तप कर सोना बने नीरज चोपड़ा

दबाव में नहीं बिखरे नीरज

अनुपम तिवारी , लखनऊ
अनुपम तिवारी , लखनऊ

तप कर सोना बने नीरज चोपड़ा . आज शाम ओलंपिक में 23 वर्षीय नीरज चोपड़ा जब भाला लेकर दौड़े, तो तमाम भावनायें, अनायास ही, चलचित्र की तरह करोड़ों भारतीयों के जेहन में चल रही होंगी. नीरज ने निराश नही किया, उसका भाला सीधा स्वर्ण पदक पर जा कर गिरा. यह अभूतपूर्व है. ट्रैक एंड फील्ड में भारतीयों द्वारा कभी भी कोई मेडल न जीत पाने की कसक कितनी बड़ी थी यह आज उनकी जीत के जश्न में साफ दिख रहा है जो पूरा देश एक साथ मना रहा है.

भले ही देश की जनता ने नीरज को आज देखा और जाना हो, जितने भी खेलप्रेमी, ओलंपिक प्रेमी हैं, उनके लिए टोक्यो में नीरज भारत की सबसे बड़ी उम्मीद थी. वह जूनियर स्तर से लगातार अच्छा करते आ रहे थे, एशियाड समेत तमाम बड़ी विश्व स्पर्धाओ मे तमगे हासिल कर चुके थे. खेलों के महाकुंभ यानी ओलंपिक को भी उनका जलवा देखना मात्र समय की बात लगती थी.

तप कर सोना बने नीरज चोपड़ा

आज नीरज, जीता, बड़ी शान से जीता, उसी परिपक्वता से जीता जिसके लिए वह अंतरराष्ट्रीय खेल जगत में जाना जाता रहा है. हाँ, अंतरराष्ट्रीय एथलेटिक्स में नीरज कोई छोटा मोटा नाम नही था, जूनियर स्तर से ही तमाम वैश्विक स्पर्धाओ में स्वर्ण जीतने वाला हरियाणा का यह युवक विशेष ही है.

आज उसने स्वर्ण पर भारत का नाम शुरुआत में ही लिख दिया था. पहली 2 कोशिशों ने ही यह बता दिया कि वह सर्वश्रेष्ठ है, जब तक कि कोई अन्य खिलाड़ी अतिमानवीय कारनामा न कर दे.

पहले 87 मीटर से ज्यादा और फिर 87.5 मीटर से ज्यादा दूर जेवलिन को फेंक कर नीरज ने फाइनल में स्पष्ट बढ़त बना ली, अन्य 11 प्रतिस्पर्धी अब सिर्फ इन बेंचमार्क्स तक पहुचने की जद्दोजहद में ही लगे रहे.

फाइनल में नीरज का दबदबा

बाकी खिलाड़ी तो सिर्फ दूसरे और तीसरे स्थान के लिए ही जैसे खेल रहे थे. यह होता है विश्व मे दबदबा. दूसरे स्थान पर रहा चेक रिपब्लिक का खिलाड़ी नीरज के पहले प्रयास से मामूली दूर ही फेक पाया, वह भी कई प्रयासों बाद. तब तक नीरज आज की स्पर्धा में अपना श्रेष्ठ दे चुके थे.

प्रतियोगिता में नीरज का मुकाबला विश्व चैंपियन जोहानस वेट्टर से होने की उम्मीद थी. पहले राउंड के बाद, जहां नीरज दोनों ग्रुप को मिला कर भी श्रेष्ठ स्थान पर रहे थे, वेट्टर ने नीरज के सामने चुनौती पेश करते हुए यह कहा था कि नीरज फाइनल में उनके सामने टिक नही पाएंगे. आंकड़े भी वेट्टर के साथ थे क्योंकि वह अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओ में विश्व रिकॉर्ड के 98 मीटर के काफी नजदीक तक पहुच चुके थे, जबकि नीरज का व्यक्तिगत बेस्ट 88 मीटर था.

दबाव में नहीं बिखरे नीरज

सुर्खियों से हमेशा दूर रहने और सिर्फ खेल पर अपना ध्यान लगाने वाले नीरज ने वेट्टर के इस मानसिक युद्ध को समझ लिया और अति उत्तेजना से बचे रहे. ओलंपिक का दबाव जबरदस्त होता है, बड़े से बड़ा खिलाड़ी भी इस दबाव में टूट जाता है. नीरज के पहले 2 प्रयासों के बाद हताशा जोनाथन वेट्टर के चेहरे पर साफ पढ़ी जा रही थी, वह दबाव में टूटे और पदक तालिका से काफी पीछे रह गए.

ट्रैक एंड फील्ड पर भारत कई बार पदक के बहुत नजदीक तक पहुचा था. पी टी उषा और मिल्खा सिंह की झोली तक यह पदक आते आते रह गया था. कारण यह है कि ट्रैक में स्पर्धा का स्तर इतना ऊंचा होता है कि भारतीय अपना सर्वश्रेष्ठ देने का बाद भी अंतरराष्ट्रीय पैमानों पर पीछे रह जाते हैं.

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अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर क्यों पिछड़ता है भारत

इसी ओलंपिक की बात करें तो रनर दुति चंद, डिस्कस थ्रोअर कर्मजीत कौर और मोहम्मद अनस की अगुवाई में रिले रेस की टीम ने अपनी जान झोंक दी. रिले टीम ने तो एशियाई रिकॉर्ड भी तोड़ दिया किंतु अंतिम तीन में पहुचने में सफल न रहे। दुति सीजन का अपना सर्वश्रेष्ठ देने के बाद भी 8 खिलाड़ियों में 7वे स्थान पर रहीं. यही हाल कौर का भी रहा उन्हें 6ठे स्थान से संतोष करना पड़ा. इसी तरह महिला हॉकी और गोल्फ में हमने मेडल को अपने हाथ से कुछ ही फासले पर सरकते देखा.

ऐसा नही है कि सिर्फ जेवलिन थ्रो में भारत के पास विश्व विजेता खिलाड़ी था, अन्य खेलों जैसे शूटिंग, तीरंदाजी, कुश्ती, भारोत्तोलन, बैडमिंटन भी हमारे पास विश्व विजेता थे. किंतु ओलंपिक के दबाव में हमने सौरभ चौधरी, मनु भाकर, दीपिका कुमारी, मैरीकॉम, सरीखे कई चैंपियनों का सपना टूटते देखा तो वहीं मीराबाई चानू और पीवी सिंधू इस दबाव को झेलने में सफल रहीं और पदक जीत पायीं, हालांकि उनके खुद के बनाये स्तर के आधार पर वह भी स्वर्ण पदक की हकदार ही थीं

सबसे अव्वल नीरज

किंतु नीरज सबसे अलग निकले, सबसे आला निकले। वह सिर्फ मैदान पर ही नही मैदान के बाहर भी अपने क्रियाकलापों से अव्वल ही दिखे. मेडल की उम्मीद को लेकर उनके इर्दगिर्द बनते दबाव का मुकाबला उन्होंने यह कह कर किया था कि कोरोना काल मे जब विश्व स्तर की स्पर्धाएँ नही हो पा रही थीं तो यह कह पाना मुश्किल है कि कौन कैसा खेलेगा. साथ ही बड़ी ईमानदारी से नीरज ने यह भी कहा था कि वह खुद एक साल से किसी बड़ी चैंपियनशिप में हिस्सा नही ले पाये हैं अतः अपने प्रदर्शन को लेकर वह कुछ कह नही सकते. यह सिर्फ स्वीकारोक्ति ही नही थी, अनावश्यक हाइप से बचने की एक बेहतर तकनीकी थी, जिससे वह सारा ध्यान अपने खेल पर लगा सके.

नीरज का स्वर्ण एक आशा देता है, एक विश्वास देता है. भारत की नई पीढ़ी को वह जज्बा देता है जिससे वह विश्व विजेता बन सके, वह भी निरंतरता के साथ. जश्न में हमे यह नही भूलना है कि यह श्रम की परिणति नही है बल्कि आगाज है भारत मे खेलों के स्वर्णिम युग का.

नीरज से प्रेरणा लेने का समय

 इस लेख में नीरज के व्यक्तिगत जीवन परिचय या उसके संघर्ष और परिश्रम का जिक्र नही करूंगा, क्योंकि भारतीय खेलों में एक कमी यह भी रही है कि हम संघर्ष गाथाओं और किंवदंतियों में इतना खो जाते हैं कि इतिहास के गुलाम बन कर रह जाते हैं. अब समय भविष्य की ओर देखने का है. ताकि आने वाले चैंपियनों को नीरज की तरह भारत से महीनों दूर रह कर तैयारियां न करनी पड़ें. सरकारें नीरज का सम्मान करेंगी, वह हकदार भी है. किंतु नीरज से प्रेरणा पा कर जो युवा आगे आएंगे उनके लिए कितनी सहूलियते उपलब्ध करा पाती हैं, यह देखने वाली बात होगी.

यह भी सच है कि आज समय नीरज के स्वर्ण को आत्मसात करने का है, जश्न का है, पर तमाम खेलों के भविष्य को साधने का भी है. नीरज के लिए भी यह अंत नही, आगाज है. अभी कई ओलंपिक में उसका जलवा दिखेगा, और अब उसके कंधों पर उम्मीद का बोझ भी होगा. शुभकामनाएं नीरज, आप पर हम सभी को गर्व है.

(लेखक रिटायर्ड वायुसेना अधिकारी हैं, सामरिक, सामाजिक और रक्षा मामलों पर मीडिया स्वराज समेत तमाम चैनलों पर अपनी बेबाक राय रखते हैं।)

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