पाब्लो नेरुदा : पिता के डर से बदल लिया नाम

पाब्लो नेरुदा
पंकज प्रसून वरिष्ठ पत्रकार

पाब्लो नेरुदा एक साथ कवि, राजनयिक और कम्युनिस्ट नेता थे।उनका वास्तविक नाम नेफ्ताली  रिकार्दो रेइस बासुआलतो था।

उनका जन्म 12 जुलाई 1904 को चीले के मामले इलाके में स्थित पारराल में हुआ था।

अपने पिता की नाराज़गी से बचने के लिये उन्होंने अपना नाम बदल कर पाब्लो नेरुदा रख लिया था।

जब चीले के तत्कालीन राष्ट्रपति गाब्रिएल गोंजालेज विडेला ने 1948 में कम्युनिस्ट पार्टी को प्रतिबंधित कर दिया तो नेरुदा की गिरफ्तारी का वारंट जारी कर दिया। जिससे बचने के लिये वे बंदरगाह वाले शहर वालपाराइसो के एक मकान के बेसमेंट में छुप गये थे। वहां से भाग कर अर्जेंटीना पहुंच गये।

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फिर चीले के पहले कम्युनिस्ट राष्ट्रपति सालवादोर आयंदे के निकटवर्ती सलाहकार के रूप में अपने देश वापस आये।

सन्1971में उन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला।

वे अपनी कविताओं में चीले की नाटकीय सुषमा का बयान करने के साथ-साथ दमन के विरुद्ध मूल वासियों को क्रांति करने का आवाहन भी करते हैं।

नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद साल्वादोर आयंदे ने उनके सम्मान में राष्ट्रीय स्टेडियम में एक समारोह आयोजित किया जहां 70,000 लोग मौजूद थे।

सितंबर 1973 में उन्हें प्रोस्टेट कैंसर हो गया। उन्हीं दिनों चीले में सैनिक क्रांति हो गयी और औगोसतो पिनोशे डॉ आयंदे की हत्या कर सत्ता पर काबिज़ हो गया।

नेरुदा स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे और 23  सितंबर1973 को सांतियागो के अस्पताल से अपने घर जाने की तैयारी कर रहे थे कि उनकी मृत्यु हो गई।कहां जाता है कि पिनोशे के आदेश पर डाक्टर ने ज़हर की सूई देकर उन्हें मार डाला।

पीनोशे ने उनकी अंत्येष्टि में लोगों को शामिल होने की अनुमति नहीं दी लेकिन उसकी अवहेलना करते हुए चीले के हजारों लोग उसमें शामिल हुए।

नेरुदा को चीले का राष्ट्रीय कवि माना जाता है। उनकी रचनाएं संसार भर में लोकप्रिय हैं। कोलंबिया के मशहूर

उपन्यासकार गाब्रिएल मारकुस ने कहा था कि नेरुदा बीसवीं सदी में संसार की किसी भी भाषा के सबसे महान कवि थे।

प्रस्तुत है नेरुदा की एक कविता का हिंदी अनुवाद:

  मैं चला सितारों के साथ

और उस उम्र में वह……कविता आयी

मुझे ढूंढती, नहीं जानता था मैं

मुझे पता नहीं वह कहां से आती —

जाड़े के मौसम से

या नदी से

मैं नहीं जानता कैसे या कब

न, वे सिर्फ ध्वनियां नहीं थीं

वे शब्द नहीं थे

न मौन

सड़क पर से मुझे आया बुलावा

रात की शाखाओं से

अचानक

दूसरों के बीच से

हिंसक अग्नि कांड में

या आते वापस अकेले

वहां मैं था बग़ैर चेहरे का

और छू लिया उसने मुझे

मेरी समझ में कुछ नहीं आया

कि कहूं क्या

मुंह में शब्द नहीं थे

आंखों में दृष्टि नहीं थी

फिर शुरू हो गया

कुछ मेरी आत्मा में

ताप या बिसरे पंख

तब बना ली मैंने खुद अपनी राह

चीन्हते हुए उस आग को

और तब मैंने लिखी पहली अस्पष्ट पंक्ति

ढीली, बेमतलब, शुद्ध बकवास

पूरी चालाकी उसकी

जो कुछ जानता नहीं

और अचानक मैंने देखा

कि आसमान का खुल गया बंधन

और उससे निकल पड़े ग्रह

धड़कते क्षरणीकरण की

 छिद्रित छाया

पहेलियां बन कर

तीर,आग और फूलों से

लिपटी हुई रात, ब्रह्मांड

और मैं?

क्षुद्र इंसान

नशे में

विशाल तारक शून्य के रहस्य की

 छवि से निकलता…

खुद को महसूस किया

अंतर गर्त का हिस्सा

मैं चला सितारों के साथ

मेरा दिल हो गया आज़ाद

खुले आसमान में…

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