भाजपा मुक्त सरकार : कितना कारगर होगा नीतीश कुमार का मेन फ्रंट

कल्याण कुमार सिन्हा

Kalyan Kumar Sinha
कल्याण कुमार सिन्हा
वरिष्ठ पत्रकार

सियासत गठबंधन की : थर्ड फ्रंट..?… नहीं, नहीं – ‘मेन फ्रंट’…नाम है तो बहुत कुछ है. अब इसी नाम के सहारे एनडीए की नरेंद्र मोदी सरकार के विरुद्ध बड़ी लड़ाई होनी है. मेन फ्रंट की यह अवधारणा गठबंधन की राजनीति के बड़े खिलाड़ी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के उर्वर दिमाग की उपज है. एक सशक्त गठबंधन को नई ताकत देने की उनकी स्ट्रैटेजी का नाम है. उन्हें भरोसा है कि यही नाम- ‘मेन फ्रंट’, अगले 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा मुक्त सरकार बनाने के विपक्ष के सपनों को नई उड़ान देगा.

नीतीश कुमार ने अपने अभियान का प्रारंभिक चरण पूरा कर लिया है. वे हाल के नई दिल्ली दौरे में कांग्रेस नेता राहुल गांधी, आम आदमी पार्टी नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी नेता सीताराम येचुरी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी महासचिव डी. राजा, हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला, कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी के साथ-साथ शरद पवार से भी मिल आए हैं. नीतीश बाबू प्रसन्न हैं, मतलब उनका मेन फ्रंट अभियान सफल रहा.

अभी पिछले ही दिनों ऐसा ही गठबंधन बनाने की मंशा लेकर तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर रेड्डी (केसीआर) पटना आए थे. लेकिन उनके ‘कांग्रेस मुक्त और कम्युनिस्ट मुक्त’ विपक्षी गठबंधन की पेशकश नीतीश बाबू को रास नहीं आई. कुछ ही माह पूर्व ऐसा ही पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का प्रयास विफल हो गया था, जब महाराष्ट्र के बड़े नेता एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार ममता बनर्जी से सहमत नहीं हो पाए थे. इसके साथ ही ममता दीदी चुप बैठ गईं. शरद पवार तो विपक्षी गठबंधन के लिए हमेशा तैयार बैठे रहते हैं. लेकिन उनकी पहल ऐसे ही दूसरे नेताओं पर निर्भर रही है.

केसीआर की तरह ममता बनर्जी को भी कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों से दुराव जगजाहिर है. दोनों ही इन पार्टियों का दंश झेल चुके हैं. इस कारण इन दलों से उनका खुन्नस भी स्वाभाविक है. अंतत:, चाहे केसीआर हों या ममता बनर्जी सब ‘भाजपा मुक्त’ भारत का सपना देख रहे हैं और कांग्रेस से बात नहीं कर रहे. दोनों के बीच के खुन्नस को दूर करने में नीतीश सफल होंगे. नीतीश बाबू को भरोसा है, वे केसीआर और ममता बनर्जी को भी मेन फ्रंट में शामिल कर लेंगे.

देश में 1978 से केंद्र में जनता दल के नाम पर गठबंधन सरकार का जो दौर चला, उसमें नीतीश बाबू गठबंधन की राजनीति के सबसे सफल खिलाड़ी रहे हैं. बिहार में इस प्रयोग के बूते बार-बार सत्ता हासिल कर विपक्षी दलों में अपने ‘पीएम मटेरियल’ की छवि को स्थापित तो वे कर चुके हैं. हालांकि अपने इस ताजा अभियान में वे अपने को विपक्ष के भावी प्रधानमंत्री कैंडिडेट कहलाने से बचते नजर आए.

2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा और नरेंद्र मोदी का मुकाबला आसान नहीं है. लेकिन विपक्ष एकजुट हुआ तो यह असंभव भी नहीं है. नीतीश कुमार के मेन फ्रंट में कांग्रेस भी होगी, कम्युनिस्ट भी होंगे, ममता बनर्जी भी होंगी, शरद पवार, केसीआर, अरविंद केजरीवाल, चौटाला और एचडी कुमारस्वामी के साथ-साथ अन्य क्षेत्रीय पार्टियां भी होंगी. लेकिन, नीतीश कुमार के प्रयास सफल रहे तो कांग्रेस को छोड़ दें, तो भी उनके मेन फ्रंट में 3-4 पीएम पद के उम्मीदवार, यानी चार-चार ‘पीएम मैटेरियल’ तो होंगे ही.

लेकिन नीतीश मुतमईन हैं कि यदि मेन फ्रंट का उनका सपना साकार हुआ तो ‘फ्रंट का प्रधानमंत्री कैंडिडेट कौन’ हल कर लिया जाएगा. 1975 में इंदिरा गांधी की ताकतवर कांग्रेस सरकार को हराने के बाद पीएम के रूप में बीपी सिंह का चयन इसका उदाहरण है. लेकिन मेन फ्रंट की अगुवाई का मसला, पहला होगा. इसमें नीतीश कहां होंगे, अन्य दिग्गजों को कौन सा स्थान मिलेगा… यह मुद्दे भी हल होने हैं.

पटना में नीतीश बाबू की पार्टी जदयू के होर्डिंग में बड़े-बड़े शब्दों में लिखा है कि ‘प्रदेश में दिखा अब देश में दिखेगा’. जाहिर है, नीतीश भले ही कहें, वे प्रधानमंत्री के कैंडिडेट नहीं हैं, लेकिन उनके लोग तो चाहते हैं. लेकिन इसमें जो पेंच है, वह उनके लोग भले न समझें, नीतीश भली-भांति समझते हैं. जानकारों का मानना है कि “2024 में भी बिहार में इसी मेन फ्रंट के साथ नीतीश चुनाव में उतरेंगे तो उन्हें बिहार की 40 सीटों में से अधिकतम 15 सीटें ही लड़ने के लिए मिलेंगी. अगर वे सारी भी जीत जाते हैं तो 15 सांसदों के साथ पीएम बनने का सपना नहीं देख सकते.”

फिर भी, यदि बीपी सिंह, चौधरी चरण सिंह, एच.डी. देवगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल और चंद्रशेखर जी के पीएम बनने का उदाहरण सामने रखें तो नीतीश जी के लोगों की चाहत में दम जरूर नजर आएगा. लेकिन एक बार उन नेताओं और उनके दलों के पूर्व चुनावी प्रदर्शन पर भी नजर डाल लें, जिन्हें मेन फ्रंट में लाकर भाजपा और नरेंद्र मोदी की ताकत से वे भिड़ने की रणनीति बनाने वाले हैं-

पहले नीतीश कुमार : नीतीश बाबू को पता है, 2019 लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी जदयू 16 सीटें जीती थीं और उन्हें 1.45 फीसदी वोट मिले थे. इस बार भी वे खुद बिहार के मुख्यमंत्री हैं. जहां उनकी पार्टी आरजेडी और कांग्रेस के और चार पार्टियों (कुल सात) के साथ मिलकर सरकार में है. चुनाव में इन सहयोगियों से भी सीटें साझा करनी पड़ेंगी. सरकार में शामिल आरजेडी, कांग्रेस और माकपा के साथ भाकपा भी हिस्सेदार बनेंगी. अन्य सहयोगी दल भी हिस्सा चाहेंगे.

राहुल गांधी

राहुल गांधी और कांग्रेस की ताकत की बात करें तो कांग्रेस ने 2019 में 52 सीटें जीती थी. देशभर में उनका वोट प्रतिशत 19.46 फीसदी था. फिलहाल कांग्रेस राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पूर्ण बहुमत की सरकार चला रही है. जबकि बिहार, झारखंड और तमिलनाडु में वो गठबंधन की सरकार में शामिल हैं. हालांकि उनसे ही रुष्ट कांग्रेस से उनके कई बड़े नेता पार्टी छोड़ अलग हो गए. देखना है, ‘भारत जोड़ो’ पद यात्रा से वे अपनी छवि को कितना सुधार पाते हैं. छवि सुधरने का अहसास हुआ तो वे कौन सा करवट लेंगे, यह भी देखने वाली बात होगी.

अरविंद केजरीवाल

अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी दिल्ली में प्रचंड बहुमत की सरकार चला रही है. पंजाब में भी उनकी पूर्ण बहुमत की सरकार है, लेकिन लोकसभा में फिलहाल उनकी संख्या जीरो है. 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने एक सीट जरूर जीती थी. लेकिन उपचुनाव में हार के साथ संख्या जीरो हो गई. अरविंद केजरीवाल की पार्टी को 2019 के लोकसभा चुनाव में 0.44 फीसदी वोट मिले थे. दिल्ली और पंजाब के अलावा अन्य राज्यों में उनका जनाधार और संगठन दोनों ही नहीं है. गुजरात, उत्तराखंड और गोवा में संगठन खड़े करने की तैयारी जारी है.

शरद पवार

शरद पवार ने चुनावी राजनीति से अपने को अलग कर लिया है. वे किंगमेकर की भूमिका चाहते हैं. लेकिन भाजपा के मुकाबले विपक्षी गठबंधन को अपनी पार्टी का विशेष योगदान देने में असमर्थ हैं. 2019 में एनसीपी 4 सीटें जीत कर अपने 2014 के नतीजे को बरकरार रख पाई थी. 48 लोकसभा सीटों वाले राज्य में भाजपा-शिवसेना गठबंधन 41 सीटें जीतने में सफल रहा. मौजूदा हालत यह हैं की भाजपा से अलग हुई उद्धव ठाकरे की शिवसेना के सांसद भाजपा के साथ वाले शिंदे की शिवसेना में आते जा रहे हैं. कांग्रेस मात्र एक सीट ही जीत पाई थी.

ममता बनर्जी

ममता बनर्जी के पश्चिम बंगाल से लोकसभा की 42 सीटें हैं. उनमें से उनकी पार्टी तरुण मूल कांग्रेस के पास 23 सीटें हैं. वे पश्चिम बंगाल में अपने बूते ही सत्ता में हैं. अपने राज्य में भाजपा को कड़ी टक्कर दे रही हैं.

केसीआर

वहीं के.चंद्रशेखर राव के तेलंगाना से लोकसभा की 17 सीटें हैं. 2019 में केसीआर की पार्टी के पास नौ और भाजपा को चार सीटें वहां मिली थीं. तेलंगाना में वे भी अपने बूते ही सरकार चला रहे हैं.

सीताराम येचुरी

सीताराम येचुरी जैसे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेता राष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग से हो गए हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी 3 सीटें जीती थीं और उन्हें 1.75 प्रतिशत वोट मिले थे. फिलहाल सीपीआईएम की केरल में पूर्ण बहुमत की सरकार है.

डी. राजा

डी.राजा की भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव हैं. उनकी पार्टी ने लोकसभा चुनाव 2019 में 2 सीटों पर जीत दर्ज की थी. और उन्हें 0.58 प्रतिश वोट मिले थे. बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार में वो भी शामिल हैं.

एचडी कुमारस्वामी

एचडी कुमारस्वामी कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री हैं. उनकी पार्टी जेडीएस ने 2019 लोकसभा चुनाव में 1 सीट जीती थी और उन्हें 0.56 फीसदी वोट मिले थे. पूर्व पीएम एचडी. देवगौड़ा की पार्टी फिलहाल किसी राज्य में सत्ता में नहीं है.

ओमप्रकाश चौटाला

हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला की पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल को 2019 के लोकसभा चुनाव में कोई सीट नहीं मिली थी. उनकी पार्टी को मात्र 0.04 फीसदी वोट मिले थे. फिलहाल उनके पास हरियाणा में मात्र एक विधायक है.

नीतीश और उपरोक्त सभी नेताओं का साझा उद्देश्य है, 2024 में केंद्र में ‘भाजपा मुक्त सरकार’ लाना. लेकिन सवाल है कि क्या विपक्ष नीतीश को पीएम उम्मीदवार के तौर पर स्वीकार करेगा और उनका नाम इस पद के लिए आगे करेगा? क्या राहुल गांधी, ममता बनर्जी या अरविंद केजरीवाल पीएम पद के बेहतर कैंडिडेट नहीं हैं? विपक्ष में पीएम पद की उम्मीदवारी में ये सभी एक दूसरे के मुकाबले में कहां ठहरते हैं?

नीतीश की कवायद अगर मूर्त रूप लेती है तो मेन फ्रंट में कांग्रेस के अलावा एनसीपी, आम आदमी पार्टी, राजद, सपा, टीआरएस, टीएमसी, डीएमके, दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां, जेडीएस, हम, जदयू और शिवसेना शामिल हो सकती हैं.

लेकिन जिस भाजपा से यह टक्कर लेने वाली हैं. उनकी ताकत और उनके जनाधार का आंकड़ा बहुत भरोसा नहीं दिलातीं. और अभी 2024 तो दूर है. क्षेत्रीय दलों को इस बीच भाजपा जिस प्रकार रौंद रही है, चुनाव आते-आते उनका क्या होगा, कितना बचेंगी, यह कहना अभी मुश्किल है.

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