सारे अफ़सर ,एल. के.जोशी जैसे नहीं हो सकते
श्र्द्धांजलि
भारतीय प्रशासनिक सेवा के (मध्य प्रदेश कैडर) के 1970 बैच के आईएएस अधिकारी ललित कुमार जोशी का गत रात दिल्ली में निधन हो गया। स्वर्गीय एलके जोशी मध्यप्रदेश , उत्तर प्रदेश और भारत सरकार में विभिन्न पदों पर रहे हैं। वे मध्य प्रदेश जनसंपर्क विभाग में आयुक्त और प्रमुख सचिव के पद पर भी रहे. स्वर्गीय जोशी ने उत्तर प्रदेश राज भवन लखनऊ में भी गवर्नर मोती लाल वोरा के साथ कार्य किया था. वह अत्यंत सरल स्वभाव के और विद्वान थे. वह पत्रकारों को सूचनाएँ संकलन करने में सहयोग के लिए सदैव तत्पर रहते थे. उनके पास संदर्भ सामग्री का ख़ज़ाना रहता था. वे भारत सरकार में कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के सचिव पद से सेवानिवृत्त हुए थे. श्री जोशी पिछले कई वर्षों से कैंसर से पीड़ित थे। पिछले एक माह से वे ज्यादा अस्वस्थ थे . सेवानिवृत्ति के पश्चात वे दिल्ली में ही रह रहे थे। इंदौर से वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग ने यह श्र्द्धांजलि लेख भेजा है.
श्रवण गर्ग,
पूर्व सम्पादक दैनिक भास्कर एवं नई दुनिया
एल.के.जोशी जी के चले जाने का अगर ईमानदारी के साथ दुःख मनाना है तो स्मृतियों के एक ऐसे बियाबान में लौटाना होगा जिसकी कि सारी की सारी पगडंडियों और ठिकानों को वक्त की धूल निगल चुकी है।जोशी जी को याद करने का मतलब है भोपाल में बाणगंगा स्थित जनसम्पर्क कार्यालय के उस पुराने ढाँचे में सुबह-सुबह पहुँचना जहां लगभग सात-साढ़े सात बजे भी लज्जा शंकर हरदेनिया जी या दाऊलाल साखीजी जैसी कोई शख़्सियत जोशीजी के कमरे में चाय पीती हुई मिल जाए।या फिर रात के समय चार इमली स्थित उस बंगले पर पहुँचना जिसका कि कोई ड्रॉइंग रूम नहीं था।सीढ़ियाँ पार करके उस बैठक में सीधे पहुँच सकते थे जहां राजकुमार केसवानी ,एन.के.सिंह या चंद्रकांत नायडू से मुलाक़ात हो सकती थी।वहाँ पर बात चलती थी डॉक्टर शुक्ला की नई पेंटिंग की या ओ.पी.दुबे साहब की या फिर संगीत की, नयी किताबों की या फिर उन अच्छे इंसानों की जिनके कि क़िस्से जोशी जी निहायत ही संजीदगी और कभी-कभी ह्यूमर के साथ सुनाते थे।जन सम्पर्क की कोई बात नहीं होती थी वहाँ।
जोशीजी को याद करना हो तो स्व.महेश नीलकंठ बुच और मैडम निर्मला बुच के क़रीब भी लौटना होगा।बुच साहब की आत्मीयता और प्रशासकीय ईमानदारी को जोशीजी में अच्छे से टटोला जा सकता था।दोनों के बीच रिश्ते भी अद्भुत थे।
मैं सितम्बर 1986 में एम पी क्रॉनिकल अंग्रेज़ी दैनिक में काम करने भोपाल पहुँचा था तब मोतीलाल वोरा जी मुख्यमंत्री थे।जोशीजी उनकी एक बहुत बड़ी ताक़त थे।जोशी जी से मेरा परिचय तभी हुआ था और वर्ष 2012 में मेरे दिल्ली छोड़ने तक नज़दीक का बना रहा।वे मुझसे कोई साढ़े तीन महीने बड़े थे पर सम्मान एक बड़े भाई जैसा ही देते थे। तीन साल भोपाल रहने के बाद मैं फ़्री प्रेस का सम्पादक होकर 1989 में इंदौर आ गया पर जोशी जी के साथ सम्बंधों में कोई कमी नहीं हुई।वे जब भी भोपाल से इंदौर आते ,उनकी फ़रमाइश पहले से पहुँच जाती कि संवाद नगर के घर आकर अलग-अलग तरह के पराठे ज़रूर खाएँगे।कुछेक बार श्रीमती जोशी को भी वे साथ ले आते थे।वे इंदौर आएँ और मिलें नहीं, ऐसा कभी नहीं हुआ।
जोशी जी को जन सम्पर्क विभाग चलाना नहीं पड़ता था।पत्रकारों को साधना या सरकार की तारीफ़ में लिखवाने या आलोचना नहीं करने के लिए कभी कुछ कहना नहीं पड़ता था।जो भी पत्रकार उनके सम्पर्क में आता था उनकी विनम्रता और सहृदयता का एक पाठक बनकर उनसे हमेशा के लिए जुड़ जाता था।मध्य प्रदेश सरकार के जन सम्पर्क विभाग में उनके जैसे लोग बहुत ही कम हुए हैं।मसलन सुदीप बनर्जी, सुनील कुमार ,ओ.पी .रावत जैसे कुछ लोग।ये सब एक ही मिज़ाज के अफ़सर थे।इन लोगों की योग्यता और प्रतिबद्धता को कहीं से चुनौती नहीं दी जा सकती थी।यही कारण रहा कि पहले बनर्जी और अब जोशी जी के चले जाने के बाद ऐसा लग रहा है कि कोई बहुत नज़दीक का व्यक्ति हमें छोड़कर चला गया है।अगर किसी को भी इन सब लोगों के साथ आत्मीयता भरे क्षण बिताने का अवसर मिला हो तो उसकी व्यथा की शब्दों में अभिव्यक्ति तो और भी मुश्किल काम है।ईश्वर ,जोशी जी की आत्मा को शांति प्रदान करे।