आवर्तनशील खेती से लौटेगा किसानों का आत्मविश्वास

किसानों को अपने हिस्से की खेती के 1/3 हिस्से में करनी होगी बागवानी, पर्यावरण होगा मजबूत

अनिल सिंदूर, स्वतंत्र पत्रकार , कानपुर

अनिल सिंदूर, स्वतंत्र पत्रकार

एक वीर योद्धा निकल पड़ा है उस वीर भूमि से जहाँ के योद्धा जमीन के योद्धा कहे जाते हैं, जहाँ की परिस्थितियाँ सदियों से विपरीत रहीं, उन्होंने उफ़ तक नहीं की, मूलभूत सुबिधाओं से कोसों दूर, दृढ़ता के करीब, लेकिन अब वो  परिस्थितिओं और प्रजातान्त्रिक राजाओं से निराश हो चुके हैं, ऐसे वीर योद्धाओं को नयी ऊर्जा देने, वह वीर योद्धा उ.प्र. के बुंदेलखंड क्षेत्र के बाँदा से लगभग 06 किमी दूर गाँव बड़ोखर में अपने खेतों पर अथक प्रयास से जो अनुभव प्राप्त किया उसको अपने उन वीर भूमि योद्धाओं को बाँटने निकला है जो बिगड़े पर्यावरण से उपजी विभीषिका तथा प्रजातान्त्रिक सरकारों के तमाम भ्रष्टाचारी नारों से निराश होकर अपनी इहलीला तक समाप्त कर लेना चाहते हैं.

बड़ोखर निवासी प्रगतिशील किसान  प्रेम सिंह (सदस्य कृषक समृद्धि आयोग उप्र) की बगिया यानि कि उनके अनुभवों द्वारा तैयार की गयी जमीन पर जब मैं गया तो मेरा परिचय एक झोपड़ी केनीचे बैठे एक साधारण से दिखने वाले व्यक्ति से करवाया गया. प्रेम सिंह ने  बड़ी गर्मजोशी से उन्होंने मेरा स्वागत किया. कुछ देर बाद जब वह अकेले हुए मैंने उनसे उनके अनुभव और सरकारों के कुत्सित रवैये पर बात करना शुरू की. उन्होंने बताया कि किसानों के लिए बुंदेलखंड की जलवायु हमेशा से विपरीत रही है, पानी के संसाधन खेती लायक कभी नहीं रही सदियों से तालाबों और कुओं से ही फसल पर किसानों को आसरा करना पड़ा है. बुंदेलखंड का किसान अपनी आजीविका इन्हीं संसाधनों को उपयोग करता हुआ आगे बढ़ाता रहा है.

Prem Singh

बींसवी सदी के विकास से बदल रहे पर्यावरण के कारण आने वाले मौषम ने जब अपना रुख बदला तो परिस्थतियाँ किसानों के लिए और विपरीत हो गयीं. बुंदेलखंड क्षेत्र की खेती वर्षा आधारित खेती है वर्षा का कम होना या असमय वर्षा ने यहाँ के किसानों को वर्बाद कर दिया और चुनी हुई सरकारों ने इन किसानों को वायदे तथा पैकेज तो तमाम दिए लेकिन सिर्फ सरकारों के जनप्रतिनिधियों तथा अधिकारिओं तक ही उनका लाभ पहुँचा, किसान देखता ही रह गया. खेती में किसानों की संख्या घटाने का कार्य बेहद मुर्खता पूर्ण होगा. देखा जाता है नैतिकता, संस्कृति, अनुशासन जहाँ भी है वहां किसानों की संख्या ज्यादा है.

उन्होंने बताया कि अपने खेतों पर आवर्तनशील खेती करने का मन बना लिया जिसके सुखद परिणाम सामने आए. अब उसी आवर्तनशील खेती से अपने उन किसानों को उबारने का मन बना लिया है जो निराश और खेती से उचाट हो चुके हैं. आवर्तनशील खेती किसानों के सम्मान और समृद्धि का सुनिश्चित मार्ग है. आवर्तनशील खेती है क्या इस पर गौर करना होगा यह एक ऐसा खेती करने का तरीका है जो किसान को तो उबार ही लेगी बल्कि पूरे पर्यावरण को ही बदल देगी.  आवर्तनशील खेती को अपनाने के लिए किसान भाईयों को पांच कदम चलना होगा. पहला तो ये है कि विश्व की 70- 80 प्रतिशत भूमि उपजाऊ तथा कृषि योग्य है जो किसानों के पास है और यदि पृथ्वी के एक- तिहाई हिस्से में पेड़ पौधे होने चाहिए तो अपने हिस्से की एक-तिहाई भूमि में वन/बाग प्राकृतिक संतुलन को लगाना हमारी ज़िम्मेदारी है. यह कदम प्राणवायु के निश्चित अनुपात को तथा वर्षा के सामान्य बने रहने को धरती के विकासक्रम में प्रयुक्त ऊर्जा/ईंधन से उत्पन्न ताप के अवशोषण में वन/बाग ही सक्षम हैं.

प्रेम सिंह खेती

खाद्यान्न उत्पादन की तुलना में अगर हम देखें तो 10-20 गुना उत्पादन भी वन/बाग से होता है और श्रम एवं लागत एक तिहाई घट जाता है प्रत्येक गाँव में उत्पादनों के अवसरों में  उत्तरोत्तर वृद्धि होती है. यह सब करने से जहाँ किसान की आय के साधन सृजित होंगे वहीँ पलायन भी रुकेगा और पृथ्वी के प्रत्येक हिस्से में मानव, जीव-जानवर, पशु-पक्षी,वन-बाग, का अनुपात भी संतुलित होता है. प्राकृतिक रूप से जो वृक्ष अधिक अवधि तक जीवित रहते हैं साथ ही लम्बे समय तक प्रचुर मात्रा में उत्पादन देते हैं ऐसे वृक्षों का चयन कर सह-अस्तित्ववादी विधि से बागों को विकसित करना चाहिए जिससे पीढ़ियों तक बाग अस्तित्व में रह कर आय और समृद्धि देते रहें. वर्तमान पद्धतियों से लगाये गए एकांगी बाग 30- 40 वर्षों में एक साथ समाप्त हो जाते हैं एवं उत्पादन भी न्यूनतम होता है साथ ही प्रबंधन एवं श्रम भी अधिक लगता है.

आवर्तनशील खेती का दूसरा कदम पशु-पक्षी आते हैं प्रकृति के संतुलन में पशु-पक्षीयों का एक नियत अनुपात है जिसका अनुपात समझकर एवं बनाये रखकर ही प्रकृति को अक्षुण् एवं शाश्वत बनाये रखा जा सकता है तथा किसान अपनी आय एवं स्वास्थ्य में वृद्धि कर सकता है. इसलिए जरुरी हो जाता है कि गोपालन किया जाय. गोबर एवं गोमूत्र से मिट्टी में सूक्ष्म जीवन तथा उत्पादन प्रणाली जीवन्त एवं शाश्वत रहती है जिन वन/बागों में पशु-पक्षी बहुतायत में रहते हैं उनको रोग विहीन एवं विकसित होते देखा गया है. फसलों में कीट नियंत्रण में भी पक्षियों की अहम् भूमिका होती है.पशु पालन में आज मानवीय दृष्टिकोण से विचार करने की जरुरत है उसके लिए जरुरी है कि पशुओं को 7-8 घण्टे छुट्टा चरने के लिए छोड़ दिया जाय जिससे उन्हें विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ खाने को मिलें, तभी पशु स्वस्थ रह सकता है. उन्होंने बताया कि हमारा तीसरा कदम पशुचारण के चक्रानुक्रम से कुल स्वत्वाधिकार की भूमि का 1/3 हिस्से का प्रयोग होना चाहिए. पिछले 40-50 वर्षों से लालच आधारित जहरीली हिंसक खेती के प्रचलन से एक प्रकार की फसल लेने की प्रवृत्ति, उर्वरकों तथा  कीटनाशकों के प्रयोग से मिट्टी की उर्वरकता में गिरावट आयी है जिसके फलस्वरूप उत्पादन में भी गिरावट आयी है.

जमीन हमें कुछ देना चाहती है लेना हम कुछ और चाहते हैं, खरपतवार नाशियों के प्रयोग से जैव विविधता की हानि हुई जिससे पर्यावरण संतुलन बिगड़ा है. मिट्टी की उर्वरता का प्राकृतिक चक्रण पूर्णत: टूट गया है इसके पुनर्जागरण के लिए एक मात्र उपाय पशुओं का गोबर एवं मूत्र है विशेषकर गाय का. उन्होंने बताया कि एक ग्राम गाय के गोबर में 3 करोड़ सूक्ष्म जीवी पाए जाते हैं ऐसा गोबर जब जमीन के संपर्क में आता है तो जमीन के अन्दर स्थित तमाम कीट जैसे केचुये, गोबरीला आदि जमीन की सतह पर आकर गोबर व मिट्टी को एकसार कर देते हैं. पशुचारण से यह क्रिया अनवरत चलती रहती है जिससे जमीन की ऊपरी सतह की मिट्टी में प्राकृतिक रूप से उत्पादकता बढ़ जाती है जिसमें 2-3 वर्षों के अन्तराल में खेती करने से 2 से 3 गुना उत्पादन स्वत: प्राप्त होता है. पशुओं को वर्ष पर्यन्त हरा चारा चरने को मिलता रहे इसके लिए जलवायु के हिसाब से चारागाह के लिए अपनी ही भूमि के 1/3 हिस्से में चारे की खेती करें. कुछ जमीन पशुओं को छुट्टा चरने के लिए छोड़े रहें. चारा उत्पादन तथा चरने के स्थानों को चक्रीय विधि से बदलते रहें. दो या तीन वर्ष बाद उसमें खाद्यान्न या सब्जी की खेती करें. इस विधि से जमीन को लगातार कर्षण क्रियाओं से मुक्ति मिलेगी. जमीन में प्राकृतिक रूप से जो वनस्पतियाँ हो सकती हैं होंगीं जो कि भूमि को धात्विक रूप से संतुलित रखेंगी.

हमारा चौथा कदम शेष भूभाग में गोबर की खाद डालकर परिवार की अधिकारिक आवश्यकता पूर्ण करने वाली विविध खेती करना चाहिए. परिवार की आवश्यकता. जलवायु एवं भूमि उर्वरा शक्ति तथा स्थानीय बीज परम्परा को ध्यान में रख कर विविध फसलें उगाना जिससे बाज़ार पर आश्रितता ख़त्म हो और भूमि की उर्वरता में संतुलन बना रहे. परिवार की अधिकारिक आवश्यकताओं की पूर्ति का तात्पर्य, आहार, आवास तथा अलंकरण सम्बन्धी जरूरतों को कम से कम बाज़ार जाना पड़े. जैसे मसालों, तेल, सब्जियां, डालें, अनाज आदि से जो-जो उत्पादन जलवायु के अनुकूल हों, सभी पैदा करने से मिट्टी में उर्वरता बची रहेगी एवं बाज़ार पर निर्भरता घटेगी, साथ ही विविध पौष्टिक व्यंजन घर में ही उपलब्ध होंगे. हमें ध्यान रखना होगा की बीज चयन में स्थानीय बीज का ही चयन होना चाहिए. वर्तमान लालच आधारित खेती का दुष्परिणाम किसानों को स्थानीय बीजों के विलुप्त होने के रूप में भोगना पद रहा है.अब हमारा आखरी कदम है किसान द्वारा उत्पादित उत्पाद का मूल्यांकन. किसान को आदि काल से ये पीड़ा रही है कि वह अपने द्वारा उत्पादित वस्तुओं का मूल्यांकन नहीं कर पाया.

 

खेती के उपकरण

इसका मूल कारण है कि प्राकृतिक ऐश्वर्य का मूल्य शून्य होता है अर्थात हमें उत्पादित वस्तुओं को मानवोपयोगी बनाकर अपने उत्पादों का मूल्यांकन करना होगा. आवर्तनशील खेती के परिणाम विश्व में यदि सभी किसान इस प्रकार से खेती करते हैं तो जब 1/3 हिस्से में पेड़ पौधे होंगे जिससे ताप नियंत्रित होगा. जिसका सीधा असर वायु की शुद्धता एवं गति पर होगा. जिसके परिणाम स्वरुप  वर्षा का वितरण संतुलित होगा, ऋतुयें संतुलित होंगी. ऋतु असंतुलन का सर्वाधिक प्रभाव खेती एवं किसानों पर ही होता है. जीव, जानवर, पशु-पक्षियों का अनुपात संतुलित होगा जिससे मृदा में उर्वरता बढ़ेगी. उर्वर मिट्टी में स्वस्थ फसलें प्राकृतिक रूप से होंगी. फसलों कीटों से प्राकृतिक सुरक्षा पक्षियों द्वारा सहयोग मिलेगा. खेती में लागत श्रम एवं अनिश्चितता घटेगी.

Leave a Reply

Your email address will not be published.

13 − 12 =

Related Articles

Back to top button