ध्यान भीतरी संपदा को उजागर करने माध्यम है: उषा बहन

विनोबा विचार प्रवाह अंतर्राष्ट्रीय संगीति

लखनऊ (विनोबा भवन) 29 अगस्त। मनुष्य जीवन में ध्यान और प्रार्थना जीवन के अभिन्न अंग होना चाहिए। व्यक्तिगत चेतना में परमात्म चेतना का आविर्भाव करना ध्यान है। ध्यान का लक्ष्य सिद्धि नहीं चित्त शुद्धि है। ध्यान भीतरी संपदा को उजागर करने का माध्यम है। चित्त खाली भी हो और खुला भी होना चाहिए। अपने मूल स्रोत की खोज मनुष्य का अंतिम लक्ष्य है। अध्यात्म के क्षेत्र में सामूहिक समाधि का विचार विनोबा जी की मौलिक देन है।
उक्त विचार सत्य सत्र की वक्ता ब्रह्मविद्या मंदिर पवनार की अंतेवासी सुश्री उषा बहन ने विनोबा विचार प्रवाह द्वारा विनोबा जी की 125वीं जयंती के उपलक्ष्य में फेसबुक माध्यम पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय संगीति में व्यक्त किए।

सुश्री उषा बहन ने ध्यान के विभिन्न सोपान को स्पष्ट करते हुए कहा कि ध्यान आत्मचिंतन के लिए होना चाहिए। बाहर के आकाश से भीतर का आकाश बहुत गहरा है। ध्यान में भीतरी संपदा से संपर्क करना है। शरीर भस्मीभूत होने के पहले अमृतत्व को प्राप्त कर लेना है। सुश्री उषा बहन ने ध्यान की विविध प्रक्रियाओं पर प्रकाश डालते हुए बताया कि सर्वप्रथम हमें श्वास-प्रश्वास की गति पर अपना चित्त केंद्रित करना चाहिए। चित्त संचार का साक्षी बनना चाहिए। वहा जहां जाता है, उसे देखना है। उसके भ्रमण के कौन से स्थान हैं, उसे नोट करना है। इस आसक्ति का हटाने का प्रयत्न करना चाहिए। इसमें नकारात्मकता को दूर कर सकारात्मकता को बढ़ाना चाहिए।

ध्यान के क्षेत्र में सिद्धियां बाधक

ध्यान के लिए पहले आलंबन लिया जा सकता है, लेकिन बाद में निरालंबन ध्यान का अभ्यास करने का प्रयत्न करना चाहिए। तब ध्यान में मूल स्रोत के साथ संबंध जुड़ जाता है। इससे हम अपने चित्त को समझ सकते हैं। उन्होंने कहा कि ध्यान आदि में व्यक्तियों को सिद्धि का आकर्षण रहता है। लेकिन मनुष्य जीवन सिद्धियों के लिए नहीं है। इसमें हमारी चेतना को नहीं अटकाना है। सिद्धियों के कारण चमत्कार होते हैं। लेकिन साक्षात्कार इससे ऊंची अवस्था है। संतों ने सिद्धि को प्रकृति की माया कहा है। महर्षि पतंजलि ने सिद्धियों को समाधि का क्षय करने वाला बताया है। ध्यान के क्षेत्र में सिद्धियां बाधक होती हैं। ध्यान का लक्ष्य चित्त शुद्धि है और इससे साक्षात्कार में सहायता मिलती है। गांधी, विनोबा जैसे शुद्ध चित्त व्यक्तियों के कारण अनेक लोगों के जीवन में परिवर्तन आया। विनोबा ने चित्त के समाधान को समाधि की उपमा दी है समाधानयुक्त चित्त ही समाधि है।
चौबीसों घंटे समाधान रहने से प्रसन्नता बनी रहती है। प्रसन्न याने निर्मल, विशुद्ध आध्यात्मिकता जीवन व्यतीत करना। उन्होंने कहा कि शुद्ध चित्त को समाधि लगाने का प्रयत्न नहीं करना पड़ता।

सुश्री उषा बहन ने ध्यान और ज्ञान समाधि का अंतर बताते हुए कहा कि ध्यान समाधि चढ़ती-उतरती है, जबकि ज्ञान समाधि सहज और स्थायी होती है। निस्वप्न निद्रा भी समाधि है। सुश्री उषा बहन ने विनोबा जी के सामूहिक समाधि के विचार को बताते हुए कहा कि वे स्वयं इसे कल्पना मानते हैं। परंतु उन्हें इस कल्पना में बहुत उत्साह आता है। विनोबा जी के हृदय की आकांक्षा सामूहिक समाधि के लिए लालायित रहती है।

उन्होंने कहा कि चित्त की एकाग्रता पहली चीज है। इसके लिए जीवन में परिमितता होनी चाहिए। दैनिक क्रियाकलाप नाप-तौल कर किए जाएं। जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक वस्तुओं का ही उपयोग किया जाए। योगयुक्त जीवन हो। कर्ता में अहं भाव रहता है जबकि दृष्टा में हम तटस्थ भाव में रहते हैं। इस तटस्थ भाव को बढ़ाया जाए। उषा बहन ने कहा कि ध्यान करने की नहीं होने की चीज है। प्रत्येक चीज यथास्थान हो तो हमारा ध्यान में प्रवेश हो जाएगा। विनाबा जी ने चार शब्द दिए हैं सह्य, स्वच्छ, सुंदर और पवित्र। शुचिता से आत्मदर्शन हो सकता है।

वर्तमान में जीने वाला व्यक्ति आलसी नहीं होता। अपने भीतर अनेक परतें हैं और उन्हें खोलने के लिए अपने से मुलाकात करना जरूरी है। ध्यान करने का आशय है सृष्टि में से गुण खींचना। ध्यान के लिए किसी भी प्रकार की संस्कारबद्धता से मुक्त होना चाहिए। जाति, पक्ष, पंथ, भाषा आदि अभिमान बढ़ाने वाले कारक हैं। ध्यान का सदुपयोेग और दुरुपयोग हो सकता है। लेकिन ध्यान में डूब जाना भी अनुचित
है। विनोबा जी ने चैबीस मिनट का ध्यान काफी माना है। ध्यान और कर्म को अलग-अलग मानेंगे तो ध्यान शैतान बन जाता है। ध्यान से कर्म वीर्यवान बनता है और वह निष्क्रियता से बचाता है।

प्रेम सत्र में प्रसिद्ध कवयित्री श्रीमती नंदिनी मेहता ने कहा कि जो हम चाहें जिंदगी में वह मिल जाए और हम खुश हों इसके बजाए ईश्वर जो चाहे वह हमें मिल जाए तब हमें खुश होना चाहिए। उन्होंने ‘खुशी की खोज’ कविता सुनाते हुए कहा कि जो न मिला मुझे उसका दुःख है/ जा मिला उसे क्यो भूल जाऊं, दुःख के चुल्लूभर पानी में अपनी खुशी की दुनिया को क्यों डुबाऊं। क्यों अपनी पीड़ा में इतना डूब जाऊं कि दूसरे के आंसू न देख पाऊं। श्रीमती मेहता ने दर्द की दवा और अपना मान कविता सुनायी।

करुणा सत्र की वक्ता गुजरात विद्यापीठ की पूर्व प्राध्यापिका सुश्री भद्रा बहन ने गांधी कथावाचक श्री नारायण भाई देसाई के प्रिय भजन को सुनाया। उन्होंने  कहा कि बाहर से संतोष होने पर भीतर असंतोष बना रहता है। भीतरी समाधान के लिए करुणा तत्व आवश्यक है।

सुश्री भद्रा बहन ने गांधीजी, विनोबा जी, जमनालाल बजाज, वल्लभ स्वामी के प्रेरक प्रसंग प्रस्तुत किए। संचालन श्री संजय राॅय ने किया। आभार श्री रमेश भैया ने माना।

डाॅ.पुष्पेंद्र दुबे

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