सत्ता के सामंत होते जनतंत्र के जनप्रतिनिधि
वास्तव में जनप्रतिनिधि चुनने की संभावना लगभग समाप्त
डॉ आर. अचल
एक बार सिविल सेवा की तैयारी कर रहा एक छात्र मुझसे सवाल किया कि उच्चशक्षित प्रशासनिक अधिकारियों पर अल्प शिक्षित या अशिक्षित नेताओं का शासन क्या उचित है ? आजकल अक्सर पढे-लिखे लोग यह सवाल उछालते रहते है।उस समय मैने उस छात्र को समझाते हुए कहा था कि उच्च शिक्षित किसी क्षेत्र या देश-प्रदेश के विषय में किताबों से जानते है जबकि नेता या जनप्रतिनिधि अपने क्षेत्र के इतिहास,भूगोल,समाजशास्त्र,अर्थशास्त्र, जरुरतो,समस्याओं को वास्तविक रुप से जानते है।
इस लिए वह उस क्षेत्र का जनप्रतिनिधि कहलाता है।आदर्श रूप से क्षेत्र के प्रतिनिधि का तात्पर्य उस संसदीय या विधायिका क्षेत्रकी समस्याओं और जनाकाँक्षाओ का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए जनप्रतिनिधि के अनुसार उच्चशिक्षित प्रशासनिक अधिकारी प्रबंधन व प्रशासन का कार्य करता है।उस समय वह नवछात्र तो संतुष्ट हो गया पर मैं आज तक संतुष्ट नहीं हो सका, क्योकि आज हमारे जनप्रतिनिधि वास्तव ऐसे लोग नही है जो अपने क्षेत्र के बारे में जानकारी रखते है,या अपने क्षेत्र की सामाजिक-आर्थिक हालात से वाकिफ है या जनता से संमस्याओं पर विमर्श या संवाद करते है।
1980 तक ऐसे जनप्रतिनिधि सुने जाते है।जो क्षेत्र में खजड़ी और भोपू बजा कर चुनाव जीत जाते थे।उन्हे पता था क्षेत्र में कौन फसल बोयी जाती है कितनो का रोजगार गन्ने,अरहर की खेती,मछली पकड़ने से चलता है।कहाँ आवागन का साधन नहीं है।अस्पताल नहीं है,कौन सी महामारी आती है कितनो का प्राण हरण करती है.नहर में पानी आया कि नही,बाढ ने कितने घरो का उजाड़ा आदि- आदि अनेक चिन्तायें जो जनता की थी वो जनप्रतिनिधियों की थीं।
पर इस प्रवृत्ति का पतन इन्दिरा युग में ही होने लगा था,जब अधिनायकवादी नीतियों के विरोध के कारण दलो में टुटन की प्रक्रिया शुरु हुई, सरकारों का सुरक्षित रखने के लिये सामाजिक या पार्टी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा कर जीताऊँ,पार्टी में टिकाऊ, पाकेट के लोगो को टिकट दिया जाने लगा।पार्टी की अध्यक्ष की कृपा ही नेता या जनप्रतिनिधि बनने की गारंटी हो गयी।जनता के बीच पार्टी के मुखिया की छवि को तारनहार की गढी जाने लगी।यहाँ यह उल्लेखनीय है कि नायकपूजा भारतीय संस्कृति का विशेष गुण रहा है।हर समस्या के निदान करने के लिए बार-बारअवतारो का परिकल्पना की गयी है।इस परम्परा की आदी जनता में व्यक्ति केन्द्रित गणतंत्र का स्थापित करना पहुता ही आसान होता है और ऐसा हुआ भी।वैसे इसका प्रयास तो नेहरु युग में ही शुरु हो गया था।तमाम सरकारी सूचना के माध्यम से गाँधी जी और नेहरू जी की छवि गढी जाने लगी थी।विभिन्न विपरीत राय रखने वाले विचारकों,स्वतंत्रता सेनानियों,राजनैतिक कार्यकर्ताओं को किनारे लगाया जाने लगा था।अम्बेदकर,लोहिया,दीनदयाल,राजर्षि टंडन, जायपाल सिंह मुण्डा,रफी अहमद किदवई,हरिसिह गौर आदि के नेपथ्य में किये जाने लगे थे।पर वे विचार इतने मजबूत रहे कि नायकत्व के प्रचार के बावजूद धूमिल नही हो सके।
फिर भी प्रचारतंत्र का गहरा प्रभाव जनता पर पडने लगा,काँग्रेस माने गाँधी और नेहरू होने लगा।पर नेहरू जी के अवसान के बाद लगा कि काँग्रेस या विपक्ष कुछ खुली हवा मे साँस ले पायेगे,पर यह इतना कम समय तक रहा कि दिवास्वप्न जैसा लगता है।गणतंत्र की लौ अभी जली ही थी कि थरथराने लगी।
शास्त्री युग का अंत हो गया।फिर काँग्रेस में वैचारिक व स्वार्थपूर्ण टकराव आरम्भ हुआ। बड़ी चालाकी से कुलपरम्परा की छवि का लाभ लेने के लिए इन्दिराजी को लाया गया।वैचारिक द्विन्द के कारण पार्टी का विधटन हुआ।यह विघटन ही इन्दिरा जी को इस दिशा में सोचने को मजबूर किया कि सत्ता में बने रहने के लिये लोकतंत्र मे छवि ही काफी नहीं है।इसके अतिरिक्त छवि पर आश्रित प्रतिनिधियों की संख्या भी चाहिए।ऐसे प्रशासनिक अधिकारियों
की भी आवश्यकता होती है।फिर इसके बाद वही हुआ जिसकी आशंका थी।लोकतंत्र का शरीर मे राजतंत्र की आत्मा का प्रवेश करा दिया गया।संविधान
की स्वायत्त संस्थायों में छवि के अनुगामी लोगों को स्थापित किये जाने की परम्परा शुरू हो गयी। निर्वाचन आयोग, योजना आयोग,आदि सभी का तात्पर्य
केवल प्रचारित छवि हो गयी।
पार्टी के कार्यकर्ताओं या सामाजिक कार्यकर्ताओं के जनप्रतिनिधि बनने का रास्ता अवरूद्ध होने लगा।केन्द्रिय व्यक्तित्व के प्रति समर्पित लोगो को टिकट देकर प्रचारित छवि के नाम पर वोट लिया जाने लगा। जनता अपना प्रतिनिधि चुनने के बजाय पार्टी का सामंत चुनने लगी, आखिर
जनता करे भी तो क्या करे,उसके चारे तरफ दलो के केन्द्रिय व्यक्तित्व के प्रति निष्ठावान लोग ही खड़े थे। फिर भी यह अधिक दिन तक नही चल सका क्योंकि अभी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाली पीढीं जिन्दा थी।जेपी के अगुआई में एक बार फिर गणतंत्र का जमीर जागा।प्रतिरोध का स्वर सतह पर आ गया और गढी हुई प्रचारित छवि जनता ने ध्वस्त कर दिया।जनता ने अपना प्रतिनिधि चुना। चना-चबैन वाले खाने वाले राजनारायण,गन्ने के खेत से चौधरी चरन सिंह,लालू यादव, अटल विहारी बाजपेयी,लालकृष्ण आडवानी,रामकृष्ण हेगड़े,जार्ज फर्नांडिज,शरद यादव, चन्द्रशेखर, रामविलास पासवान.मुलायम सिंह यादव, आदि आम लोगो के बीच से जनप्रतिनिधि बनकर संसद में पहुँचे।पर वैचारिक व स्वर्थपूर्ण टकराव का कारण यह वास्तविक जनप्रतिनिधित्व अकाल काल का ग्रास बन गया। फिर अभिजात प्रशानिक व प्रचारतंत्र ने गढी हुई छवि को अपरिपार्य घोषित कर दिया। परिणाम स्वरूप पुनः हमारा लोकतंत्र केन्द्रीकृत व्यक्तित्व का ओर अपहृत हो गया। फिर लोकतंत्र मे नवसामंत युग का आरम्भ हो गया।यह प्रेतछाया बार-बार राजीव गाँधी,वीपी सिंह,नेहरु गाँधी परिवार के रुप में दोहराया गाया।यह केन्द्रिय करण कुछ देश के लिए धर्म और जाति की ओर मुड़ा।जब राजनीतिक दल गिरोह का शक्ल में दिखने लगे और इस बीच जो भी जाति-धर्म का चादर ओढ कर आया जनप्रतिनिधि बन गया।2014 आते-आते जब जाति-धर्म की छवि मद्धिम पड़ने लगी तो पुनःविकाश पुरूष अवतरित किया गया।जिसने जनता से अपना वास्तविक प्रतिनिधि चुनने की अक्ल पर पर्दा डाल दिया।
इस लिए आज ये तथातथित जनप्रतिनिधि,जनप्रतिनिधि के बजाय सत्ता के सामंत लगते है। यदि यहाँ जनता उन्हे मात्र एक मतदाता लगती है वे भी संसद या विधानसभा में जाकर एक मतदाता ही रह जाते है।उन्हे जनता की समस्याओं की न जानकारी होती है न ही चिन्ता।जनता के प्रति निष्ठावान होने के बजाय अपने दल-परिवार या केन्द्रिय व्यक्तित्व के प्रतिनिष्ठावान होते है, और हो भी क्यों न जब उन्ही के मिथ्या प्रचार,नबाबी खैरत जकात,जाति,धर्म,रिश्ते,संबंध के आधार पर टिकट पाते है और केन्द्रिय व्यक्तित्व के छवि पर चुनाव जीतते है, तो निश्चय ही वे जनता के बजाय दल-परिवार या व्यक्ति के प्रति निष्ठावान रहेगे,सामंत की तरह जनता का दरबार लगायेगे।सामंत की तरह कल्याणकारी घोषणाये करेगें कि मैने यह किया वह किया।यही वह कारण है जिससे राजनीति मे सामाजिक कार्यकर्ताओं के बजाय धन और बल के प्रभाव वाले लोगो के लिए राजनीति अधिक मुफिद हो जाती जा रही है।अब क्षेत्र और क्षेत्र की जनता के बजाय नेता का धन-बल और राजनैतिक दलों मे रिश्ते-नाते व संबंध महत्वपूर्ण होते जा रहे है और अंततःकथित जनप्रतिनिधि सत्ता का सामंत बन चुके हैं,मजबूत प्रचार तंत्र के युग में झूठ को सच,सच को झूठ नें बदलने का ताकत के चलते लोकतंत्र का मौलिक अर्थ खो सा गया है। भारतीय इतिहास के राजाओं का दान,शहंशाहों की खैरात,अंग्रेजो का डोनेशन आज नया सूत्र बन उभरा है।जिसकी
ऐतिहासिक आदी जनता राजतंत्र की प्रजा बन खुश हो रही है। ऐसे में वास्तव में जनप्रतिनिधि चुनने की संभावना लगभग समाप्त हो चुकी है।सबसे खेद जनक तथ्य यह है कि देश का बौद्धिक वर्ग भी पद-पुरस्कार के माया जाल में फँस कर जनता मार्गदर्शक बनने की प्रवृत्ति को तिलांजलि दे चुका है।ऐसे भला चुनाव से लोकतंत्र को कैसे बचाया जा सकता है।
- (लेखक-ईस्टर्न साइंटिस्ट शोध पत्रिका के मुख्य संपादक एवं लेखक,स्तम्भकार
स्वतंत्र विचारक है)