनरुद्धार का सर्वप्रथम  विचार बीज स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती महाराज ने बोया।

उधर स्वतंत्रता मिलने के बाद समाजवादियों ने  कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी बनायी।

आचार्य नरेंद्र देव समेत सभी विधायकों ने विधानसभा से त्यागपत्र दे दिया।

आचार्य नरेंद्र देव अयोध्या उपचुनाव में उम्मीदवार  बने। मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत अयोध्या उपचुनाव में समाजवादी नेता आचार्य नरेंद्र देव को हराना चाहते थे। 

इसलिए कांग्रेस ने एक बड़े हिंदू सन्त बाबा राघव दास को उम्मीदवार बनाया।

पहली बार अयोध्या के इस उपचुनाव में राम मंदिर बनाम बाबरी मस्जिद एक अहम मुद्दा बना।

कांग्रेस प्रत्याशी  बाबा राघव दास राम मंदिर का समर्थन करते हैं।

मुख्यमंत्री पंत अपने भाषणों में बार-बार कहते हैं कि आचार्य नरेंद्र देव राम को नहीं मानते।

इस अभियान के चलते भारत में  समाजवाद के पुरोधा आचार्य नरेंद्र देव चुनाव हार गये।

बाबा राघव दास के अयोध्या विधान सभा चुनाव जीतने से मंदिर समर्थक हिंदू वैरागी साधुओं का मनोबल काफ़ी बढ़ जाता है। 

मंदिर निर्माण का प्रयास, वक़्फ़ इंस्पेक्टर की रिपोर्ट 

वक़्फ़ इंस्पेक्टर मोहम्मद इब्राहिम ने 10 दिसम्बर 1948 को अपनी रिपोर्ट में प्रशासन को मस्जिद पर ख़तरे से  सतर्क किया।

वक़्फ़ इंस्पेक्टर ने लिखा लिखा कि  हिंदू वैरागी वहाँ मस्जिद के सामने तमाम क़ब्रो-मज़ारों को साफ़ करके रामायण पाठ कर रहे हैं और वे ज़बरन मस्जिद पर क़ब्ज़ा कर रहे हैं।

उसने लिखा कि अब मस्जिद में केवल शुक्रवार की नमाज़ हो पाती है।

हिन्दुओं की भीड़ लाठी फरसा वग़ैरह लेकर इकट्ठा हो रही है।

अयोध्या  के साधुओं ने  जुलाई 1949 में उत्तर प्रदेश सरकार को पत्र लिखकर फिर से राम मंदिर बनाम बाबरी मस्जिद विवाद के स्थान पर मंदिर निर्माण की अनुमति  माँगी।

उत्तर प्रदेश सरकार के उप सचिव केहर सिंह 20 जुलाई 1949 को फ़ैज़ाबाद डिप्टी कमिश्नर केके नायर को पत्र लिखकर जल्दी से अनुकूल रिपोर्ट माँगी। 

सरकार ने यह भी पूछा कि चबूतरे पर  जहाँ मंदिर बनाने की माँग की गयी है, वह ज़मीन नजूल की है अथवा नगरपालिका की।

सिटी मजिस्ट्रेट गुरु दत्त सिंह फ़ैज़ाबाद ने 10 अक्टूबर को कलेक्टर को अपनी रिपोर्ट में बताया कि  वहाँ मौक़े पर मस्जिद के बग़ल में एक छोटा सा मंदिर है। 

इसे राम जन्म स्थान मानते हुए हिंदू समुदाय एक सुंदर और विशाल मंदिर बनाना चाहता है। 

सिटी मंज़िस्ट्रेट ने  सिफ़ारिश किया कि यह नजूल की ज़मीन है और मंदिर निर्माण की अनुमति देने में कोई रुकावट नहीं है।

अयोध्या के हिंदू वैरागियों ने अगले महीने 24 नवम्बर से मस्जिद के सामने क़ब्रिस्तान  को साफ़ करके वहाँ यज्ञ और रामायण पाठ शुरू कर दिया जिसमें काफ़ी भीड़ जुटी।

झगड़ा बढ़ते देख प्रशासन ने वहाँ एक पुलिस चौकी स्थापित करके सुरक्षा में अर्ध सैनिक बल पीएसी लगा दी। 

भगवान राम की मूर्तियाँ मस्जिद के अंदर

पुलिस-पीएसी तैनात होने के बावजूद, 22 / 23 दिसंबर 1949  की रात अभयराम दास और उनके साथियों  ने दीवार फाँदकर राम, जानकी और लक्षमण की मूर्तियाँ मस्जिद के अंदर रख दीं।

मुख्य द्वार पर श्री राम जन्मभूमि लिख दिया गया।

इन लोगों ने प्रचार किया कि चमत्कार  से भगवान राम ने वहाँ प्रकट होकर अपने जन्मस्थान पर वापस क़ब्ज़ा प्राप्त कर लिया।

बताते हैं कि मस्जिद के मूर्तियाँ स्थापित  करने में शेर सिंह नाम के एक सिपाही का सहयोग था। 

मुस्लिम समुदाय के लोग शुक्रवार सुबह की नमाज़ के लिए मस्जिद आये मगर प्रशासन ने विवाद टालने के लिए उनसे कुछ दिन की मोहलत माँगकर वापस कर  दिया। 

कहा जाता है कि अभय राम की इस योजना को गुप्त रूप से फ़ैज़ाबाद के कलेक्टर केके  नायर का आशीर्वाद प्राप्त था।

कलेक्टर नायर कुछ साल बाद जनसंघ में शामिल होकर राम मंदिर समर्थक होने के नाम पर समीप के केसरगंज क्षेत्र से लोकसभा चुनाव जीते।

अयोध्या कोतवाली के इंचार्ज रामदेव दूबे ने एक सिपाही माता प्रसाद की सूचना पर एक मुक़दमा क़ायम किया, जिसमें कहा गया कि पचास-साठ लोगों ने दीवार फाँदकर मस्जिद का ताला तोड़ा, मूर्तियाँ रखीं और जगह जगह देवी देवताओं के चित्र बना दिये।

रपट में यह भी कहा गया कि इस तरह बलवा करके बाबरी मस्जिद को अपवित्र कर दिया गया।

इसी पुलिस रिपोर्ट में आधार पर अतिरिक्त  सिटी मजिस्ट्रेट ने उसी दिन दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 145  के तहत कुर्की की नोटिस जारी कर दी। 

प्रधानमंत्री नेहरू की चिंता

उधर दिल्ली में नाराज़ प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 26 दिसम्बर को मुख्यमंत्री पंत को तार भेजकर कहा, अयोध्या की घटना से मैं बहुत विचलित हूँ,वमुझे पूरा विश्वास है कि आप इस मामले में व्यक्तिगत रुचि लेंगे।

प्रधानमंत्री नेहरू ने मुख्यमंत्री पंत से कहा क़ि मस्जिद में मूर्तियाँ रखकर एक ख़तरनाक मिसाल काम की जा रही है, जिसके परिणाम बुरे होंगे।

उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्य सचिव भगवान सहाय ने कमिश्नर फ़ैज़ाबाद को लखनऊ बुलाकर डाँट  लगायी और पूछा कि प्रशासन ने इस घटना को क्यों नहीं रोका और फिर सुबह मूर्तियाँ क्यों नहीं हटवाई।

ज़िला मजिस्ट्रेट नायर ने इसका उल्लेख करते हुए चीफ़ सेक्रेटेरी भवान सहाय को लम्बा पत्र लिखा जिसमें कहा कि इस मुद्दे को व्यापक जनसमर्थन है और प्रशासन के थोड़े से लोग उन्हें रोक नहीं सकते।

अगर हिंदू नेताओं को गिरफ़्तार किया जाता तो हालात और ख़राब हो जाते।

बाग़ी तेवर में नायर ने लिखा कि  वह और ज़िला पुलिस कप्तान मूर्ति हटाने से बिलकुल सहमत नहीं हैं।

अगर सरकार किसी क़ीमत पर ऐसा करना ही  चाहती है तो पहले हमें यहाँ से हटाकर दूसरा अफ़सर तैनात कर दे।

कहा जाता है कि आरएसएस और हिंदू सभा के लोग  सक्रिय रूप से क़ब्ज़े की कार्यवाही में सहयोग कर रहे थे। 

बाद में ख़ुलासा हुआ कि  ज़िला कलेक्टर नायर और सिटी मजिस्ट्रेट गुरु दत्त सिंह दोनों आरएसएस के मेंबर थे।

क़ब्ज़े को पुख़्ता शक्ल देने के लिए अतिरिक्त सिटी मजिस्ट्रेट मार्कण्डेय सिंह ने शांति भंग की आशंका में मस्जिद को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के तहत कुर्क कर लिया।

नगरपालिका चेयरमैन प्रिय दत्त राम को रिसीवर नियुक्त कर उन्हें  मूर्तियों की पूजा और भोग वग़ैरह की ज़िम्मेदारी दे दी गयी।

नेहरू ने पटेल को लखनऊ भेजा, पंत को पत्र लिखा

इस सबसे दुखी प्रधानमंत्री नेहरू गृहमंत्री सरदार पटेल को लखनऊ भेजते हैं और मुख्यमंत्री पंत को कई पत्र लिखते हैं।

नेहरू  स्वयं भी अयोध्या जाने की बात कहते हैं।

उस समय देश विभाजन के बाद के दंगों, मारकाट और आबादी की अदला-बदली से उबर ही रहा था और पाकिस्तान के हमले से कश्मीर के हालात भी नाज़ुक थे।

पंत को लिखे पत्र में नेहरू चिंता प्रकट करते हैं कि अयोध्या में मस्जिद पर क़ब्ज़े की घटना का पूरे देश विशेषकर कश्मीर पर बुरा असर पड़ेगा।

नेहरू ने याद दिलाया क़ि कश्मीर की बहुसंख़यक मुस्लिम आबादी ने  भारत के साथ रहने का फ़ैसला किया है।

क़रीब- क़रीब लाचार नेहरू कहते हैं कि गृह राज्य होने के बावजूद उत्तर प्रदेश में उनकी बात नहीं सुनी जा रही और स्थानीय कांग्रेस नेता साम्प्रदायिक होते जा रहे हैं। 

फ़ैज़ाबाद कांग्रेस के महामंत्री अक्षय ब्रह्मचारी ने इस घटना के विरोध में लम्बे समय तक अनशन किया और सरकार को ज्ञापन दिए।

कृपया इसे भी पढ़ें : 

https://mediaswaraj.com/gandhi-ideology-for-lord-ram/

लेकिन सरकार ने कुर्की  की कार्यवाही  में कोई हस्तक्षेप नहीं किया।  

दीवानी मुक़दमों का लम्बा सिलसिला

इसके बाद राम मंदिर बनाम बाबरी मस्जिद के दीवानी मुक़दमों का लम्बा सिलसिला शुरू होता है, जिस पर सत्तर साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने अंतिम फ़ैसला पिछले साल नवम्बर में दिया।

फ़ैज़ाबाद के एक वक़ील और हिंदू महासभा के नेता  गोपाल सिंह विशारद ने 16 जनवरी 1950 को सिविल जज की अदालत में सरकार और जहूर अहमद तथा अन्य मुसलमानों के खिलाफ मुक़दमा दायर कर  कहा कि जन्म भूमि पर स्थापित श्री भगवान राम व अन्य मूर्तियों को हटाया न जाये और उन्हें  दर्शन और पूजा के लिए जाने से रोका न जाये।

सिविल जज ने उसी दिन यह स्थागनादेश जारी कर दिया, जिसे बाद में मामूली संशोधनों के साथ ज़िला जज और हाईकोर्ट ने भी अनुमोदित कर दिया।

स्थगनादेश  को हाईकोर्ट इलाहाबाद में चुनौती दी गयी, जिससे फ़ाइल पाँच साल वहाँ पड़ी रही।

सरकार की ओर से फ़ैज़ाबाद के नये जिला मजिस्ट्रेट जेएन उग्र ने सिविल कोर्ट में अपने पहले हलफ़नामे में कहा,

“ विवादित सम्पत्ति बाबरी मस्जिद के नाम से जानी जाती है और मुसलमान इसे लम्बे समय से नमाज़ के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं। इसे राम चन्द्र जी के मंदिर के रूप में नहीं इस्तेमाल किया जाता था। 22 दिसम्बर की रात वहाँ चोरी छिपे और ग़लत तरीक़े से श्री राम चंद्र जी की मूर्तियाँ रख दी गयीं थीं।”

यह था ज़िला मजिस्ट्रेट का हलफ़नामा। 

कुछ दिनों बाद दिग़म्बर अखाड़ा के महँत रामचंद्र परमहंस ने भी एक और सिविल केस दायर किया। परमहंस मूर्तियाँ रखने वालों में से एक थे और बाद में विश्व हिंदू परिषद के आंदोलन में उनकी बड़ी भूमिका थी। इस मुक़दमे में भी मूर्तियाँ न हटाने और पूजा जारी रखने का आदेश हुआ।

मालिकाना हक का नया मुकदमा

कई साल बाद 1989 में  विश्व हिंदू परिषद की ओर से रिटायर्ड जज देवकी नंदन अग्रवाल ने भगवान राम की बाल रूप मूर्ति को यानी राम लला न्यायिक व्यक्ति क़रार देते हुए विवादित मस्जिद की ज़मीन पर मालिकाना हक़ का नया मुक़दमा दायर किया।

सुप्रीम कोर्ट ने इसी मुक़दमे में विवादित मस्जिद के अलावा सारी अधिग्रहीत ज़मीन भगवान राम के पक्ष में दे दी।

देवकी नंदन अग्रवाल के मुक़दमे के बाद परमहंस ने अपना केस वापस कर लिया। 

मूर्तियाँ रखने के क़रीब दास साल बाद 1951 में निर्मोही अखाड़े ने जन्म स्थान मंदिर के प्रबंधक के नाते तीसरा मुक़दमा दायर किया। इसमें राम मंदिर में पूजा और प्रबंध के अधिकार का दावा किया गया। 

दो साल बाद 1961 में सुनी वक़्फ़ बोर्ड और नौ स्थानीय मुसलमानों की ओर से चौथा मुक़दमा दायर हुआ।

इसमें न केवल मस्जिद बल्कि अग़ल बग़ल क़ब्रिस्तान आदि  की ज़मीनों पर पौने भी स्वामित्व का दावा किया गया।

फ़ैज़ाबाद ज़िला कोर्ट राम मंदिर बनाम बाबरी मस्जिद के इन चारों मुक़दमों को एक साथ जोड़कर सुनवाई करने लगी।

दो दशक से ज़्यादा समय तक यह एक सामान्य मुक़दमे की तरह चलता रहा और इसकी वजह से अयोध्या के स्थानीय हिंदू मुसलमान अच्छे पड़ोसी की तरह रहते रहे।

इतना ही नहीं मुक़दमे के दोनों मुख्य पक्षकारों परमहंस और हाशिम अंसारी ने मुझे बताया था कि वे  एक ही गाड़ी में हँसते बतियाते  कोर्ट जाते थे।

बिना हिचक रात बिरात एक दूसरे के घर आते -जाते थे।

मैंने दिगम्बर अखाड़े में एक साथ दोनों का इंटरव्यू लिया था। अब वे दोनों इस दुनिया में नहीं हैं। 

इमर्जेंसी के  बाद 1977 में जनसंघ और अन्य विपक्षी दलों के विलय से बनी जनता पार्टी इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर करती है, लेकिन इनकी आपसी फूट से सरकार तीन साल भी नहीं पूरी कर पाती। जनसंघ अलग होकर वाजपेयी के नेतृत्व में गांधीवादी समाजवाद की राह पकड़ता है, पर सफलता नहीं मिलती। इंदिरा गांधी 1980 में वापस में सत्ता में आती हैं।

संघ परिवार में मंथन : हिंदू कैसे एकजुट हों

उधर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का रुझान हिंदू धर्म के तीर्थों की ओर शुरू होता है, जिसे राजनीतिक टीकाकार नरम हिंदुत्व कहते हैं।

उत्तर प्रदेश की श्रीपति मिश्र सरकार विवादित राम मंदिर बनाम बाबरी मस्जिद के परिसर से सटाकर बयालीस एकड़ भूमि राम कथा पार्क के लिए अधिग्रहीत कर ली जाती है।

फिर पुराने घाटों की खुदायी कर राम की पैड़ी बनती है।

इसी बीच तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जेल सिंह भी अयोध्या दौरा कर लेते हैं।

संघ परिवार में मंथन शुरू होता है कि अगले चुनाव से पहले हिन्दुओं को कैसे राजनीतिक रूप से एकजुट करें?

संघ अथवा आरएसएस के  महराज विजय कौशल एवं कुछ अन्य लोग हिंदू जागरण मंच के नाम से मुज़फ़्फ़र नगर में 6 मार्च 1983 को विराट हिंदू सम्मेलन आयोजित करते हैं, जिसमें  पूर्व प्रधानमंत्री गुलज़ारी लाल नंदा, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पूर्व मंत्री डॉ दाऊ दयाल खन्ना भी शामिल होते हैं।

राम जन्मभूमि मुक्ति का प्रस्ताव पास होता है। हापुड़, एटा, सहारनपुर में भी इसी तरह के सम्मेलनों में काफ़ी भीड़ होती है। 

संघ परिवार की सबसे बड़ी चिंता है कि सबसे विशाल उत्तर भारत में भाजपा के पैर नहीं जम रहे।

इसी बीच दक्षिण भारत के मीनाक्षीपुरम में धर्म परिवर्तन के मुद्दे पर संघ और विश्व हिंदू परिषद अशोक सिंघल को आगे करके मुद्दा बनाते हैं। पर कोई  बड़ा आंदोलन नहीं बनता। 

1983 में ही जगद्गुरु शंकाराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती खुल कर सामने आये और आम हिन्दुओँ, विशेषकर संत समाज को के रूप में जोर देकर कहा कि राम जन्मभूमि की मुक्ति सबके सहयोग और सद्भावना से बिना किसी जय-पराजय की भावना से हो और विधि विधान से भगवान राम का मन्दिर निर्मित हो।

कृपया इसे सुनें 

https://mediaswaraj.com/why_modi_not_consulting_shankarachary_rammandir/

विहिप की रणनीति, सिंहल का उदय

दूसरी ओर विश्व हिंदू परिषद हिन्दुओं के तीन सबसे प्रमुख आराध्य राम कृष्ण और शिव से जुड़े स्थानों काशी, मथुरा और अयोध्या की मस्जिदों को केंद्र बनाकर आंदोलन की रणनीति  बनाती है। 

7/8 अप्रैल 1984 को दिल्ली के विज्ञान भवन में धर्म संसद का आयोजन कर तीनों धर्म स्थानों की मुक्ति का प्रस्ताव पास होता है।

चूँकि काशी और मथुरा में स्थानीय समझौते से मस्जिद से सटकर मंदिर बन चुके हैं, इसलिए  पहले अयोध्या पर फोकस करने के निर्णय होता है। 

27 जुलाई 1984 को राम जन्म भूमि मुक्ति यज्ञ समिति का गठन होता है।

गोरक्ष पीठाधीशवर महंत अवैद्यनाथ इसके अध्यक्ष और कांग्रेस के पूर्व मंत्री दाऊदयाल खन्ना मंत्री बनते हैं।

एक मोटर का रथ बनाया जाता है जिसमें राम जानकी की मूर्तियों को अंदर क़ैद दिखाया जाता है। 

25 सितम्बर को यह रथ बिहार के सीतामढ़ी से रवाना होता है।

8 अक्टूबर तक अयोध्या पहुँचते -पहुँचते हिंदू जन समुदाय में अपने आराध्य को इस लाचार हालत में देखकर आक्रोश और सहानुभूति उत्पन्न होती है। 

विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंघल आंदोलन के नेता बनकर उभरते हैं।

मुख्य माँग यह है कि मस्जिद का ताला खोलकर ज़मीन मंदिर निर्माण के लिए हिन्दुओं के रामानंदी सम्प्रदाय के आचार्य शिव रामाचार्य  को दे दी जाए।

इसके लिए साधु-संतों का राम जन्मभूमि न्यास बनाया गया।

क्रमश:

लेखक राम दत्त त्रिपाठी, लगभग चालीस वर्षों से राम मंदिर बनाम बाबरी मस्जिद अयोध्या विवाद का समाचार संकलन करते रहे हैं। वह क़ानून के जानकार हैं। लम्बे अरसे तक बीबीसी के संवाददाता रहे। उसके पहले साप्ताहिक संडे मेल और दैनिक अमृत प्रभात में काम किया।

ये लेखक के निजी विचार हैं।

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