पंचायत चुनाव : प्रधान ही नहीं, पंच भी है महत्वपूर्ण

पंचायती चुनावों को दलों के ठप्पों से मुक्त रखा जाए

पंचायत चुनाव एक अवसर है लोक सेवक बनने का. अगर लोक सेवा की भावना हो तो पंचायतें स्थानीय सरकार या स्वशासन और एक वैकल्पिक राजनीति का माध्यम बन सकती हैं. प्रस्तुत है अरुण तिवारी का विश्लेषण.

अरुण तिवारी
अरुण तिवारी

उत्तर प्रदेश और बिहार में पंचायती चुनावों की तैयारी शुरु हो चुकी है। आगे चलकर आंध्र प्रदेश समेत कई अन्य कई राज्यों में पंचायती चुनाव होंगे।  ये अवसर भी हैं  और चुनौती भी। लोकसेवा की चाह रखने वालों के लिए यह एक अवसर है और मतदाता के लिए चुनौती। चुनौती जाति, संप्रदाय और दलों के दलदल से ऊपर उठकर उसे चुनने की, जिसमें सही मायने में एक लोकसेवक के लक्षण, ललक, नैतिकता व सामर्थ्य मौजूद हो।

यह किसी से छिपा नहीं कि लोकसभा/विधानसभा चुनावों में तो मतदाता अब दलों का गुलाम हो चला है। वह उम्मीदवार से ज्यादा, दल चुनने लगा है। यही कारण है कि अपने क्षेत्र में जनहितैषी अच्छा कार्य करने वाले ख्यातिनाम लोग भी मतदाता की पसंद नहीं बन पा रहे। स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में जमानत जब्त होने पर उनका भ्रम टूट जाता है। वह समझ जाते हैं कि अब सिर्फ अच्छा होने से कोई चुनाव नहीं जीता जा सकता। चुनाव जीतना, अपने आप में एक अलग हुनर हो गया है। हालांकि दलों ने पंचायती चुनाव में भी अपनी घुसपैठ शुरु कर दी है; किंतु सुखद है कि पंचायतों में यह संभावना अभी शेष है कि ईमानदार सेवाभावी प्रतिनिधि चुनकर आ सकें। 

अवसर राजनीति बेहतर का


मेरा मानना है कि देश की राजनीतिक चादर को यदि निर्मल बनाना है, तो इसके बीज बोने के लिए सबसे ऊर्वर खेत पंचायतें ही हो सकती हैं। पंचायती चुनाव उन सभी के लिए भी एक अवसर है, जो ग्रामसभा से लेकर लोकसभा तक जैसी संस्थाओं को सही मायने में जनप्रतिनिधि सभाओं में तब्दील होते देखना चाहते हैं।

अवसर दानदाताओं के बंधन से बाहर निकलने का


पंचायती प्रतिनिधित्व को मैं उन लोगों के लिए भी एक अवसर के तौर पर देखता हूं, जो बिना कोई संस्था बनाए, बिना किसी एनजीओ की नौकरी किए समाज कार्य में लगना चाहते हैं।
देश में अनेकानेक युवा और बुजुर्ग हैं, जो समाज सेवा करना चाहते हैं। इनमें से कई युवा, समाज कार्य विषय की पढ़ाई पढ़कर किसी संस्था में नौकरी करने लग जाते हैं। जो नौकरी नहीं करते, उनमें से ज्यादातर यही समझते हैं कि बिना कोई संस्था बनाए समाज सेवा नहीं की जा सकती। संस्था चलाने के लिए धन चाहिए। नियम ऐसे हैं कि जो पंजीकृत नहीं है, दानदाता उन संस्थाओं को दान नहीं देते। इस नाते समाज कार्य को पेशे के रूप में अपनाने वाले ज्यादातर लोग समाज कार्य बाद में करते हैं, संस्था पहले पंजीकृत कराते हैं।

ये पेशेवर लोग, जिस परियोजना के लिए धन मिल जाता है, उसी को संपन्न करने में लग जाते हैं। आजकल के दानदाताओं को काम से ज्यादा, काम के दस्तावेज़ीकरण, दुरुस्त खाते तथा प्रचार की चाहत होती है।

अक्सर यह देखा गया है कि इन सभी को साधने के चक्कर में अच्छा-भला कार्यकर्ता भी दुकानदार बन जाता है। संस्था चलाना, दुकान चलाने जैसा हो गया है। एक ऐसी दुकान… जो ख़ास तरह के प्रबंधन की दरकार रखती है।
एक दिन ऐसा आता है कि हर महीने के लगे-बंधे खर्च के कारण संस्था खुद पर बोझ हो जाती है। खर्च पूर्ति के लिए संचालक के भीतर का कार्यकर्ता मरने लगता है। संचालक के सामने दो ही विकल्प बचते हैं: या तो संस्था को बंद कर दे अथवा इस दुकान को चलाने के लिए, दानदाता की शर्तों का बंधक बन जाए। संस्था की रुचि-अरुचि तथा लक्षय समुदाय की ज़रूरत धरी की धरी रह जाती है।
इन सभी परिस्थितियों ने मिलकर समाज कार्य में रत् संस्थाओं  की शुचिता की गारण्टी छीन ली है। कार्यकर्ता निर्माण का कार्य भी लगभग बंद ही हो गया है। किसी से प्रेरित होकर समाज कार्य में आने वाले जो युवा, अच्छे प्रबंधक नहीं है, वे आगे चलकर हताश होते हैं।
मैं समझता हूं कि ग्राम पंचायत स्तर पर वार्ड मेम्बर की भूमिका, ऐसों के लिए एक विशेष अवसर है, जो सही मायने में लोक सेवा करना चाहते हैं।

प्रधान नहीं, सदस्य  भी हैं महत्वपूर्ण

गौर कीजिए कि आज पंचायती चुनाव में उम्मीदवार प्रधान तथा ब्लाॅक व ज़िला स्तर के पदों पर चुने जाने के लिए जी-तोड़ कोशिश करते हैं। जबकि 2015 के उ.प्र. पंचायत चुनाव में वार्ड मेम्बर की 01 लाख 33 हजार, 138 सीटों पर किसी ने पर्चा ही नहीं भरा। 03 लाख, 01 हज़ार, 832 सीटें ऐसी थीं, जिन पर सिर्फ एक उम्मीदवार ने पर्चा भरा। दोनो को मिलाकर कुल संख्या, कुल वार्ड मेम्बरों का 60 प्रतिशत होती है।

यह प्रमाण है कि वार्ड मेम्बरी का किसी को आकर्षण नहीं है। जबकि हक़ीक़त यह है कि पंचायतीराज अधिनियम जो भी शक्तियां, अधिकार अथवा कर्तव्य प्रदान करते हैं, वे पंचायत नाम की संस्था के होते हैं; न कि किसी एक व्यक्ति अथवा पद के। इस नाते, पंचायत को प्राप्त सभी कर्तव्य व अधिकारों में पंचायत सदस्य का भी साझा होता है।
पंचायतीराज विषय के राष्ट्रीय ख्यातिनाम विशेषज्ञ डाॅ. चन्द्रशेखर प्राण कहते हैं कि वार्ड मेम्बर, कोई महत्वहीन पद नहीं है। पंचायतों के संविधान के अनुच्छेद 243 (ग) 2, सदस्यों को चुने बगैर तीनों स्तर की पंचायतों के गठन की इज़ाजत नहीं देता। कई राज्यों में वार्ड मेम्बरों में से ही किसी एक को प्रधान चुना जाता है। उसका चुनाव, वार्ड मेम्बर के ही वोट से होता है।  

पांच भूमिकाएं


73वां संविधान संशोधन, वार्ड मेम्बरों को पांच महत्वपूर्ण भूमिकाएं प्रदान करता है: ग्राम पंचायत सदस्य, वार्ड सदस्य/वार्ड अध्यक्ष, न्याय पंचायत सदस्य/न्याय पंचायत प्रमुख, स्थाई समिति सदस्य/सभापति तथा ग्राम पंचायत विकास योजना का मुख्य सहयोगी की भूमिका।

ग्राम पंचायत सदस्य की भूमिका
उत्तर प्रदेश पंचायतीराज नियमावली का नियम-72 के तहत् पंचायत सदस्य चाहे तो पंचायत के किसी भी कार्य, दस्तावेज़, लेख, रजिस्टर, प्रस्ताव तथा संस्थागत मसले का निरीक्षण कर सकता है। पंचायतीराज अधिनियम की धारा-26, ग्राम पंचायत सदस्य को पंचायत की बैठक में प्रस्ताव पेश करने का अधिकार देती है। सदस्य चाहे तो प्रधान व संबंधित प्रशासन से प्रश्न पूछ सकता है। धारा-28, पंचायत सदस्य को भारतीय दण्ड संहिता-21 के अंतर्गत ’लोकसेवक’ का दर्जा देती है। यह दर्जा, उन सभी अधिकार प्राप्त पदाधिकारियों तथा चुने हुए प्रतिनिधियों को प्राप्त होता है, जो शासन संचालन में शामिल होते हैं। क्या यह कम महत्वपूर्ण दर्जा है ?

वार्ड सदस्य/वार्ड अध्यक्ष की भूमिका
जिन राज्यों में वार्ड सभा की व्यवस्था है, वहां वार्ड सदस्य, वार्ड सभा का पदेन अध्यक्ष होता है। वार्ड अध्यक्ष के रूप में वार्ड की बैठक बुलाना, योजना बनाना तथा वार्ड के मसले पर ग्रामसभा में निर्णय कराने की भूमिका दूसरी है। यह भूमिका सुनिश्चित करती है कि पंचायती विकास के क्रम में कोई वार्ड छूटे न। यह नहीं कि एक वार्ड में बहुत काम हो, एक अन्य में बिल्कुल नहीं।

न्याय पंचायत सदस्य/न्याय पंचायत प्रमुख की भूमिका

दुर्योग से उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार ने तो यह कहकर प्रदेश में न्याय पंचायतों को खत्म कर दिया कि गांव के लोग अपने बारे में निर्णय लेने में सक्षम नहीं है। किंतु बिहार, हिमाचल समेत जिन राज्यों में न्याय पंचायत है, वहां वार्ड मेम्बरों में से ही न्याय पंचायत के सदस्य व मुखिया चुने जाते हैं। गांवों को थाने, कचहरी के चक्कर से बचाने तथा सद्भाव कायम करने में न्याय पंचायतों की भूमिका अनोखी है। यह तीसरी भूमिका है। गांवों को आज इसकी बड़ी ज़रूरत है।

स्थाई समिति सदस्य/सभापति की भूमिका

चौथी भूमिका, ग्राम पंचायत की स्थाई सभाओं के सदस्य और सभापति के रूप में है। यह तीसरी भूमिका, ख़ास तौर पर समाज सेवा के इच्छुकों को मनोनुकूल विषय पर काम करने की आज़ादी देता है। उन्हे जननायक बनाता है। इस भूमिका में दानदाताओं का बंधक बनने तथा खर्च-पूर्ति के लिए बेईमान हो जाने की विवशता नहीं है। यह भूमिका आपको अपनी जड़ों से जुड़े रहते हुए उन्हे सींचने… समृद्ध करने का अवसर देती है। अपनी घर-गृहस्थी के लिए कुछ और करते हुए भी आप इस भूमिका को निभा सकते हैं।
गौर कीजिए कि पंचायती कार्यों के सम्पादन के लिए, हर ग्राम पंचायत में समितियां गठित की जाती हैं।
वर्ष 2002 में बनाई नियमावली के अनुसार, उत्तर प्रदेश में छह समितियों  के गठन का प्रावधान है। इनमें से नियोजन व विकास समिति  तथा प्रशासन समिति…इन दो का सभापति प्रधान होता है। शिक्षा समिति का सभापति, उपप्रधान होता है। निर्माण कार्य समिति, जल प्रबंधन समिति तथा स्वास्थ्य एवम् कल्याण समिति…इन तीन समितियों के सभापति वार्ड सदस्यों में से चुने जाते हैं। चुनाव कैसे हो ? यह स्वयं ग्राम पंचायत सदस्यों को ही तय करना होता है।
प्रत्येक समिति में एक सभापति व छह सदस्य होते हैं। इस प्रकार, प्रत्येक वार्ड सदस्य, कम से कम तीन समितियों का सदस्य तो होता ही है। जिसकी रुचि जिस विषय पर काम करने की हो, वह अपने को उस समिति सदस्य/सभापति के रूप में चुने जाने की आकांक्षा प्रस्तुत कर सकता है।
गौर कीजिए कि प्रत्येक माह समिति की बैठक करना तथा संबंधित निर्णय लेना… ये सब समिति के अधिकार में हैं। अलग-अलग राज्यों में इनकी संख्या, नाम, गठन के नियम व अधिकारों में भिन्नता संभव है। किंतु सभी राज्यों में ये समितियां, केन्द्र व राज्य द्वारा तय सभी विषयों के अतंर्गत आने वाले सभी 29 कार्यों का निर्वहन करती हैं। इस तरह ये समितियां, गांव सरकार के मंत्रालय सरीखी हैं। यहां करने के लिए कार्य है। निर्णय लेने के लिए अधिकार है। कोष है। कई राज्यों में संबंधित कर्मचारी भी पंचायतों के अधीन हैं।

भूमिका लोकतांत्रिक बुनियाद बुनने की

ग्राम पंचायत विकास योजना निर्माण में ज़रूरत के चिन्हीकरण में वार्ड मेम्बर की पांचवीं भूमिका महत्वपूर्ण है ही। वार्ड मेम्बर, यदि संजीदा, सक्रिय और सद्भावपूर्ण हों तो निष्क्रिय पड़ी ग्रामसभा को पंचायती लोकतंत्र की नींव का सबसे सशक्त सहभागी बना सकते हैं। पंचायती भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा सकते हैं। विकास योजनाओं का लाभ, सही ज़रूरतमंद तक पहुंचा सकते हैं। एकल नेतृत्व की भूमिका में आ चुकी पंचायतों को सामूहिक नेतृत्व का लोकतांत्रिक जयमाल पहना सकते हैं। पंचायतों को आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय का कारगर औजार बना सकते हैं। आखिरकार, ये ही तो वेे अपेक्षाएं और दायित्व हैं, जिनकी पूर्ति की अपेक्षा संविधान ने पंचायतों से की है।

सेवा संभव, शर्त एक


कहना न होगा कि वार्ड मेम्बर के रूप में चुना जाना, एक लोकसेवक के रूप में भूमिका निभाने के लिए सभी ज़रूरी परिस्थितियां प्रदान करता है। यह कोई सपना नहीं, संविधान प्रदत अवसर है। इसे ज़मीन पर उतारा जा सकता है। फिलहाल, वार्ड मेम्बरी का कोई आकर्षण न होने के कारण, इस अवसर को हासिल करना कोई मुश्किल भी नहीं है।
बस, एकमात्र शर्त यह है कि पंचायती चुनावों को दलों के ठप्पों से मुक्त रखा जाए। मुक्त रखने का एक तरीका है कि विधान बनाकर इस पर रोक लगा दी जाए। दूसरा तरीका है कि मतदाता दलों के ठप्पे अथवा समर्थन से चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों का बहिष्कार कर दें।


गांव के सभी मतदाता, ग्रामसभा के संवैधानिक सदस्य होते हैं। वे ग्रामसभा की बैठक बुलाने की मांग करें। पंचायत भंग होने की अवस्था में पंचायत प्रशासक की भूमिका एडीओ (पंचायत) और ज़िलाधिकारी की होती है। एडीओ (पंचायत) को लिखें। ज़िलाधिकारी को प्रतिलिपि भेजें। वे न बुलाएं, तो ग्रामसभा सदस्य खुद बैठक आयोजित करें। निर्णय लें। पंचायती चुनावों को दलों के दलदल से बाहर निकालें। पंचायती गतिविधियों को दलगत् राजनीति से दूर ही रखें।
बेहतर हो कि ग्रामसभाएं प्रधान नहीं तो कम से कम सदस्यों के नाम खुद तय करें। उन्हे सर्व सम्मति से चुनें; सही मायने में निर्विरोध। जिन्हे चुनें उनके समक्ष अपने सपने के गांव के आगामी पांच वर्ष का साझी चाहत रखें। उम्मीदवारों से उसकी पूर्ति का शपथपत्र लें। उम्मीदवारों को ग्रामसभा के प्रति जवाबदेह बनाएं। अवसर आए तो पूर्ण सहयोग करें। विपरीत हो तो सम्पूर्ण सत्याग्रह।


इससे पंचायतें लोकतांत्रिक आकार लेने की दिशा में अग्रसर तो होंगी ही। पंचायतों में प्रशासन का हस्तक्षेप स्वतः घटता जाएगा। पंचायती चुनावों ने जो सद्भाव तोड़ा है, वह जुड़ने लगेगा। खांचों में बंटे गांव एकजुट होंगे। कई कदम वापस लौटेंगे।…. तब शायद गांवों में न किसी एनजीओ की ज़रूरत शेष न रहे और न किसी सीएसआर कोष (काॅरपोरेट सोशल रिसपाॅन्सिबलिटी फण्ड) की। जब गांव सही मायने  में  स्वयं सरकार होगा, तो बाज़ार को अपने नियंत्रण में लाने की चाबी भी गांव के हाथ में होगी।


आगे चलकर यही प्रयोग नगर सरकारों में भी दोहराएं जाएं। सबसे पहले नगर निगमों और पालिकाओं का पुछल्ला बदलकर उन्हे नगर सरकार लिखना शुरु करें। ‘दिल्ली नगर निगम’ की जगह ’दिल्ली नगर सरकार’। दल नहीं, स्थानीय आवासीय समितियों के पदाधिकारी मिलकर सर्व सम्मति से पार्षद पद का उम्मीदवार तय करें। समिति सदस्य उन्हे भारी बहुमत से जिताएं। नगर सरकारों को भी दलगत राजनीति के चरित्र से न कराएं। नागरिक अपने विकास का घोषणापत्र खुद बनाएं। खुद क्रियान्वित करें। खुद ऑडिट  करें। खुद सुधारें। कितना अच्छा होगा यह !!

कृपया इसे भी देखें : गांधी जी का रास्ता


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