पंडित बालकृष्ण भट्ट : हिंदी के स्वाभिमानी पत्रकार और गद्य की विभिन्न विधाओं के प्रवर्तक

चंद्रविजय चतुर्वेदी
डा चन्द्रविजय चतुर्वेदी ,प्रयागराज 

  20 जुलाई –आधुनिक हिंदी साहित्य के निर्माताओं में अग्रगण्य पंडित बालकृष्ण भट्ट जी की पुण्यतिथि। हिंदी साहित्य में गद्य साहित्य के प्रारंभिक युग को भट्ट युग कहा जाता है। एक सफल नाटककार पत्रकार ,उपन्यासकार और निबंधकार भटटजी भारतेन्दु युग में हिंदी गद्य को एक नई दिशा दी जो द्विवेदी युग के निबंधकारों के लिए प्रेरणा स्रोत बना। 3 जून1944  को इलाहाबाद के अहियापुर -मालवीयनगर में जन्मे भटटजी हिंदी संस्कृत अंग्रेजी बंगला और फारसी के प्रकांड विद्वान् थे। प्रसिद्द पत्रकार रामानंद चटोपाध्याय जो केपी कालेज के तत्समय प्राचार्य थे उनकी प्रेरणा से भट्ट जी पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं और 1877 में हिंदी प्रदीप पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया जिसका स्वर राष्ट्रीयता ,निर्भीकता ,स्वदेशी तथा तेजस्विता का था फलस्वरूप सदैव अंग्रेजी हुकूमत की निगरानी में रहा। 

  हिंदी पत्रकारिता का जन्म 1826 में उदन्त मार्तण्ड के प्रकाशन के साथ हुआ था ,हिंदी पत्रकारिता का विकास बहुत से त्यागी पुरुषों की तपस्या से हुआ पर पत्रकारिता के लिए भट्ट जी के समान संघर्षमय जीवन शायद किसी पत्रकार का रहा होगा। भट्ट जी प्रथम तेजस्वी हिंदी पत्रकार थे जो भूखे रहकर आत्मसम्मान के साथ समझौता न करते हुए अनवरत बत्तीस वर्ष तक हिंदी प्रदीप का संपादन किया और स्वदेशी ,स्वधर्म और राष्ट्रीयता का उद्घोष करते रहे। सामाजिक कुरीतियों दहेज़ बालविवाह अस्पृश्यता के विरुद्ध संघर्ष का आवाहन करते रहे। भट्ट जी की निर्भीक पत्रकारिता के संवाहक आगे चलकर बालमुकुंद गुप्त ,गणेशशंकर विद्यार्थी ,कृष्णकांत मालवीय ,श्रीकृष्णदत्त पालीवाल ,पराड़कर और बद्रीदत्त पांडेय जैसे पत्रकार बने। पंडित मदनमोहन मालवीय और राजर्षि टंडन जैसे भारतरत्नो में हिंदी प्रेम जागृत करने का श्रेय भट्ट जी को ही है। 

  आधुनिक काल के हिंदी साहित्य का संवर्धन करने वाले भट्ट जी का भाषा के सम्बन्ध में स्पष्ट मत था –बहुत से लोगों का मत है की हम लिखने पढ़ने की भाषा में यावनिक शब्दों को बीन बीन कर अलग करते रहे। कलकत्ता और बम्बई के कुछ पत्र ऐसा करने का यत्न भी कर रहे हैं किन्तु ऐसा करने से हमारी हिंदी बढ़ेगी नहीं संकुचित ही होती जायेगी। भाषा के विस्तार का सदा यह क्रम रहा है की किसी भी देश के शब्दों को हम अपनी भाषा में मिलाते जाएँ और उसे अपना बनाते जाएँ। 

 भट्ट जी ने देवनागरी लिपि को न्यायालयी और कार्यालयी लिपि बनाने के लिए हिंदी प्रदीप में एक आंदोलन छेड़ रखा था उनका मत था की भाषा उर्दू रहे लिपि देवनागरी हो जाये तभी दोनों मिलकर एक साथ तरक्की कर सकते हैं। हिंदी को प्रकाशवान करनेवाला भारतीय चेतना को जिवंत रखने वाला हिंदी प्रदीप अंततः 1909 में ब्रिटिश हुकूमत की दरिंदगी का शिकार हो बंद हो गया ,भारतेन्दु युग का वह पात्र सर्वाधिक बत्तीस वर्ष जी सका। हिंदी प्रदीप भारत की निधि है जिसका संरक्षण भट्ट जी के प्रपौत्र डा मधुकर भट्ट जी कर रहे हैं उसे पीडीफ बना यूट्यूब पर डाल दिया है। अस्सी वर्ष की उम्र में इसके प्रकाशन के लिए सरकारों से संस्थाओ से अनुरोध करते फिर रहे हैं पर बिडम्बना है की भट्ट जी के पीछे लगा ही रहता है। 

 पंडित बालकृष्ण भट्ट जी का जीवन सदैव बिडम्बनापूर्ण ही रहा। पिता लखपति व्यापारी थे पर सरस्वती पुत्र का पालन ननिहाल में प्रकांड पंडित के घर हुआ कारोबार की और ताका तक नहीं पैतृक संपत्ति का मोह नहीं किया और जीवन पर्यन्त रोजी रोटी के लिए संघर्ष करते हुए अपने सिद्धांत पर अडिग रहे कोई विचलित नहीं कर सका साहित्य जगत में उनकी उपेक्षा हुई उन्होंने परवाह नहीं की। जीवन भर अभाव में जीने वाले भट्ट जी को चन्दन के व्यापारी छोटे भाई ने चन्दन की चिता उपलब्ध कराई। सरस्वती पत्रिका के संपादक पंडित देवीदत्त शुक्ल के वंशज भाई व्रतशील जी बहुत मुश्किल से अहियापुर में वह मकान ढूंढ पाए जहाँ यह विभूति अवतरित हुई थी। इस युगपुरुष की  स्मृति में हिंदी के गढ़ प्रयाग में कोई संस्थान नहीं है।इस प्रतिमा युग में कोई प्रतिमा ही है।  

  ऐसे महान विभूति को कोटि कोटि नमन –हार्दिक श्रद्धांजलि।

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