कोरोना : डरो न, डराओ न

राम दत्त त्रिपाठी 

कोरोना के आगे सारी बीमारियाँ गौण हो गयी हैं। हार्ट अटैक हो जाए, कैंसर हो जाए, टी बी हो जाए, शेर खा जाए , साँप काट ले – पर कोरोना न हो। इतना भयानक भय, बावजूद इसके की इस वायरस से मृत्यु दर बाक़ी बीमारियों से काफ़ी कम है। डर तो इतना है कि कहीं – कहीं  हार्ट अटैक या सामान्य बीमारी से मरने वालों के परिजन भी हाथ नहीं लगाते। ऐसी अनेक खबरें आयीं कि हिन्दुओं का अंतिम संस्कार मुसलमानों ने किया, घर वाले दूर रहे।लखनऊ में कोरोना से मृत एक व्यक्ति को क़ब्रिस्तान में दफ़नाने नहीं दिया, तो पुलिस रात तीन बजे कहीं और ले गयी।

तो भय किस बात का है 

सबसे बड़ा भय तो यह की इस बीमारी को कोई बचाव, टीका या इलाज नहीं है। ठीक होना न होना आपकी रोग प्रतिरोधक क्षमता या कहें ईश्वर पर निर्भर है। दूसरा भय यह कि यह पता देर से चलती है। तब तक आदमी अपने को  स्वस्थ समझकर सामान्य सम्पर्क, व्यवहार करता रहता है और बीमारी फैलती रहती है। अगले को भी नहीं पता कि वह ऐसे व्यक्ति से दूरी बनाकर रखे।इसलिए उत्तम नीति यही है कि बाहरी व्यक्ति से दो तीन मीटर दूर से ही  बात व्यवहार करे। 

तमाम डाक्टर और नर्स इसी चक्कर में इस वायरस की चपेट में आ गए जो साधारण सर्दी, जुकाम, एलर्जी या फ़्लू समझकर मरीज़ देख रहे थे। फिर दूसरा भय यह कि डाक्टरों स्वास्थ्य कर्मियों के पास अपने बचाव के ज़रूरी उपकरण नहीं है।

उधर संदिग्ध मरीज़ का मनोबल भय से पहले ही टूट जाता है।दूसरे बीमारी अपने परिवार, नातेदार से दूर होने का कष्ट।  परिवार और नातेदार भी संदिग्ध की श्रेणी में आ जाते हैं। शुरू में ऐसी भी खबरें आयीं कि  जहां इन लोगों को रखा गया वहाँ, गंदगी, मच्छर, गर्मी और  पसंद का भोजन न मिलने का कष्ट। इस कारण बहुत से संदिग्ध भाग खड़े हुए।

सबसे बड़ा डर समाज का है । यह बीमारी ऐसा  धब्बा लेकर आयी जैसे  किसी ज़माने में टी बी या एड्स से था।  कुछ समय पहले तक समझदार डाक्टर कहते थे कि अंत समय आए तो मरीज़ को अस्पताल या आई सी यू में तड़पाने के बजाय घर पर परिवार के बीच रखें। भगवान का भजन करें। ऐसे ही लोगों के लिए होस्पिस बने हैं, जहां कैंसर या असाध्य रोगियों के मरीज़ ध्यान, योग और भजन से चित्त को शांत रख मृत्यु का इंतज़ार करते हैं, जो अटल सत्य है।धैर्य सबसे बड़ा सम्बल है। लेकिन कोरोना में यह बिलकुल असम्भव है।मरीज़ तो अस्पताल या एकांत में मानसिक रूप से तड़पता ही है, स्वजन साथ छोड़ देते हैं और वे भी दूर से तड़पते हैं।अज्ञात का भय भयावह होता है। सोशल डिस्टैंसिंग या सामाजिक दूरी के नारे ने और भ्रम फैलाया है। जबकि तात्पर्य शारीरिक दूरी से है। जो परिवार गैराज या झुग्गी झोपड़ी में रहते हैं, वे शारीरिक दूरी कैसे बनाएँ? यह भी सवाल है। भारत वर्ष में जितनी विविधता और विषमता है उतने तरह की समस्याएँ भी। 

मेरी एक परिचित लंदन में रहती हैं। उन्हें कोरोना संक्रमण हो गया। मगर वह अस्पताल नहीं गयीं। अस्पताल में वायरस संक्रमण का और ख़तरा है। वह स्वयं घर में अलग कमरे में क़ैद हो गयीं। दो छोटे बच्चों के देखभाल पति ने की। शीशे की खिड़की से माँ अपने बच्चों को देखती, बच्चे माँ को।दोनों तरफ़ से शीशे पर हाथ रखकर स्पर्श का एहसास भी। दो हफ़्ते में वह स्वस्थ हो गयीं। ऐसे भी मामले आए हैं जहां सौ साल पार वाले भी कोरोना से जीत गए।  

मेरे दिमाग़ में एक ख़याल आ रहा है कि जिनके पास पर्याप्त बड़े घर हैं, और बीमारी ने गम्भीर रूप नहीं लिया है,( वैसे भी अस्पतालों में पर्याप्त बेड और वेंटिलेटर आदि  उपकरणों की कमी है) उन्हें घर पर हाई आइसोलेशन में रखने पर विचार कर लिया जाए। यह निर्णय हर मामले में मरीज़ की स्थिति देखकर करना होगा।दूसरे जिन्हें अस्पताल या सरकारी एकांतवास में रखा जाता है, उन्हें परिजनों, मित्रों से वीडियो पर बात करने की सुविधा देने पर विचार किया जाए। इससे परिजनों को भरोसा होगा कि मरीज़ ठीक है, या जैसा भी है। दूसरे बीमार को भी मानसिक सम्बल मिलेगा।

यह बात मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मैंने अस्पताल में  कोरोना मरीजों  को सामान्य  रूप से दिनचर्या करते और भजन कीर्तन करते वीडियो देखा और उससे मुझे सुकून हुआ ।

कोरोना के साथ – साथ कोरोना का भय भगाना भी ज़रूरी है। कोरोना से डरो न, और डराओ न। धैर्य से मुक़ाबला कर, जाँच और उपलब्ध इलाज कर उसे परास्त किया जा सकता है। और फिर अगर मृत्यु आनी ही है , तो उसे कौन रोक सकता है। उसका भी स्वागत करना श्रेयस्कर है, बजाय डरने के।

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