प्रशांत भूषण को सजा मिलनी ही चाहिए और वे स्वीकार भी करें !

सुप्रीम कोर्ट ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता और शुचिता के लिए सता संघर्षशील एडवोकेट प्रशांत भूषण को जिस तरह अवमानना के लिए दोषी ठहराया है और श्री भूषण ने जिस तरह उसे स्वीकार किया है, उसे नागरिक समाज किस रूप में ग्रहण करे? देश के प्रमुख राजनीतिक टीकाकार श्रवण गर्ग की टिप्पणी. 

प्रशांत भूषण को अगर कोई सजा मिलती है तो उसका स्वागत किया जाए या नहीं ?

उन्हें जिस अवमानना का दोषी पाया गया है उसमें अधिकतम छह माह की क़ैद या जुर्माना या दोनों की सजा दी जा सकती है। यहाँ विषय क़ैद की अवधि अथवा जुर्माने की राशि का नहीं बल्कि अवमानना के मामले में किसी भी छोटी या बड़ी सजा के इतिहास में दर्ज होने और उस पर देश और दुनिया के नागरिकों की ओर से होने वाली प्रतिक्रिया का है।

प्रशांत भूषण को सर्वोच्च न्यायालय ने विचार करने के लिए जो दो-तीन दिन का समय दिया था वह रविवार रात को समाप्त हो जाएगा।प्रशांत भूषण को अपने किए के प्रति न तो किसी प्रकार का पश्चाताप है और न ही सजा को लेकर वे किसी भी तरह के दया भाव की अपेक्षा कर रहे हैं।सवाल अब यह है कि नागरिकों की इस पर किस तरह की प्रतिक्रिया है या होनी चाहिए ?

देश के स्वतंत्रता दिवस के ठीक एक दिन पहले यानि कि चौदह अगस्त को सर्वोच्च न्यायालय की तीन-सदस्यीय खंडपीठ द्वारा भूषण को उनके दो ट्वीट्स के लिए अवमानना का दोषी ठहराए जाने के बाद सजा का वे तमाम नागरिक निश्चित ही स्वागत करना चाहेंगे, जो न्यायपालिका की गरिमा को हर क़ीमत पर बनाए रखने के पक्षधर हैं,और उनके साथ वे लोग भी जो अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के कारण भूषण जैसे लोगों के प्रति द्वेष का भाव रखते हैं।इनमें दोनों ही प्रमुख दलों के लोग भी शामिल माने जा सकते हैं।इन लोगों का मानना हो सकता है कि सजा के बाद न्यायपालिका जैसी संस्थाओं के प्रति अवमाननाओं के ‘दुस्साहस’ की घटनाओं में कमी आ जाएगी।

दूसरी ओर ,इस बात में कोई आश्चर्य नहीं व्यक्त किया जाना चाहिए कि वे तमाम नागरिक भी ,जो संख्या में कम होते हुए भी भूषण जैसे गिने-चुने लोगों के समय-समय पर व्यक्त होने वाले अप्रतिम ‘साहस’ और विचारों के साथ आत्मीय भाव से जुड़े हुए हैं ,अगर यही चाहते हों कि सार्वजनिक जीवन में शुचिता के लिए अहिंसक संघर्ष में लगे इस व्यक्ति को प्राप्त होने वाली सजा एक पुरस्कार मानकर सम्मानपूर्वक स्वीकार कर लेना चाहिए।पर इस दूसरी तरह की ‘अल्पसंख्यक ‘जमात के इस तरह की कामना करने के कारण पहली तरह के नागरिकों से सर्वथा भिन्न हैं।

ये दूसरी तरह के नागरिक या तो संख्या में अब बहुत ही कम बचे हैं या फिर उन लोगों के ही वैचारिक उत्तराधिकारी हैं जो 25 जून 1975 की शाम दिल्ली के ऐतिहासिक राम लीला मैदान में उपस्थित थे और तिहत्तर-वर्षीय जयप्रकाश नारायण को उसी आवाज़ में बोलता हुआ सुन रहे थे जो वर्ष 1922 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के कंठ से उपजी थी।जे पी के साथ तब मंच पर मोरारजी देसाई के अलावा नानाजी देशमुख, मदन लाल खुराना और अन्य कई राष्ट्रीय नेता उपस्थित थे।इन सब लोगों को तब कोई अनुमान नहीं था कि कुछ ही घंटों के बाद और रात के ख़त्म होने के पहले देश की तक़दीर बदलने वाली है।

जयप्रकाश नारायण तब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ए एन रे से अपील कर रहे थे कि उन्हें इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ इंदिरा गांधी की पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई नहीं करना चाहिए।’वे ऐसा इसलिए नहीं कह रहे हैं कि उनकी निष्पक्षता के प्रति कोई अविश्वास है बल्कि इसलिए कि सरकार द्वारा अन्य तीन जजों की वरीयता को लांघकर उनका उक्त पद के लिए चयन किया गया है।अतः लोगों के मन में शंकाएँ उत्पन्न हो सकतीं हैं।’जे पी ने अस्सी मिनट के इसी उद्बोधन में अपने उस कथन को भी दोहराया कि पुलिस ,सेना के जवानों और सरकारी सेवकों को सरकार के ‘अवैध और अनैतिक’ आदेशों का पालन नहीं करना चाहिए।राम लीला मैदान पर उपस्थित हुए इस क्षण का साक्षी बनना किसी के लिए भी गौरव की बात हो सकती थी।मेरे लिए भी थी।

अपने ‘यंग इंडिया‘अख़बार में ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ आलेख प्रकाशित करने के आरोप में मार्च 1922 में तब केवल तिरपन-वर्षीय महात्मा गांधी को अहमदाबाद स्थित उनके साबरमती आश्रम से गिरफ़्तार कर लिया गया था।उन पर आरोप लगाया गया कि वे क़ानून के द्वारा स्थापित सरकार के ख़िलाफ़ घृणा उत्पन्न करने अथवा अवमानना या असंतोष फैलाने का प्रयास कर रहे हैं।अपने ऊपर लगाए गए आरोपों को स्वीकार करते हुए महात्मा गांधी ने कहा था कि वे अदालत से दया की प्रार्थना नहीं करना चाहते हैं ।वे किसी कम कठोर सजा की माँग भी नहीं करते हैं।वे यहाँ जो भी कठोरतम दंड हो सकता है उसे प्रसन्नतापूर्वक अपने उस कार्य के परिणामस्वरूप स्वीकार करने के लिए उपस्थित हैं जिसे क़ानून जान बूझकर किया गया अपराध मानता है और वे किसी भी नागरिक का सर्वोच्च कर्तव्य समझते हैं।(चौंसठ-वर्षीय प्रशांत भूषण ने भी अपने उत्तर में ऐसा ही कुछ उद्धृत किया है।)

अंग्रेज जज सी एन ब्रूफफ़िल्ड ने तब गांधीजी को छह वर्षों के कारावास की सजा तो दी थी , पर साथ ही यह भी जोड़ा था कि भारत में कभी घटनाचक्र इस तरह से बने और सरकार के लिए ऐसा सम्भव हो कि सजा की अवधि को कम करके आपको रिहा किया जा सके तो ‘मेरे से अधिक कोई और व्यक्ति प्रसन्न नहीं होगा।’

मानहानि के कारण आहत भावनाओं को लेकर सजा के समर्थक नागरिकों से भिन्न जो तबका है वह जानता है कि प्रशांत भूषण का वास्तविक इरादा उस संविधानिक संस्था की अवमानना का क़तई हो ही नहीं सकता जिसकी वाणी के साथ करोड़ों मूक लोगों का भविष्य बंधा हुआ है।

उनका क्षोभ तो उन निहित स्वार्थों के प्रति है जो समस्त प्रजातांत्रिक संस्थानों के चेहरों को एक विशेष क़िस्म की वैचारिक व्यवस्था और राष्ट्रवाद की परतों से ढाँकना चाहते हैं।

प्रशांत भूषण द्वारा स्वीकार की जाने वाली सजा लोगों के मन से सविनय प्रतिकार के फलस्वरूप प्राप्त हो सकने वाले दंडात्मक पुरस्कार के प्रति भय को ही कम करेगी।

जैसे महामारी पर नियंत्रण के लिए उसके संक्रमण की चैन को तोड़ना ज़रूरी हो गया है,  उसी प्रकार लोकतंत्र पर बढ़ते प्रहारों को रोकने के लिए नागरिकों के मौन की लगातार लम्बी होती शृंखला को तोड़ना भी आवश्यक हो गया है।

अतः इस कठिन समय में प्रशांत भूषण की उपस्थिति का एक आवश्यक उपलब्धि के रूप में स्वागत किया जाना चाहिए।

कुछ होगा / कुछ होगा अगर मैं बोलूँगा / न टूटे तिलिस्म सत्ता का / मेरे अंदर एक कायर टूटेगा
-रघुवीर सहाय

 

 

 

 

 

 

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