नेपाल : भारत पर तोहमत,सरकार बचाने को ओली का ब्रम्हास्त्र

यशोदा श्रीवास्तव

नेपाल में सत्ता की खींच तान फिर शुरू है। इस नन्हें राष्ट का दुर्भाग्य है कि गणराज्य हासिल होने के बाद इसे किसी एक दल के संपूर्ण बहुमत की सरकार नसीब नहीं हुई। नतीजतन यहां सरकार सरकार का खेल एक राजनीतिक परंपरा बन गई। करीब तीन साल पहले नेपाल में लोकतांत्रिक संविधान लागू होने के बाद केंद्रीय प्रतिनिधि सभा की 165 सीटों के लिए पहला आम चुनाव हुआ था।केपी शर्मा ओली और प्रचंड मिलकर चुनाव लड़े थे जिन्हें बहुमत हासिल हुआ था। केंद्रीय सरकार में प्रचंड और ओली के बीच ढाई ढाई साल सरकार चलाने का करार था।

 आम चुनाव के ठीक पहले प्रचंड नेपाली कांग्रेस का साथ छोड़कर ओली के कम्युनिस्ट पार्टी के साथ जा मिले थे। बाद में अपने नेतृत्व वाली माओवादी पार्टी का विलय ओली के कम्युनिस्ट पार्टी में कर लिया। अभी वे इस पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष हैं। चुनाव के पहले तक प्रचंड और नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देउबा की सांठगांठ की सरकार थी। काफी संभावना थी कि आम चुनाव में प्रचंड और नेपाली कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़ेंगे। प्रचंड का ओली के साथ मिल जाने से नेपाल के दिग्गज राजनीतिक विश्लेषक भी चौंक गए थे। इस चुनाव में ओली के भारत विरोध का जादू पहाड़ के मतदाताओं में खूब चला जिसका लाभ प्रचंड के गुट को भी मिला। ओली के नेतृत्व में सरकार बनी तो कुछेक मधेसी दल भी ओली सरकार के साथ आ मिले। नेपाल में मधेसी दलों का हाल यह है कि सत्ता की मलाई के लिए ये जिसके खिलाफ लड़ते हैं,सरकार बनने की स्थित

में इन्हें उसके साथ मिलने में जरा भी एतराज नहीं होता। पिछले कई चुनाव में ऐसा देखा गया है।ओली सरकार के ढाई साल बीतने के बाद प्रचंड अपनी बारी की प्रतीक्षा बड़े ही धैर्य पूर्वक करते रहे कि इसी बीच ओली की तबियत बिगड़ गई। उन्हें अपने दूसरे किडनी के आपरेशन के लिए अस्पताल में दाखिल होना पड़ गया। अब प्रचंड के सामने चुपचाप और धैर्य रखने के सिवा कोई चारा नहीं था सो उन्होंने किया। करीब ढाई महीने बाद ओली स्वस्थ होकर सरकार चलाने की स्थित में आ गए। उम्मीद थी कि ओली स्वास्थ्य कारणों के बहाने प्रचंड को सत्ता सौंपने की घोषणा कभी भी कर सकते हैं। दिन, महीना बीतता रहा लेकिन न तो यह घड़ी आई और न ही ओली की ओर से कोई संकेत। ऐसे में प्रचंड की अकुलाहट समझा जा सकता है। प्रचंड और ओली के बीच कड़वाहट के बीज पड़ चुके थे कि लिंपियाधुरा, लिपुलेख तथा कालापानी का मामला सामने आ गया। नेपाल ने अपनी भारत विरोधी छवि को और पुख्ता दिखाने की गरज से भारत के इन क्षेत्रों को अपने नक्शे में दर्ज कर लिया। नेपाली संसंद में इसके लिए पेश प्रस्ताव का सभी सदस्यों ने समर्थन किया। चूंकि यह नेपाल के संप्रभुता का सवाल था इसलिए कोई भी दल इसका श्रेय केवल ओली को नहीं देना चाहता था। दरअसल नक्शा पारित करना ओली की राजनीतिक चाल थी। उन्हें उम्मीद थी कि

मधेसी दल और उनसे असंतुष्ट प्रचंड समर्थक सांसद इसके विरोध में होंगे तब अकेले देश भक्त बनकर उन्हें अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने का मौका मिलेगा। ओली की इस मंशा को मधेसी दल और प्रचंड गुट भांप चुका था लिहाजा नक्शे पर अपना समर्थन देकर ओली की चाल को नाकाम कर दिया। इसके बाद मधेशी सांसद सरिता गिरी का बयान काबिले गौर है कि नक़्शा  पास करा देने से कोई विवादित क्षेत्र अपना नहीं हो जाता। इसका समाधान सिर्फ बात चीत से ही संभव है।

इधर सत्ता जाने के भय से हताश ओली देश भक्ति का आवरण ओढ़ लिया है। अपनी सरकार बचाने के लिए भारत के विरोध मेंएक से एक उल्टे दांव चल रहे हैं जैसे हिंदी पर वैन,नेपाल एफएम रेडियो के जरिए भारत के खिलाफ दुष्प्रचार आदि। इस सबका कोई खास असर पड़ता न देख ओली ने अंतिम ब्रम्हास्त्र भी छोड़ दिया कि भारत उनकी सरकार गिराने की साजिश रच रहा है।भारतीय दूतसवास को भी लपेटे में ले लिया। अपनी सरकार बचाने के इतने सारे झूठ के बाद भी ओली अपनी सरकार बचा पाने को लेकर आश्वस्त नहीं हैं।

यह बताने की जरूरत नहीं है कि नेपाल का अस्तित्व भारत के बिना कुछ भी नहीं है। वह दुनिया के चाहे जितने देशों से चाहे वे भारत के दुश्मन देश क्यों न हों,देास्ती का हाथ बढ़ाए, भारत को कोई एतराज नहीं रहा, न है और न होग। आखिर पाकिस्तान से उसकी देास्ती पुरानी है, भारत ने कहां एतराज किया?जबकि वाया काठमांडू पाकिस्तान भारत के खिलाफ षडयंत्र रचता रहता है।

चीन से नेपाल की दोस्ती पुरानी है। भारत को कोई एतराज नहीं लेकिन नेपाल की कोई सरकार जब जब भारत के खिलाफ हुआ भारत से पहले उसे अपने देश में ही विरोध का सामना करना पड़ा। ओली के साथ भी यही हो रहा है। आखिर उनके अपनेही सांसद क्यों स्तीफा मांगने पर अड़ गए? फिलहाल ओली सरकार को लेकर नेपाल की जो ताजा हालात है वह बहुत असमंजसपूर्ण है। ओली यदि करार के मुताबिक प्रचंड को सत्ता नहीं सौंपते तोउन्हें अविश्वास का सामना कर पड़ सकता है।यह स्थित आने के पहले मुमकिन है वे प्रतिनिधिसभा भंग कर मध्यावधि चुनाव कराने की कोशिश करें। भारत पर तोहमत इसी दृष्टि से देखा जा रहा है।

 इधर प्रचंड ने सरकार बचाने के लिए ओली पर सेना केइस्तेमाल की बात कहकर ओली के पाकिस्तान की गोद में बैठने का अप्रत्यक्ष तौर पर बड़ा आरोप लगाया है। नेपाल में संभावित राजनीतिक उथलपुथल पर नेपाली कांग्रेस भी नजर गड़ाए हुए है। उसकी ओर से फिलहाल अभी कोई हलचल नहीं है लेकिन जरूरत पड़ने पर वह पूर्व के गिले शिकवे भुलाकर एक बार फिर प्रचंड का साथ दे सकती है। प्रचंड की छवि भी भारत विरोध की है लेकिन वे नेपाल के लिए भारत की अहमियत बखूबी समझते हैं। मौजूदा प्रतिनिधिसभा में सदस्यों का जो गणित है उसके अनुसार अभी प्रचंड गुट के 36 सांसद हैं,नेपाली कांग्रेस के 23 और मधेसी दलों के कुल 21 सांसद हैं। इस हिसाब से ओली विरोधी सांसदों की संख्या 80 होती है। जबकि ओली के एमाले के सांसद अकेले 80 हैं। 165 सदस्यीय प्रतिनिधि सभा में बहुमत के लिए 83 सांसद चाहिए। प्रचंड या किसी अन्य के नेतृत्व में नई सरकार बननेके लिए तीन और सांसदों की जरूरत होगी। अब काठमांडू राजनीतिक गलियारें की यह चर्चा यदि सत्य है कि ओली के अपने ही करीब एक दर्जन सांसद उनसे नाराज चल रहे हैं तो नई सरकार के गठने में कोई बड़ी बाधा नहीं है। लेकिन यह कब तक हो सकता है, इसके लिए थोड़ा इंतजार करना होगा।

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