हमें चाहिए सत्ता का विकेंद्रीकरण : ज़िला सरकार, नगर सरकार और ग्राम सरकार

 बेरोज़गार और बेघर लोगों का धैर्य टूट रहा है

राम दत्त त्रिपाठी, वरिष्ठ पत्रकार

कोरोना महामारी संकट के इस दौर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने  सत्ता सत्ता के विकेंद्रीकरण के महत्व को स्वीकार किया है।पंचायती राज दिवस पर अपने सम्बोधन में उन्होंने ग्राम , ज़िला और हर स्तर पर आत्म निर्भरता की बात कही है। दरसल इस संकट से समझ में आया की स्वास्थ्य, शिक्षा, रोज़गार  एवं अन्य सभी आवश्यक सुविधाएँ बड़े शहरों में केंद्रित हो गयी हैं।

अब कोरोना लाक्डाउन से शहरों में काम कर रहे करोड़ों लोग अचानक बेघर और बेरोज़गार हो  गए।गाँवों में डाक्टर नहीं हैं, राशन नहीं है।इसीलिए कोरोना महामारी से निबटने के लिए देशव्यापी सरकारी बंदी से बेरोज़गार और बेघर हुए करोड़ों लोगों का धैर्य  टूटने लगा है।विशेषकर वे लोग जो अपने घरों से सैकड़ों किलोमीटर दूर शहरों में फँसे थे ।

इसी का परिणाम था कि  हज़ारों की तादाद में लोग मुंबई के बांद्रा स्टेशन पर पहुँचे और पुलिस की लाठियाँ खायीं।मुंबई के बाद गुजरात के सूरत शहर में भी घर वापसी की व्यवस्था के लिए दोबारा प्रदर्शन हुए।दुर्भाग्य से अनेक मीडिया  बंधुओं ने इस  मानवीय समस्या को साम्प्रदायिक रंग देकर इसे किसी षड्यंत्र से जोड़ दिया और पुलिस ने मुक़दमा भी दर्ज कर लिया।अभी भी लाखों लोग घरों से दूर भुखमरी का शिकार हैं।

तीन हफ़्ते का कष्ट बर्दाश्त करने के बाद इन लोगों को उम्मीद थी  कि चौदह  अप्रैल से रेलगाड़ियाँ शुरू हो जाएँगी और वे अपने गाँव – घर लौट आएँगे,जहां कम से कम भूखों नही मरेंगे।मगर यह नहीं हुआ।

सरकार ने जनहित में तीन मई तक रेलगाड़ियाँ भी बंद रखने का निर्णय किया है।गाँवों में इस समय फसल की कटाई से रोज़गार  है। इसके अलावा नक़द या अनाज उधार मिल जाता है।

चित्र : निखिल त्रिपाठी

अब तीन मई तक और कड़ाई से बंदी लागू होने की घोषणा के बाद इन लोगों का धैर्य टूट गया है।  मेरे पास हर रोज़ दर्जनों लोगों के फ़ोन मुंबई, राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात आदि से आते हैं।इनका कहना है कि वे एक – एक रोटी को तरस रहे हैं।काम बंद हो गया है।बंदी चूँकि मार्च के आख़िरी महीने में लागू हुई थी, बहुत से लोगों को वेतन भी नहीं मिला।

हज़ारों लोग भूखे प्यासे पैदल चलकर अपने गाँव आ गए हैं, लेकिन अब भी लाखों लोग फँसे हैं।यहाँ तक कि बलिया के तमाम लोग वाराणसी में फँसे हैं। लखनऊ, दिल्ली , ग़ाज़ियाबाद और दूसरे शहरों में भी लोग यातायात खुलने के बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं।

बस्ती के रहने वाले जगराम गुप्ता  ग़ाज़ियाबाद में फँसे हैं . उन्होंने फ़ोन पर जो कहा वह सुनिये 

अपने इलाक़े में लोग जनप्रतिनिधि या अधिकारी के ज़रिए मदद पा जाते हैं लेकिन दूसरे राज्य या बड़े शहर में वह भी  सम्भव नही होता।सरकारें या स्वयं सेवी संस्थाएँ पूड़ी अथवा खिचड़ी बाँटते ज़रूर हैं, लेकिन उसका कोई समय नहीं होता और वह पर्याप्त नहीं होता।इसके चक्कर में कभी कभी डंडे भी खाने पड़ते हैं।

भारत में अब तक लगभग साढ़े तीन सौ लोगों की मौत कोरोना वायरस से हो चुकी है।क़रीब ग्यारह हज़ार कंफ़र्म केस हैं। क़रीब सवा तीन लाख लोग एहतियातन अलग रखे गए हैं।यह बीमारी ऐसी है कि  एक आदमी हज़ारों  लोगों तक वायरस का संक्रमण कर सकता है, बिना जाने।

इसलिए इसमें दो राय नहीं कि कोरोना वायरस का फैलाव रोकने के लिए सामाजिक नहीं बल्कि शारीरिक  दूरी बनाए रखना ज़रूरी है।विशेषकर बुजुर्गों को घर पर रहना ज़रूरी है।बाहर निकलना पड़े तो भी लोग उन्हें रास्ता देकर हट जाएँ ताकि वायरस उन्हें न छू सके।

अमेरिका और यूरोप के विपरीत भारत में लोगों को कोरोना  के साथ – साथ भूख से भी लड़ना है।गरीब के लिए भूख कोरोना  से बड़ी बीमारी है।एक अनुमान  के अनुसार इस समय देश भर में लगभग पचास करोड़ लोग बेरोज़गार हैं।दरअसल इस महामारी ने बेरोज़गारी की सच्ची तस्वीर भी उजागर कर दी है, जो पहले लुभावने वादों और विज्ञापनों से छिपाकर रखी जाती थी। 

संगठित क्षेत्र में भी लाखों लोगों की छँटनी हो रही है।व्यापारी और उद्योगपति भी मंदी का शिकार हैं और यह नहीं समझ पा रहे हैं कि अर्थ व्यवस्था कब  पटरी पर आएगी।मेरे कहने का सारांश यह है की अगर इन करोड़ों लोगों को काम न मिला ( हज़ार पाँच सौ के अनुदान से काम नहीं चलने वाला) तो भारत को एक बड़े सामाजिक असंतोष के विस्फोट का सामना करना पड़ सकता है। 

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दूरी बनाए रखते हुए काम धंधे शुरू कराएँ 

कहने का तात्पर्य यह बिलकुल नहीं है कि इनके लिए तुरंत पक्की नौकरी की व्यवस्था की जाए।लेकिन सरकार खेती, बाग़वानी, फसल काटने, तालाब खोदने, शहरों में झाड़ू सफ़ाई , पार्कों में  बाग़वानी जैसे काम तो दिहाड़ी आधार पर  दे ही सकती है.फसल काटने वालों को मनरेगा के बजट से मज़दूरी दे सकते हैं।इससे किसान को भी मदद मिल जाएगी। खेती घाटे का सौदा है, और किसान के पास नक़द की क़िल्लत भी रहती है।

जिन युवकों के पास मोटर साइकिल है, उन्हें दुकानों से सामान पहुँचाने का काम मिल सकता है।पुलिस इन्हें विशेष  पहचान पत्र दे सकती है .सब्ज़ी और फल के ठेलों को अनुमति है गमले, पौधे तथा कुछ और फेरी वालों को अनुमति दी जा सकती है।निर्माण कार्य भी हो सकते हैं।ये लोग उसी तरह दूरी बनाकर काम कर सकते हैं, जैसे बाक़ी आवश्यक सेवाओं के लोग कर रहे हैं।

मुझे यह भी नहीं समझ आया कि मोटर साइकिल पर पीछे परिवार के सदस्य को क्यों नहीं बैठा सकते . कार की सुविधा तो हर परिवार में नहीं है. इतनी समझदारी तो सबको है कि जिसे कोरोना की आशंका हो उसके क़रीब न जाये या उसको पीछे न बैठाये . कोई अपने घर के साधारण बीमार को अस्पताल तक कैसे ले जाएगा या बुजुर्ग लोग बैंक तक कैसे जाएँगे।

जिन इलाक़ों में अब तक एक भी कोरोना केस नहीं मिला वहाँ बाहर से नाकाबंदी रखते हुए अंदर कुछ काम धंधे, उत्पादन शुरू हो सकता है।यह तो हर जगह स्थानीय प्रशासन के माध्यम से तुरंत शुरू हो सकता है।शहरों में लाखों लोग सुबह मज़दूर मंडी में खड़े होकर दिहाड़ी पर  काम पाते थे, अब वह बंद है।

मनोबल बनाए रखें 

समस्या का एक दूसरा पहलू यह भी है कि  ये लोग शहरों में जिन झुग्गी झोपड़ियों में रहते हैं, वहाँ इतनी जगह नहीं है कि  शारीरिक दूरी बनाकर रहें।बाहर निकल नहीं सकते।गाँव में बाग  बगीचों और खेतों में घूम टहल सकते हैं। रह भी सकते हैं।

अगर ट्रेन , बस, टैक्सी कुछ भी  नहीं चल सकतीं तो यही व्यवस्था कर दें कि जो लोग पैदल अपने गाँव वापस आ रहे हैं, सड़क किनारे के थाने उन्हें भोजन, पानी और दवा देते रहें।रोड के किनारे ढाबे या चाय की दुकान खुल सकती हैं जहां से लोग दूरी बनाए रखते हुए खा पी सकें।

आख़िर फल और सब्ज़ी मंडियाँ तो खुली ही  हैं।फसल काट रही है और ख़रीद के लिए मंडी भी खुलेगी।ई कामर्स कम्पनियाँ भी घर घर सामान पहुँचाएँगी।इस तरह के हज़ारों उदाहरण हैं कि  लोग हज़ार डेढ़ हज़ार किलोमीटर दूर पैदल चलकर गाँव पहुँचे।लोग मुंबई से पैदल चलकर  प्रधानमंत्री मोदी जी के चुनाव क्षेत्र बनारस भी पहुँचे हैं।

इन लोगों की एक चिंता यह भी है उनके बूढ़े माँ बाप गाँव में हैं और अब वे उन्हें मनी आर्डर नहीं भेज सकते।उनकी देखभाल कौन करेगा ?कोरोना की समस्या लम्बी चलेगी। लोग तब तक परदेस में बेरोज़गार और भूखे नहीं रह सकते।उनका मनोबल न टूटे यह भी ज़रूरी है।

सरकार ने कई करोड़ लोगों के खातों में हज़ार पॉंच सौ  रुपए भेजे हैं, जिन्हें निकालने के लिए बैंकों में भारी भीड़ जुटी, क्योंकि ये लोग एटीएम इस्तेमाल नहीं करते।फिर महीने में हज़ार रुपए से कितने दिन खाएँगे।

फ़्री का राशन बाँट रहा है, इससे काफ़ी मदद मिलेगी, बशर्ते कि आटा चक्की चल सकें।

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स्थायी समाधान 

नीति निर्धारकों  को जल्दी ही स्थायी समधान की ओर भी सोचना होगा  स्थायी समाधान यही है कि  सरकार जल्दी से जल्दी विकास की परिभाषा और दिशा बदले।विदेशी निवेश के भरोसे औद्योगीकरण पर भी निर्भर न रहे।खेती, बाग़वानी और कुटीर उद्योगों में उत्पादन को बढ़ावा दे। रोज़गार परक शिक्षा और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों  पर ध्यान दे।

आयुर्वेद के ज्ञान को बड़े पैमाने पर पुनर्जीवित करे।अब तो आयुष्मान कार्ड की पोल भी खुल गयी है।सरकार से प्रतिपूर्ति के अभाव में बड़े अस्पतालों ने इस कार्ड पर इलाज बंद कर दिया है।

आख़िर कहीं न कहीं यह हमारी बजट प्राथमिकताओं की गलती है कि हम परमाणु बम बना सकते हैं, नई दिल्ली के सुंदरीकरण, नए दफ़्तरों  और नई  संसद के निर्माण के लिए अथवा विशालकाय मूर्तियाँ बनाने के लिए  अरबों का बजट निकल सकते हैं, पर अस्पतालों में डाक्टरों, नर्सों की निजी सुरक्षा के उपकरण नहीं ख़रीद सकते। 

इसी तरह सरकार ने विश्व बैंक  जैसी एजेंसियों की सलाह पर लाखों पदों पर नियुक्तियाँ रोक रखी हैं और बजट भारी मशीने ख़रीदने में खर्च हो रहा है।बजट का बड़ा हिस्सा अनावश्यक  निर्माण और ख़रीद में जाता है, सिर्फ़ कमीशन के लिए।यह समस्या उन नगरवासियों की  नही है , जो सरकारी या प्राइवेट सेक्टर की पक्की नौकरी में हैं, जो कम्प्यूटर पर घर से काम कर सकते हैं और जिनके पास पैसा है।

उन्हें तो घर बैठे अनाज, फल, सब्ज़ी और दवाई सब मिल रहा है।वे आराम से टी वी देख सकते हैं और इंटरनेट के ज़रिए अपने दूरस्थ पारिवारिक जनों  से सम्पर्क में भी रह सकते हैं।

लोकतंत्र को ख़तरा 

मुझे डर है कि  अगर यह भयावह बेरोज़गारी लम्बी चली तो वह हमारी लोकतांत्रिक  व्यवस्था के लिए भी ख़तरा बन सकती है। ख़तरा तो यह भी है कोरोना की महामारी के चलते सरकार में केंद्रीकरण और बढ़ जाए, जबकि ज़रूरत विकेंद्रीकरण  की है। हमें चाहिए ज़िला सरकार, नगर सरकार और ग्राम सरकार जो रोज़मर्रा कि व्यवस्था सम्भालें।

एक और ज़रूरी बात .

वर्तमान सरकार और राजनीति में ऊपर से नीचे एकतरफ़ा संवाद चल रहा है.पार्टी में निचले स्तर के कार्यकर्ता तो छोड़िये विधायक और मंत्री भी निर्णय प्रक्रिया से दूर हैं .अब प्रेस कॉन्फ़्रेंस नहीं संबोधन होता है . सवाल पूछने की गुँजाइश नहीं .अधिकांश मालिकों ने सेल्फ़ सेंशरशिप लागू कर रखी है.ऐसे में ख़तरा होता है कि ऊपर बैठे लोग आत्म मुग्ध होकर स्वयं को ईश्वर का अवतार समझने लगें .मनोनीत पदाधिकारी साहब को वही सुनायेंगे जो वह सुनना चाहते हैं .

7 Comments

  1. बहुत अफ़सोस है कि देश का मीडिया भी इतना आलसी , निकम्मा , नाकारा और ग़ैरज़िम्मेदार हो गया है कि टैलीवीजन सेट पर बैठकर पूरी दुनिया की आलोचना करने और फ़तवे देने के अलावा कुछ नहीं कर रहा । न रोग की जानकारी , न रोकथाम की , न निवारण के बारे में कोई समझ है । बस ब्रेकिंग न्यूज़ से मतलब है ।

    माइग्रेंट वर्कर भी कई प्रकार के हैं । बिहार से मुंबई जाने वाले वर्कर भी स्किल्ड , सेमी स्किल्ड और मज़दूर वर्ग के हैं । ये सभी इतने मजबूर और निरीह नहीं है जैसा कि दिखाए जा रहे हैं । खाते पीते तंदरूस्त हैं । इनमें से बहुत ऐसे भी होंगे जो फसल कटने के समय छुट्टी लेकर घर जाते होंगे । लॉकडाउन के शुरु के समय में गलती ज़रूर हुई जिससे अचानक लोगों को निकलना पड़ा लेकिन अब जब लगभग चीजें नियंत्रण में हैं इस तरह भीड़ का स्टेशन पहुँचना बहुत गैरजिम्मेदाराना काम है । प्रशासन की मुस्तैदी पर भी प्रश्न चिंह लगाता है ।
    बहुत बड़ी समस्या रोज़ के कमाने खाने वाले वर्ग की है । उसकी सुध कोई मीडियाकर्मी नहीं ले रहा है , न किसानों की , न थोक और फुटकर विक्रेताओं की क्योंकि उसके लिए मेहनत करनी पड़ेगी , स्टूडियो से बाहर निकल कर जगह जगह जाना पड़ेगा । जान जोखिम में डालनी पड़ेगी ।

    1. दूसरे को गाली देने से पहले कभी खुद पर गौर किया है कि आप क्या कर रहे है। कुछ गरीब को भोजन तो करा ही सकते है। आपकी अट्टालिका के पीछे ही ग़रीबों के घर है। घर में बैठकर उपदेश देने से बेहतर दुनिया में कुछ नहीं है।

  2. Aap Jaise patrakaaron ki is samaj mein avashyakta hai kisi ke Kahane mein aap mat padiyega aap apna kaam karte rahiye aap bahut hi Mahan Hai Main to ek baat Janti hun Ki Jhund Mein Khade Rahana Aam Baat hoti hai aur Akele Khade Rahane ke liye Sahas chahie.

  3. Ap jaise patrakaro ki is desh ko aavashyakta hai ap Mahan hai aap Jo kuchh bhi kar rhe hain vah sab nihsandeh bahut hi great work hai aap Ham logo ko saachchai se hamesa aavgat karate rahiye mai to itna janti hu ki jhund me khade rahna aam bat hai aakele Rayne ke liye shahas chahiye, aap apna work karte rahiye ham log aapko fully support karenge.

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