साहित्य से नहीं व्यवहार से बचेगी हिंदी

हिंदी दिवस पर एक पुराना प्रसंग याद आ रहा है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की विरासत संभालकर सरस्वती पत्रिका का लंबे समय तक संपादन करने वाले प्रकांड विद्वान एवं हिंदी प्रेमी पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी “भैया साहब” का मानना था कि बचाने के लिए हिंदी को लोक व्यवहार में अपनाना बहुत जरूरी है। साहित्य की विधाएं रुचि पैदा कर सकती है। ज्ञान बढ़ा सकती है पर बचा नहीं सकती।

आज से 33 वर्ष पहले 26 अक्टूबर 1988 को लिखे गए एक पत्र में भैया साहब ने हिंदी को बचाने और बढ़ाने के लिए कहानी-लेख-कविता यानी साहित्य की तमाम विधाओं की बात न करते हुए हिंदी को व्यवहार में लाने की वकालत की थी। “भैया साहब” ने कहा था कि हिंदी सेवा की सच्ची सेवा यही होगी कि हिंदी को अपनी दिनचर्या में,अपनी आदत में,अपने व्यवहार में ढाल लिया जाए। वह मानते थे, हिंदी की अधिकतर संस्थाएं कविता कहानी नाटक या किन्ही साहित्यिक विषय में लिखने और चर्चा करने तक सीमित रहती है। यह भी आवश्यक है चलते रहने चाहिए लेकिन हिंदी भाषा की उपेक्षा की कीमत पर नहीं। उनका मानना था कि साहित्य प्रेम होना अच्छी बात है लेकिन जरूरत हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि के सर्वाधिक उपयोग की है। हम घरेलू और सार्वजनिक कार्य अधिकतर अंग्रेजी या अन्य भाषाओं में निस्तारित करने मैं अपनी शान समझते हैं। यह प्रवृत्ति ही हमें हिंदी भाषा से दूर करती है।


भैया जी ने इन पंक्तियों के लेखक को लिखे गए एक पत्र में कहा था- हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम उत्पन्न करने का सबसे सरल उपाय स्कूलों में बच्चों के बीच विभिन्न तरह की प्रतियोगिताएं आयोजित करना है। इससे बच्चों में अपनी भाषा को बचाने बढ़ाने के संस्कार पैदा होंगे और साहित्य के प्रति प्रेम भी। जरूरी यह भी है कि सरकारी और निजी कार्यालयों, व्यापारियों आदि सभी वर्गों को हिंदी में लोग व्यवहार के लिए प्रेरित किया जाए प्रायः देखा गया है कि लोग अपने घरों की नाम पट्टी दुकानों के बोर्ड अंग्रेजी में ही लिखवाते हैं। हस्ताक्षर भी अंग्रेजी में बनाने को अपनी शान समझते हैं। पत्र व्यवहार भी अंग्रेजी में करने की आदत बना चुके हैं। उनकी यह चिंता बड़ी थी कि हिंदी जब व्यवहार में ही नहीं रहेगी तो बचेगी कैसे और बढ़ेगी कैसे?
33 वर्ष पहले की उनकी वह चिंता आज हिंदी को बचाने और बढ़ाने का एकमात्र उपाय ही नजर आती है। सच है कि अगर हिंदी व्यवहार में नहीं होगी तो कितना और कैसा भी साहित्य रच दिया जाए? अगर व्यवहार से बाहर हो गई तो हिंदी बचेगी नहीं। हिंदी बची है तो बोलने वालों से, लिखने वालों का नंबर बाद में। लिखना एक संस्कार है और बोलना स्वभाव।

हिंदी दिवस: एक दुर्लभ चित्र

srinarayan chaturvedi
हिंदी दिवस: एक दुर्लभ चित्र यह चित्र जो आप देख रहे हैं वह सरस्वती के पूर्व संपादक हिंदी के प्रकांड विद्वान पंडित श्री नारायण चतुर्वेदी भैया साहब और सरस्वती के वर्तमान प्रधान संपादक प्रोफ़ेसर देवेंद्र कुमार शुक्ल का है।

यह चित्र जो आप लेख के ऊपर देख रहे हैं वह सरस्वती के पूर्व संपादक हिंदी के प्रकांड विद्वान पंडित श्री नारायण चतुर्वेदी भैया साहब और सरस्वती के वर्तमान प्रधान संपादक प्रोफ़ेसर देवेंद्र कुमार शुक्ल का है। केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा के एक कार्यक्रम में पधारे पंडित श्री नारायण चतुर्वेदी जी से प्रोफ़ेसर मुलाकात श्रेष्ठ साहित्यकार रहे पंडित विद्यानिवास मिश्र के आगरा स्थित निवास पर वर्ष १९८० में हुई थी। यह संयोग ही है कि तब इस युवा देवेंद्र शुक्ला को भैया साहब में सरस्वती के संपादन के लिए उत्साहित किया था और ४० वर्षों बाद भैया साहब का वह सपना प्रोफ़ेसर शुक्ला पूरी तन्मयता से और पूर्वज संपादकों की परंपरा के अनुसार ही पूरा कर रहे हैं।
सही समझ रहे हैं वही सरस्वती जो आज से १२१ वर्ष पहले सन १९०० में प्रयागराज से इंडियन प्रेस द्वारा प्रकाशित की गई थी। जिस सरस्वती का वर्ष १९०३ से १९२० तक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी में संपादन किया। उसी सरस्वती का संपादन बाद में पंडित श्री नारायण चतुर्वेदी जी ने संभाला और अब प्रोफेसर देवेंद्र शुक्ला संभाल रहे हैं।


∆ गौरव अवस्थी (आशीष)
रायबरेली/उन्नाव
९१-९४१५-०३४-३४०

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