त्रासदियों का दौर : कोरोना काल की तकलीफों का मार्मिक शब्दांकन

डॉक्टर मनोहर पटेरिया ‘मधुर’

कवि डॉ अमिताभ शुक्ल की कविताएं मेरे सामने हैं उनके काव्य संग्रह त्रासदियों का दौर के रूप में।

और यह भी ऐसे कवि  हैं,  जो कहते हैं कि,  मैं ‘कवि नहीं हूं’। अब यह बात सबको अजीब जरूर लगे, पर यही कवि और कवित्व-भाव दिखाई देता है।

क्योंकि, तुलसीदास ने भी यही कहा था कि मैं कवि  नहीं हूं, और न ही कवि कहलाता हूं।

बाबा तुलसीदास यही नहीं रुके,  वह तो यहां तक कह गए कि, ” कवि विवेक, एक नहीं मोरे,  सत्य कहूं, लिखी कागज कोरे।”

जब इतने ग्रंथ लिखने वाले महान कवि तुलसीदास जी अपने बारे में यदि ऐसा कहते हैं तो, अमिताभ  शुक्ल यदि कहते हैं कि,  मैं कवि नहीं हूं, तो इसके क्या, और कितने गहरे मायने हो सकते हैं,  पाठक को समझ लेना चाहिए।

इसे विनम्रता भी कह सकते हैं और विनम्रता के बीच एक अनन्य धिक्कार-भावना को भी रेखांकित किया जा सकता है,  जो आजकल कई लोगों में दिखाई पड़ती है, जो अपने आप को महान कवि कहते फिरते हैं।

जहा तक कविता का प्रश्न है, इस पर तो सैकड़ों परिभाषाएं हैं, किंतु मेरे विनम्र विचार से तो “सच्ची अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का नाम ही कविता है”।

अमिताभ शुक्ल मूलतः अर्थशास्त्र के प्राध्यापक हैं. जाहिर है कि, जब वह, गद्य या पद्य जो भी लिखेंगे उसमें उनकी सोच की आधारशिला अर्थशास्त्र ही होगी और वैज्ञानिक अर्थशास्त्र में मार्क्स और अर्थशास्त्र के तमाम तत्व पूंजी,  श्रम, उत्पादन, उपभोग,  उपयोगिता, लाभ, लाभ, लाभांश के विचार और उसके प्रति फलित गुण-दुर्गुण कविता में यदि आ जाएं, तो इससे चौक ना नहीं चाहिए।

अमिताभ शुक्ल की कविता में इसलिए पहले मस्तिष्क और फिर हृदय  बोलता है।

यही तो अमिताभ शुक्ल की कविता की खूबी है, विशेषता है, और आज की जो कविता है उसका एक प्रमुख लक्षण भी है।

इसलिए हृदय जब पीछे रह जाता है तो मस्तिष्क तर्क-वितर्क करता है।

अर्थशास्त्र भी तो एक विज्ञान है और विज्ञान के भी यही तत्व हैं। वह भी क्यों,  कैसे,  कारण और परिणाम  के पैमाने हाथ में लिए रहता हैl

 अमिताभ ने जिन त्रासदियों को कविता की विषय-वस्तु बनाया है, जैसा कि काव्य संग्रह का शीर्षक है “त्रासदियों का दौर”।

इस दौर में वह वैयक्तिक धरातल पर रहते हुए भी जब उसके हृदय का स्पंदन होने लगता है तो, अर्थशास्त्री के दिमाग में दरार की तरह संवेदनाओं की कविताएं वैश्विक सोच की तरह जगमगाती दिखाई पड़ जाती हैं।

यही अमिताभ शुक्ल की कविताओं की खासियत है। मैं कवि अमिताभ को उनके घरेलू नाम नंदन की अवस्था से जानता हूं।

जिस सूरदास ने अपने भाव जगत में कृष्ण को मिट्टी में लोटपोट होते हुए घुटने चलते, मुंह में माखन लगाए देखा होगा, वही सूरदास कृष्ण को आदम कद खड़ा हुआ, गोवर्धनधारी देखते हुए कृष्ण का सांगोपांग वर्णन करने में सफल हो पाया है।

सूरदास जी ने लिखा है, ” घुटन ल चलत, रे नु तन मंडित, मुख दधि लेप किए”.।

नंदन की पृष्ठभूमि में कविता उन्हें उनकी माता के दुग्ध- पान के साथ ही मिली है, और मस्तिष्क में तर्क-वितर्क और जुझारूपन पिता से मिले हैं।

डॉ अमिताभ शुक्ल सुविख्यात वरिष्ठ कवियत्री श्रीमती सावित्री शुक्ल ‘ निशा’ और प्रख्यात समाजवादी समाजसेवी श्रमिक नेता स्वर्गीय राजेंद्र कुमार शुक्ल के सुपुत्र हैं।

यह मेरा सौभाग्य है कि मैं अमिताभ के माता-पिता के बहुत निकट, एक आत्मीय पारिवारिक व्यक्ति की तरह रहा हूं।

अमिताभ जी ने यद्यपि कविता लिखना बहुत बाद में शुरू किया लेकिन कविता और मार्क्सवादी सोच के बी ज तो उन्हें संस्कार रूप में पहले से उपलब्ध रहे हैं।

ऐसे में, जब मैंने अमिताभ की कविताएं देखी और आजकल की उथल-पुथल, दौड़-धूप एकाकीपन, स्वार्थ – परायणता, लाभ-हानि के आधार पर।

बनते-बिगड़ते संबंध घर से लेकर विश्व के विराट मानचित्र तक कवि अमिताभ अपनी दोनों आंखों से यानी एक आंख अर्थशास्त्री की और दूसरी कवि हृदय लिए विश्व-मानवता की भावनाओं से ओतप्रोत और फिर यह कविताएं लिखी गई हैं।

अतः इन कविताओं के पैनेपन को एक-एक शब्द गौर से पढ़ने पर ही अमिताभ और अमिताभ की कविताओं के तेवर समझ में आ सकते हैं।

अभी हाल ही के कोरोना काल में लिखी गई यह कविताएं उन दृश्यों पर केन्द्रित हैं, जिसमें लोग अकेले हैं, या परिवार के साथ हैं, घर में, रास्ते में, या कहीं आश्रय स्थल में बंद हैं, खाने-पीने का ठिकाना नहीं,  बाहर निकल नहीं सकते,  आवागमन अवरुद्ध।

कवि भी स्वयं को किसी स्थल पर एक कमरे में पाकर भी, उसमें से दीवारों के पार सारी दुनिया को देखता है और फिर लिखता है जिससे कोरोना काल की तकलीफों का मार्मिक रेखांकन हो पाया है।

मेरा यह विचार है कि,  कविता में लालित्यपूर्ण भाषा-प्रवाह, रस, रूप, छंद,  अलंकार ठीक उसी तरह होते हैं,  जैसे कि,  किसी पाषाण प्रतिमा को अपनी भावना के अनुकूल परिधान धारण करा देते हैंl

उत्तर भारत में कृष्ण के परिधान अलग दिखेंगे, राधा के अलग,  राजस्थान में अलग, बंगाल में अलग,  मथुरा में अलग और दक्षिण भारत में वहां की वेशभूषा के अनुकूल।

इसी प्रकार, यदि कवि गीतकार है, तो वह अपने स्वर के अनुसार कविता में भाषा और छंद का उपयोग करेगा।

यदि, वह नई विधा या नई कविता का है, और विचार विशेष या वाद विशेष में बंधा हुआ है,  तो उसकी कविता भी उसी तरह की होगी, और अपनी अलग पहचान रखने के लिए यह अलग-अलग तमगे,  प्रगतिशीलता, मार्क्सवादी, समकालीन, राष्ट्रवादी आदि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से टांगे हुए दिख जाएंगे।

जहां तक अमिताभ का सवाल है,   इनका झुकाव मार्क्सवादी चिंतन की ओर भले हो,  लेकिन वह उसका पुछल्ला नहीं है।

यानी जब साफ सोच की बात आती है, तब वह अपनी कविता में मनुष्य और मानवता की बात प्रमुख रूप से कहते हैं। इसमें वह व्यक्ति, परिवार, समाज आदि के स्वार्थपूर्ण गुन्फन को लतियाने से नहीं चूकताl ।

अमिताभ की कलम से निकली यह कविताएं इस वैश्विक अवसाद की घड़ी में आई हैं, और इन त्रासदियों के दौर के बीच में भी मुझे जिजीविषा की मशाल जलती हुई दिख रही है,  इसलिए, मैं बहुत गहरे डूब कर,  अमिताभ की कविताओं को पढ़कर,  समझ कर इस कविता संग्रह के शीर्षक के आगे जिजीविषा की मशाल और जोड़ना चाहूंगा।

मुझे विश्वास है कि, कविता के सच्चे पाठक इन कविताओं के मर्म, भाव और अभिव्यक्ति को समझते हुए काव्य संग्रह का स्वागत करेंगे।

*कवि, कथाकार, समालोचक, पूर्व प्रसारण अधिकारी, आकाशवाणी, भोपाल मप्र

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