नीम है मणि, इसका हर अंग है औषधि

निम्बशीतो लघुर्ग्राही कटुपाकोsग्निवातनुगत।

हृद्यश्रमत्रिट्कासज्वरारुचिकृमिप्रणुत।

व्रणपित्तकफ़चछर्दिकुष्ठहृल्लासमेहनुत॥

निम्बपत्रम स्मृतम नेत्रयम कृमिपित्तविषप्रणुत।

निम्बफलम रसे तिक्तम पाके तु कटुभेदनम।

स्निग्धम लघूग्णम कुष्ठघ्नम गुलमार्श:कृमिमेहनुत॥

​अर्थात, नीम शीतवीर्य, लघु, ग्राही, पाक में कटु रस युक्त, जठराग्नि को मंद करने वाली, हृदय के लिए अहितकर तथा वात, श्रम, तृषा, खांसी,ज्वर, अरुचि, कृमि, व्रण, पित्त, कफ, वमन, कुष्ठ, हृल्लास तथा प्रमेह नाशक होती है। नीम के पत्ते नेत्र के लिए हितकर, कृमि-पित्त-विष का नाश करने वाले, वातकारक, पाक में कटु रसयुक्त तथा सभी प्रकार की अरुचि,और कुष्ठ को दूर करने वाले, नीम के फल रस में तिक्त, पाक में कटु, मल का भेदन करने वाले, स्निग्ध, लधु, उष्णवीर्य, कुष्ठ, गुल्म, बवासीर, कृमि तथा प्रमेह नाशक होते हैं।  

(भाव प्रकाश गुडूच्यादि वर्ग 94-96)

​शास्त्रों में कहा गया है कि रात्रि में वृक्ष के नीचे शयन करना रोगों को निमंत्रण देना है क्योंकि रात्रि में वृक्ष कार्बडाईऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं, परंतु यह कथन नीम पर लागू नहीं होता क्योंकि नीम का वृक्ष प्राणदायक, आरोग्यवर्धक, रोगनाशक वायु का ही उत्सर्जन करता है। नीम को समस्त व्याधियों का हरण करने वाला (सर्वरोगहरो निम्ब:) कहा गया है। कहा जाता है कि जब सूर्य मेष राशि (14 अप्रैल-13 मई) में हो तो नीम के पत्तों का शाक और मसूर की दाल का सेवन करते रहने से पूरे वर्ष विष का कोई भय नहीं रहता है। इसे कुष्ठ आदि चर्म रोगों की रामबाण औषधि माना गया है। प्राचीन ऋषियों ने इसे मणि कह कर संबोधित किया है क्योंकि इसका प्रत्येक अंग स्वयं में एक औषधि होता है। 

​नीम का रस तिक्त एवं कषाय, गुण रूक्ष, वीर्य शीतल तथा विपाक कटु होता है। इसका प्रभाव कफ़घ्न, व्रणरोपण, छर्दिरोपण, पित्तज विकार शामक और शोथहर होता है। इसके पत्ते चक्षुष्य, विपाक में कटु, कृमिघ्न,कुष्ठघ्न, पित्तज विकार शामक, अरुचि को दूर करने वाले होते हैं। इसके कोमल पत्ते संकोचक, वातकारक तथा रक्तपित्त, नेत्र रोग और कुष्ठ को नष्ट करने वाले होते हैं। इसकी सींक रक्तविकार, खांसी, श्वास, बवासीर,गुल्म और प्रमेह में लाभप्रद है। फूल पित्तशामक, कृमि एवं कफ़नाशक होते हैं। कच्ची निंबौरी कटु, तिक्त, स्निग्ध, लधु, उष्ण तथा गुल्म, कृमि और प्रमेह में लाभकारी है। पकी निंबौरी मधुर, कटु, स्निग्ध तथा रक्त पित्त,नेत्ररोग तथा क्षय रोगों में लाभकारी है। छाल अरुचि, उल्टी, ग्रहणी, कृमि तथा लीवर संबंधी रोगों में लाभकारी है। 

​हमारे देश में नीम का प्रयोग दांतों एवं मुख की सफाई के लिए दातून के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है। आज अमेरिका में तो नीम की दातून 200 रुपये की मिलती है लेकिन हमारे देश में निशुल्क मिलने के बावजूद,इसका प्रयोग लुप्त होता जा रहा है। यदि हम अपने दिन की शुरुआत नीम की दातून से करें तो बहुत से रोगों से बचे रह सकते हैं।   

​नीम के चिकित्सीय उपयोग पर चर्चा करने के लिए आज श्री रामदत्त त्रिपाठी के साथ आयुषग्राम चित्रकूट के संस्थापक, भारतीय चिकित्सा परिषद, उ.प्र. शासन में उपाध्यक्ष तथा कई पुस्तकों के लेखक,आयुर्वेद फार्मेसी एवं नर्सिंग कॉलेज के प्रधानाचार्य एवं प्रख्यात  आयुर्वेदचार्य आचार्य वैद्य मदन गोपाल वाजपेयी, एवं बनारस विश्वविद्यालय के दृव्य गुण विभाग के प्रो. (डॉ) जसमीत सिंह उपस्थित हैं। प्रस्तुत हैं चर्चा के कुछ प्रमुख अंश:

श्री रामदत्त त्रिपाठी: प्रो. जसमीत सिंह! नीम में कौन कौन से रसायन पाये जाते हैं? और चिकिसा में उनका क्या उपयोग है?

प्रो. जसमीत सिंह: नीम में टैनिन, केम्पेस्टीरोल, स्टीग्मास्टीरोल,सीटोस्टिरोल, कुलीनोल, कुलेक्टोन, मिथाइल कुलोनेट जैसे बहुत से चमत्कारी रसायन पाये जाते हैं। यह वृक्ष सूक्ष्म जीवाणु रोधी गुणों से युक्त होने के कारण अत्यंत उपयोगी है। ये कोशिकाओं की बाहरी परत को नष्ट कर उनकी वृद्धि को समाप्त कर देते हैं। यह कवकरोधी, ज्वररोधी होने के कारण चेचक में इसका बहुत उपयोग किया गया है। यह कैंसर रोधी होने से कैंसर के विकास को भी रोकता है। यह सूजनरोधी होने से सूजन को भी कम करता है।  

श्री रामदत्त त्रिपाठी: डॉ. वाजपेयी जी! नीम का प्रयोग तो दैनिक जीवन में प्राचीन काल से होता आ रहा है। आयुर्वेद में चिकित्सा के लिए इसका किस प्रकार उपयोग किया जाता है?

डॉ. मदन गोपाल वाजपेयी: आयुर्वेद का मूल चिकित्सीय सिद्धान्त वात-पित्त-कफ, अग्नियों एवं पंचमहाभूतों पर आधारित है। इसका गुण लघु और रस तिक्त एवं कषाय, वीर्य शीतल एवं विपाक कटु होता है। इसके सभी अंग तो उपयोगी होते हैं परंतु, जब वृक्ष बहुत पुराना हो जाता है तो उससे सफ़ेद रंग का पानी निकलने लगता है। उस पानी में भी बहुत से चिकित्सीय गुण होते हैं। नीम का गोंद भी बहुत लाभकारी है। समस्त रोगों को नष्ट करने वाले गुणों से युक्त होने से इसे मणि की संज्ञा दी गई

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आचार्य डॉ0 मदन गोपाल वाजपेयीबी0ए0 एम0 एस0पी0 जीइन पंचकर्मा,  विद्यावारिधि (आयुर्वेद)एन0डी0साहित्यायुर्वेदरत्नएम0ए0(संस्कृत) एम0ए0(दर्शन)एल-एल0बी0।

संपादक- चिकित्सा पल्लव

पूर्व उपाध्यक्ष भारतीय चिकित्सा परिषद् उ0 प्र0

संस्थापक आयुष ग्राम ट्रस्ट चित्रकूटधाम।

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