प्रेम और करूणा की प्रतिमूर्ति मदर टेरेसा

पुण्यतिथि पर विशेष

श्याम सुंदर सराफ

प्रेम और करूणा की प्रतिमूर्ति मदर टेरेसा का मूल नाम एंग्नेस गोंजा बायोजिजू था. उनका जन्म २६ अगस्त १९१० को मकारजे (अब मेसेदोनिया) में हुआ था। उनके पिता निकोला बोयाजू एक साधारण व्यवसायी थे। जब वह मात्र आठ साल की थी तभी उनके पिता परलोक सिधार गये। जिसके बाद उनके लालन पालन की सारी जिम्मेदारी उनकी माता द्राना लोयाजू के ऊपर आ गई।

जब वह मात्र १२ वर्ष की थी तभी उन्हें यह अनुभूति हो गई थी कि उन्हें जन्म पीड़ित एवं कराहती मानवता की सेवा के लिए मिला है। यूगोस्लाव जेमुइट मिशनरी ने भारत के बंगाल प्रांत में सेवा का अच्छा कार्य किया था तथा मदर टेरेसा को इस जानकारी से काफी प्रेरणा मिली।

१८ वर्ष की अल्प आयु में ही सन १९२८ में मिशनरी बनाने की इच्छा से उन्होंने अपना गृह त्याग दिया तथा  ‘सिस्टर्स आफ लोरेटो’ में शामिल हो गई। आयरलैण्ड के इस सम्प्रदाय ने उन्हें नाम दिया ‘सिस्टर मेरी टेरेसा’ तथा उन्हें भारत भेज दिया गया।

२४ मई १९३१ को सिस्टर टेरेसा ने अंतिम रूप से दीन दुखियों की सेवा का व्रत लिया और उसी समय से वे मदर टेरेसा कहलाने लगी। इसी वर्ष उन्हें भारत की नागरिकता भी प्राप्त हो गई।कलकत्ता में लोरेटो कान्वेन्ट में उन्होंने एक शिक्षिका के रूप में कार्य प्रारम्भ किया। १९४४ से वह वहां की हेड मिस्ट्रेस बन गई।

उनका मन शिक्षण में पूरी तरह से रम गया था, पर चारों ओर पैâली गरीबी, दरिद्रता और लाचारी उनके मन को बहुत अशांत करती थी। सन १९४३ के अकाल में शहर में बड़ी संख्या में मौतें हुई और लोग गरीबी से त्रस्त हो गये।

१९४६ के हिन्दू मुस्लिम दंगों ने तो कलकत्ता शहर की स्थिति और भी भयावह बना दी थी।१० सितम्बर १९४६ को मदर टेरेसा को एक धर्म संस्था ‘मिशनरी आफ चैरिटी’ का गठन करने की अंत:प्रेरणा मिली है। जिसकी अनुमति मिलने में दो वर्ष का समय लग गया। बस बीच उन्होंने पटना के होली फ़ेमिली हास्पिटल से नर्सिंग का गहन प्रशिक्षण लिया तथा १९४८ में वापस कलकत्ता आ गई। १७ अगस्त १९४८ को पहली बार उन्होंने सफ़ेद रंग की नीले बार्डर वाली साड़ी पहनी और लोरेट कान्वेंट से निकलकर गरीबों एवं लाचारों की दुनिया में प्रवेश किया।

२१ दिसम्बर १९४८ को उनकी सेवा यात्रा पूर्ण रूप से आरम्भ हुई। वे झुग्गी बस्तियों में गई, मरीजों के घावों को धोया, उनकी मरहम पट्टी की, उन्हें दवा दी तथा बूढ़े-बीमार एवं सड़क के किनारे पड़े लोगों का सहारा बनीं।७ अक्टूबर १९५० को उन्हें वैटिकन से ‘मिशनरी आफ चैरिटी’ की स्थापना के लिए अनुमति मिली। इस संस्था का उद्देश्य भूखों, निर्वस्त्रों, बेघर, लंगड़े-लूले, अंधे, चर्मरोगों से ग्रसित एवं ऐसे लोगों की सेवा एवं सहायता करना था, जिनके लिये समाज में कोई जगह नहीं थी।

शुरू में मिशनरी आफ चैरिटी की शुरूआत मात्र १३ लोगों के साथ हुई। कलकत्ता में मदर टेरेसा ने ‘निर्मल हृदय’ तथा ‘निर्मल शिशु’ भवन के नाम से दो आश्रम खोले। निर्मल हृदय का ध्येय असाध्य व बीमारी से ग्रसित रोगियों एवं अभावों से भरा हुआ जीवन बीताने वाले गरीबों की सेवा करना था। वे कहा करती थीं कि मेरा लक्ष्य उन लोगों के लिए जिन्होंने पशुवत जीवन जिया, एक सुन्दर एवं देवदूत के समान प्रेम एवं आदर से परिपूर्ण मृत्यु की व्यवस्था करना है। निर्मल शिशु भवन की स्थापना अनाज एवं खोये हुए बच्चों की सहायता के लिये हुई।

१९६० में मदर टेरेसा ने अपनी सिस्टर्स को भारत के विभिन्न भागों में सेवा के लिए भेजना शुरू किया। उन्होंने अनेक अनाथालयों एवं कुष्ठ आश्रमों की स्थापना की। साथ ही उन्होंने विभिन्न धर्मों एवं राष्ट्रीयता के लोगो के लिए क्रमश: ‘को वर्वâर्स आफ मदर टेरेसा’ और ‘सिक ऐंड सफरिंग को वर्वâर्स’ नामक दो संगठनों की स्थापना की, जिनके माध्यम से वह लोगों में अपनी प्रार्थना की ऊर्जा, सादगी, त्याग और बलिदान की भावना तथा मानवता के लिए प्रेमपूर्ण कार्यों का संदेश देना चाहती थी।

मदर टेरेसा का जीवन एवं उनका परिश्रम प्यार भरा आनन्द, हर इंसान की महानता एवं प्रतिष्ठा, हर छोटे-छोटे विश्वासों और प्यार के साथ संपादित करने का मूल्य और ईश्वर के साथ असीम मित्रता का गवाह है। बाद में उन्होंने अपनी संस्था का विस्तार व विश्व के अनेक भागों में किया। भारत से बाहर इसकी प्रथम शाखा की स्थापना बेनजुएला में १९६० में पांच सिस्टर्स के साथ की गई। उसके बाद इनकी शाखायें सन १९६८ में रोम, तंजानिया और आस्ट्रेलिया में खोली गई।

सन १९७० में संस्था ने एशिया, अप्रिâका, यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका में अनेक शाखायें खोली।सन १९७१ में उन्होंने बंग्लादेश में पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा बलात्कार की शिकार महिलाओं के लिए एक आश्रम की स्थापना की। सन १९८२ में बेरूत की कठिन घेराबंदी में अस्पताल में पंâसे हुए छुपे बच्चों को फिलीस्तानी गुरिल्ला लड़कों और इजरायली सैनिकों के बीच अस्थायी युद्ध विराम कर बचाया।

रेड क्रास के साथ वंâधे से वंâधा मिलाकर युद्ध क्षेत्र में ध्वस्त हुए अस्पताल में पंâसे रोगियों की सहायता की। वे इथोपिया में भूखे लोगों की सहायता करने गई तथा अर्मेनिया जाकर भूवंâप पीड़ितों की सेवा सुश्रुषा की।मदर टेरेसा को पीड़ित मानवता की सेवा के लिए अनेक अंतर्राष्ट्रीय सम्मान एवं पुरस्कार  मिले। भारत सरकार ने उन्हें १९६२ में ‘पद्मश्री’ सम्मान तथा १९८० में भारत के सर्वोंच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से अलंकृत किया।

१९७९ में मानव सेवा के लिए किये गये कार्यों के लिए उन्हें शांति का नोबुल पुरस्कार मिला। संयुक्त राज्य अमेरिका ने उन्हें १९८५ में ‘मेडल आफ फ़्रीडम ’ से नवाजा।बढ़ती उम्र के साथ उनका स्वास्थ्य गिरता गया। १९९३ में उन्हें पहली बार दिल का दौरा पड़ा, जब वे रोम में पोप जान पाल द्वितीय से मिलने गई थी। १९८९ में उन्हें दोबारा हृदयघात हुआ तथा उन्हें कृत्रिम पेस मेकर लगाया गया। १३ मार्च १९४७ को उन्होंने मिशनरी आफ चैरिटी के मुखिया का पद छोड़ दिया तथा ५ सितम्बर १९९७ को गरीबों की मां, करूणा की पर्याप्त मदर टेरेसा ने अपने जीवन की अंतिम सांस ली।

उनकी अंतिम यात्रा में १५००० से अधिक शोक संतप्त लोगों ने भाग लिया, जिसमें २३ देशों के प्रतिनिधि, उस समय अमेरिका की प्रथम महिला हिलेरी क्लिंंटन तथा घाना, डेनमार्वâ, वेनुजुएला और इटली के राष्ट्राध्यक्ष भी शामिल थे। उनकी मृत्यु के समय उनकी संस्था की लगभग ६०० शाखायें विश्व के १२३ देशों में सेवा कार्य कर रही थीं।नि:संदेह कद में छोटी लेकिन चट्टान सहश विश्वास की मल्लिका मदर टेरेसा मानवता के कल्याण के लिये ईश्वर के दूत के रूप में ही इस धरा धाम पर अवतरित हुई थी।

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