प्राचीन योग शास्त्र और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के मेल से नए ज्ञान का विकास संभव  

विश्व योग दिवस

डा चन्द्रविजय चतुर्वेदी , वैज्ञानिक, प्रयागराज 

   इक्कीस जून को सारी दुनिया में विश्व योग दिवस बहुत उत्साह से मनाया जाता है। योग आज एक ऐसा विषय बन गया है जिसके प्रति सहज रूप से आकर्षण बढ़ता ही जा रहा है ,यद्यपि योग एक दुरूह आध्यात्मिक प्रक्रिया है और सच्चे योगी दुर्लभ हैं। इस उत्तर आधुनिक युग में मानव सहज रूप में भोग की ओर आकर्षित होता है। मानव मन भोग भोगते हुए रोग नहीं भोगना चाहता ,इसलिए वह योग की और भाग रहा है जिससे वह सुख शांति के साथ भोग भोग सके। योग और भोग दोनों विपरीत ध्रुव हैं परन्तु इनके एकता की विधि खोजी जा रही है जो स्वागत योग्य है। गृहस्थ जीवन में यदि योग और भोग के मिश्रित जीवनयापन की परंपरा विकसित हो सके तो एक कल्याणकारी समाज की संरचना हो सकती है। इस कोरोना युग में लाकडाउन के दौरान जब अस्पतालों की बंदी चल रही थी तो लोग योग साधना के माध्यम से ही इम्युनिटी बढ़ाने का प्रयास अपने स्तर से ही करते रहे। 

प्राचीन विद्या      

योग शास्त्र भारत के सबसे प्राचीन दर्शनों में से है। योग के आदि देव के रूप में शिव को तथा योगिराज के रूप में कृष्ण को याद किया जाता है। महर्षि पतंजलि को सुविख्यात योगशास्त्रीय ग्रन्थ पातञ्जलियोगसूत्र का प्रणेता माना जाता है। पातंजलि योगसूत्रों को षट्दर्शनो में सर्वाधिक प्राचीन बताया जाता है। कुछ विद्वानों का मत है की इसका रचनाकाल बौद्धयुग से भी पहले ईसा पूर्व 700 वर्ष है परन्तु डा राधाकृष्णन ने इसका रचना काल ईसा पूर्व 300 वर्ष निर्धारित किया है। विभिन्न प्राचीन ग्रंथों में बिखरे हुए योग सम्बन्धी विचारों का संग्रह कर पतंजलि ने योगदर्शन जैसे गंभीर और सर्वांगीण ग्रन्थ की रचना की जो प्राचीन भारत की दार्शनिक श्रेष्ठता प्रदर्शित करता है। 

  

योग सूत्र के सिद्धांत, योग मात्र व्यायाम नहीं 

 

 आत्मा और जगत के सम्बन्ध में सांख्यदर्शन जिन सिद्धांतों का प्रतिपादन करता है ,योगदर्शन भी उन्हीं  का समर्थक है। योग ,सांख्य के पच्चीस तत्वों को स्वीकार करते हुए छब्बीसवाँ तत्व पुरुष विशेष भी मानने से सांख्य जैसा निरीश्वरवादी नहीं है। योगसूत्र के सिद्धांतों के अनुसार चित्तवृत्तियों का निरोध ही योग है। इन चित्तवृत्तियों का निरोध अभ्यास एवं वैराग्य से होता है। पतंजलि के अष्टांग योग में आठ क्रमिक साधनो –यम ,नियम , आसन ,प्राणायाम ,प्रत्याहार ,धारणा ,ध्यान तथा समाधि का पालन करना पड़ता है। योग के साधना का मार्ग बहुत कठिन होता है। यम नियम के अभ्यास द्वारा आवश्यक नैतिक क्षेत्र तैयार किये बिना अगली साधनाओं में प्रवेश नहीं किया जा सकता। योग एक गूढ़ विज्ञान है जिसे गंभीरता से जानने समझने की आवश्यकता है। यह मात्र व्यायाम नहीं है ,यह परम साधना है जो सद्गुरु के निर्देश और नियंत्रण में ही प्राप्त होती है। 

मोक्ष का उपाय योग        

योगदर्शन के अनुसार संसार दुखमय है ,जीवात्मा को मोक्ष प्राप्ति के लिए योग ही एक मात्र उपाय है। योग दर्शन का दूसरा नाम कर्मयोग भी है जो साधक को मुक्तिमार्ग सुझाता है। योगः कर्मसु कौशलम ,कुशलता पूर्वक कर्म करते रहना ही योग है। योग में स्थित होकर कर्म करना ही साधना है। समत्व योग उच्यते –कर्म करने से फलाकांक्षा मन को अधीर न कर दे ,लाभालाभौ जयाजये ,जो भी कर्मफल हो उसे स्वीकार करने में कोई संशय न हो। यही मन की सम अवस्था है जिसे योग कहते हैं। यही कर्मयोग है जिसके लिए विराट इच्छा शक्ति आवश्यक है जिसे सहज बनाने के लिए ज्ञान और भक्ति का आश्रय लेना होता है। 

     मानव का अंतिम लक्ष्य है मोक्ष और धर्म का उद्देश्य  है की मानव को यह मोक्ष समाधि के रूप में उपलब्ध कराये। समाधि तक पहुँचने के लिए कुंडलिनी शक्ति को जागृत करना और षट्चक्रों को भेदन करना आवश्यक है। योगी कुण्डलिनी चक्र को जागृत करता है ,जो शक्तिरूपा ,प्रसुप्तावस्था में मूलाधार में निवास करती है। साधनाओं के माध्यम से कुंडलिनी का जागरण होता है। योग साधना -के अलावा ये साधनायें हैं –जप ,ध्यान ,कीर्तन ,प्रार्थना ,गुणों का विकास , सत्य अहिंसा प्रेम के प्रति समर्पण जिनसे कुण्डलिनी जागृत होती है 

      भारतीय दर्शन योग शास्त्र के षट्चक्र तथा वेदांतके सप्तलोक एक ही हैं –1 -मूलाधार -भू ,2 –स्वाधिष्ठान -भुवः ,3 -मणिपुर -स्वः ,4 -अनाहत -महा ,5 -विशद्ध –जना ,6 -आज्ञा -तपः ,7 –सहस्रार -सत्यम। कुण्डलिनी जागृत होने पर सुषुम्ना नाड़ी के भीतर से षट्चक्रों का भेदन करती हुई अंत में सहस्रार में पहुंचती है जहाँ सदाशिव परमब्रह्म निवास करते हैं ,यही आत्मा का परमात्मा का मिलान होता है। यही समाधि की स्थिति है। 

         मूलाधार ,स्वाधिष्ठान ,मणिपुर लोक तक कुंडलिनी की यात्रा में मन ,गुह्य ,लिंग और नाभि का ही भ्रमण करता रहता है। यह तीन लोक पशुओं में भी होता है। कुण्डलिनी शक्ति का इन तीन लोक तक निवास करने की अवधि में मानव शिश्नोदरी जीवन ही जी पाता है। बहुत सारे साधक इसी तीन लोक तक की यात्रा में रह जाते हैं। चौथे लोक अनाहत पर पहुँच कर जीवात्मा को ज्योति का दर्शन होने लगता है। पांचवे लोक पर पहुंचकर जीवात्मा प्रकाशमय हो जाता है ऊर्जा की अनुभूति होने लगती है। षष्टलोक और आज्ञाचक्र एक ही है यहाँ पहुंचकर जीवात्मा ऊर्जामय हो जाता है। सप्तलोक पहुँच जीवात्मा परमात्मा में लीन हो जाता है ,जीवात्मा समाधिस्थ हो जाता है ,देहबुद्धि चली जाती है। बाह्य ज्ञान नहीं रहता ,अनेकत्व का बोध नष्ट हो जाता है। सहस्रार पर पहुंचकर आत्मा का सदाशिव से मिलन होता है ,यही आनंद की परम स्थिति है। 

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान और योग का समन्वय   

विश्वयोग दिवस के अवसर पर यह भी एक विचारणीय विषय है की मानव शरीर के महत्वपूर्ण ग्लैंड भी उन्ही स्थानों पर स्थित होते हैं जहाँ ये चक्र या लोक हैं। ये ग्लैंड मानव शरीर की क्रियाविधि के महत्वपूर्ण अवयव हैं। आज यह आवश्यक है की प्राणिविज्ञानी और योगशास्त्र के मनस्वी मिलकर इनके परस्पर संबंधों पर प्रयोग करें जिससे मनुष्य की शारीरिक व्याधियों के निराकरण में योग महत्वपूर्ण भूमिका निभा सके। 

Leave a Reply

Your email address will not be published.

11 − ten =

Related Articles

Back to top button