बुंदेलखंड़ : लॉकडाउन में घर लौटे प्रवासी मजदूर झेल रहे ‘बेरोजगारी’ का दंश!

आर. जयन, बांदा  से 
उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार महानगरों से हजारों की तादाद में लौटे प्रवासी मजदूरों को गांवों में काम देने की बात कर रही हो, पर हकीकत इसके अटल है। यहां बानगी के तौर पर बुंदेलखंड़ के बांदा जिले में प्रवासी मजदूरों की कहानी बयां कर रहे हैं, जो देश व्यापी लॉकडाउन के बीच ‘जुगाड़’ से अपने घर तो लौट आये, लेकिन एक-डेढ़ माह से ‘बेरोजगारी’ का दंश झेल रहे हैं।
यहां बानगी के तौर पर बांदा जिले के भदावल गांव की महिला उस गुड़िया (26) की बात करते हैं, जो आठ माह की गर्भावस्था में अपनी दो साल की बच्ची को गोद में लेकर पति शिवलखन के साथ करीब हजार किलोमीटर दूरी का सफर पैदल तय कर गुजरात के सूरत महानगर से अपने गांव पहुंची थी। इस महिला के पति शिवलखन ने बताया कि “वह अपनी पत्नी के साथ गुजरात के सूरत महानगर की एक साड़ी निर्माता कंपनी में पेंटिंग (छपाई) का काम करता था, उसे साढ़े पांच सौ प्रतिदिन की मजदूरी मिलती थी। लॉकडाउन घोषित होने के बाद कंपनी बंद हो गयी और मालिक बिना पगार दिए ही निकाल दिया था। इसके बाद कोई विकल्प न होने पर 26 मार्च की तड़के अपनी दो साल की बच्ची और आठ माह की गर्भवती पत्नी के साथ हजार किलोमीटर पैदल चलकर गांव आया।” उसने बताया कि “पत्नी ने गांव में अभी एक सप्ताह पूर्व बच्चे को जन्म दिया है।” वह बताता है कि “एक माह से घर में बेरोजगार बैठा है। जॉब कार्ड नहीं बना था, इसीलिए प्रधान ने मनरेगा योजना में कोई काम नहीं दिया। मंगलवार को ही जॉब कार्ड के लिए ऑनलाइन आवेदन किया है।” बकौल शिवलखन, “उसके पिता के नाम करीब 16-17 बीघा कृषि योग्य जमीन है, पांच भाई हैं। हर साल दैवीय आपदाओं के कारण खेती में साल भर के खाने के लिए अनाज भी पैदा नहीं होता, पिता के नाम करीब दो लाख रुपये सरकारी कर्ज है। जिसकी अदायगी न हो पाने पर बैंक वाले जमीन नीलाम करने की आये दिन धमकी देते हैं, इन्हीं कई वजहों से अपनी पत्नी के साथ परदेस कमाना मजबूरी थी।”
प्रवासी मज़दूर गुड़िया, सूरत से बांदा तक पैदल सफ़र
गुड़िया बताती है कि “सूरत लेकर बांदा पैदल आने तक में उसके पैरों में फफोले पड़ गए थे। तीन दिनों तक अनाज का एक सीत (दाना) नहीं मिला था, फिर भी गांव-घर पहुंचने का जुनून थकान नहीं महसूस होने दी।” वह बताती है कि “बीच-बीच कुछ दूरी के लिए भी ट्रक भी मिल जाते रहे, लेकिन ज्यादातर पैदल यात्रा रही।”
गुड़िया बताती है कि “सूरत लेकर बांदा पैदल आने तक में उसके पैरों में फफोले पड़ गए थे। तीन दिनों तक अनाज का एक सीत (दाना) नहीं मिला था, फिर भी गांव-घर पहुंचने का जुनून थकान नहीं महसूस होने दी।” वह बताती है कि “बीच-बीच कुछ दूरी के लिए भी ट्रक भी मिल जाते रहे, लेकिन ज्यादातर पैदल यात्रा रही।”
इस गांव के ग्राम प्रधान रामेंद्र वर्मा ने बताया कि “उनके गांव में 274 प्रवासी मजदूरों की घर वापसी हुई है, इनमें करीब डेढ़ सौ लोग मनरेगा योजना के तहत मिट्टी खुदाई का कार्य कर रहे हैं। हर मजदूर को 205 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से भुगतान किया जाएगा। इस समय गांव में मनरेगा योजना के तहत बंधी निर्माण (खेत में मेड़ बनाने) का कार्य चल रहा है।” ग्राम प्रधान बताते हैं कि “कई ऐसे मजदूर हैं कि जो गांव में काम नहीं करना चाहते। उन्हें यहां फावड़ा उठाने में शर्मिंदगी महसूस होती है।” गुड़िया और उसके पति को अब तक काम न दिए जाने के सवाल पर ग्राम प्रधान कहते हैं कि “इनके पास मनरेगा में काम करने के लिए जॉब कार्ड नहीं है। मंगलवार को ही इसके लिए आवेदन किया है।”
जबकि कुछ प्रवासी मजदूरों ने बताया कि “ग्राम प्रधान उन मजदूरों की हाजिरी मास्टर रोल में ज्यादा भरते हैं, जो काम नहीं करते और उनके बैंक खाते में धनराशि आने पर दस फीसदी रकम संबंधित मजदूर को देने बाद बाकी रकम खुद ले लेते हैं।”
इसी गांव के पड़ोसी ग्राम पंचायत तेंदुरा में तैनात पंचायत मित्र (रोजगार सेवक) शैलेन्द्र सिंह ने बताया कि “उनके गांव में अब तक करीब चार सौ प्रवासी मजदूरों की घर वापसी हो चुकी है और बारह सौ से अधिक जॉब कार्ड बने हुए हैं, लेकिन 80-85 मजदूर ही मनरेगा में काम कर रहे हैं।” एक सवाल के जवाब में उन्होंने बताया कि “गांव में मुनादी भी करवाई गई है, लेकिन सभी प्रवासी मजदूर काम पर नहीं आ रहे हैं।” जबकि, इसी गांव के पंचायत सदस्य त्रिभुवन सिंह ने कहा कि “ग्राम प्रधान मजदूरों का चेहरा देखकर काम दे रहे हैं। इसमें भी अपना-पराव के हिसाब से तवज्ज्व दी जा रही है।” वह बताते हैं कि “मैं खुद जॉब कार्ड धारक हूं, लेकिन मुझे काम नहीं दिया जा रहा, इसलिए मैं अपने ही खेत में मेड़बंदी का काम कर रहा हूं।” सिंह आरोप लगाते हैं कि “ग्राम प्रधान और रोजगार सेवक मिलकर सैकड़ों फर्जी जॉब कार्ड बनाये हैं हैं और काम पर न जाने वालों की हाजिरी दर्ज कर खुद पैसा डकार रहे हैं।” वे कहते हैं कि “यही आंकड़ा राज्य सरकार के पास उपलब्ध होता है, जिसके आधार पर लाखों लोगों को काम दिए जाने की बात कही जाती है, जबकि हकीकत कुछ और ही है।”
सूरत से लौटे तेंदुरा गांव के प्रवासी मजदूर दीपक ने बताया कि “सूरत में साड़ी कंपनी में पेंटिंग मजदूर के रूप में उसे 11 हजार रुपये प्रति माह में मिलते थे, लेकिन लॉकडाउन से कंपनी बंद हो गयी और वह किसी तरह घर लौटकर आया और अब बेरोजगार बैठा है। मांगने पर भी काम नहीं मिल पा रहा।”
यह तो सिर्फ बानगी हैं। बुंदेलखंड़ का कोई ऐसा गांव नहीं है, जहां दो सौ से चार सौ की तादाद में प्रवासी मजदूरों की वापसी न हुई हो, मगर ग्राम पंचायतों में सभी प्रवासियों को काम नहीं मिल पा रहा और घर वापसी के बाद वे बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं। हालांकि, हालांकि, बांदा जिले मुख्य विकास अधिकारी (सीडीओ) हरिश्चंद्र वर्मा के अनुसार, “मनरेगा योजना के तहत विभिन्न गांवों में 2,432 जगहों में काम चल रहे हैं, जिनमें 16,300 प्रवासी मजदूर काम पर लगे हैं।”

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