राम होने का मतलब : सबके राम
आज राम का नाम लेने वाले तो बहुत हो गये हैं लेकिन बहुतों को पता ही नहीं राम होने का मतलब क्या होता है? वरिष्ठ पत्रकार राम दत्त त्रिपाठी का लेख
हिन्दू या वैदिक धर्म की सबसे बड़ी खूबी है कि इंसान को अंतरात्मा की पूरी आज़ादी है . वह ईश्वर को माने ,या न माने जिस रूप में चाहे उस रूप में माने , कोई उसे धर्म से बाहर नहीं कर सकता . उसमें विचारों पर पहरा नहीं है . मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना .
उपनिषद भी सवाल जवाब को प्रोत्साहित करते हैं . यहॉं तक कि बालक नचिकेता को यमराज से सवाल करने में भी डर नहीं लगता .
भारतीय संविधान में भी धार्मिक स्वतंत्रता की अवधारणा को स्वीकार किया गया है.
ईश्वर का कोई अवतार अनंत काल के लिए नहीं आता. संभभवामि युगे-युगे अर्थात् ईश्वर हर युग की ज़रूरत के अनुसार अवतार लेता है और अपना काम पूरा करके चला जाता है. ऐसे ही एक अवतार भगवान राम हैं.
भगवान राम भारतीय समाज के मानस पटल पर इतने गहरे और व्यापक रूप में अंकित हैं कि सबको अपनी – अपनी सोच और ज़रूरत के मुताबिक़ कुछ न कुछ रक्षा कवच मिल ही जाता है चाहे वह आस्तिक हो या नास्तिक , सगुण ईश्वर का उपासक हो या निर्गुण . हिंदू हो मुस्लिम हो या ईसाई. राम सबके हैं .
सगुण और निर्गुण राम
एक राम दशरथ का बेटा है और वहीं एक राम घट – घट में बैठा है , सर्वव्यापी है। सीयराम मय सब जग जानी .
विष्णु ने राम के रूप में लोगों के कल्याण के लिए मनुज अवतार लिया है, वह दीन दयालु हैं , कृपालु हैं . और वही राम अजन्मा भी है .
जिस राम ने अवधपुरी में जन्म लिया, यानी शरीर धारण किया कौशल्या के बेटे के रूप में . उस राम ने अंत में सरयू में जल समाधि ली और वही राम अजर – अमर है भी है. न वह जन्मा और न मृत्यु को प्राप्त हुआ।
वाल्मीकि के राम अयोध्या के राजा हैं जो एक ब्राह्मण की शिकायत पर ब्राह्मण तपस्वी शम्बूक का वध करते हैं , ख़ान पान भी अलग है, सीता का परित्याग करते हैं ।
लेकिन तुलसी ने अपने समय की ज़रूरत के मुताबिक़ बहुत से पुराने और अप्रिय या ग़ैर ज़रूरी प्रसंग हटाकर राम का नया चरित्र गढ़ा, जो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और आदर्श शासक भी . तुलसी के राम पिता के आदेश का पालन करते हुए राज पाट छोड़कर वन जाते हैं, केवट के गले लगते हैं और शबरी के जूठे बेर भी खाते हैं. एक आम इंसान की तरह सीता हरण के बाद रोते हैं। पेड़ पौधों से पूछते हैं कि किसी ने मृग नयनी को देखा हो तो बताये .
तुलसी के राम
पिछले पाँच सौ सालों में राम के दो सबसे बड़े या लोकप्रिय भक्त हुए एक गोस्वामी तुलसी दास और दूसरे महात्मा गांधी। तुलसी दास ने तो वृंदावन जाकर भगवान कृष्ण को भी कह दिया था कि रघुनाथ की तरह हाथ में धनुष बाण लेकर दर्शन दीजिए तभी प्रणाम करूँगा। तुलसी मस्तक तब नवे जब धनुष बान लेऊ हाथ।यह प्रकरण दर्शाता है कि सबको अपने – अपने भगवान की कल्पना की पूरी स्वतंत्रता है।
तुलसी के राम को सरयू के किनारे बसी समूची अवध पुरी परम सुहावनी लगती है . वह ठीक- ठीक वह कोना ढूँढने की ज़रूरत नहीं समझते जिसे उनके भगवान राम का जन्म स्थान कहा जा सके. वह तो रघुनाथ गाथा के माध्यम से एक आदर्श पारिवारिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था का स्वरूप दिखाना चाहते हैं.
तुलसी दास के राम चरित मानस के अलावा राधेश्याम रामायण भी बहुत लोकप्रिय है. हमारे गॉंव की राम लीला में हम लोग राधेश्याम रामायण का इस्तेमाल करते थे . गॉंव की राम लीला में मैं लक्ष्मण की भूमिका में होता था. लक्ष्मण परशुराम संवाद रामलीला का एक रोचक प्रसंग होता था.
धनुष यज्ञ और राम विवाह के दूसरे दिन राम बरात घर – घर घूमती थी , जिसमें हमारी माँ, दादी और हमारे परिवार के बुजुर्ग ही राम लक्ष्मण का स्वरूप धारण किये हम लोगों के पैर छूकर आरती उतारते थे . आशीर्वाद माँगते थे। यह भगवान राम के प्रति अगाध श्रद्धा है.
हमारे बचपन में दुआ सलाम के लिए राम – राम या जै राम जी कहते थे . इन दोनों में प्रेम की भावना और ध्वनि थी . फिर 1984 में बाबरी मस्जिद बनाम राम मंदिर ऑंदोलन शुरू हुआ तो जय श्रीराम के आक्रामक नारे गूंजने लगे , जिसमें वह मिठास और प्रेम नहीं है.
रामायण की कथाएँ बहुत से लोगों ने लिखी हैं और हर एक में कुछ न कुछ भिन्नता या विशेषता है, लेकिन तुलसीदास के राम चरित मानस हैसा कोई लोकप्रिय नहीं।
कवि अल्लामा इक़बाल राम की कल्पना इमाम – ए – हिन्द के रूप में करते हैं-
है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़, अहले – नज़र समझते हैं इसको इमाम – ए – हिन्द।
मगर देश आज़ाद होते ही राम के नाम पर हिंदू – मुस्लिम विवाद शुरू हो गया जब 22/23 दिसंबर की रात अयोध्या की बाबरी मस्जिद में भगवान राम की मूर्ति चोरी छिपे रख दी गयी। इससे पहले इस स्थान पर भी विवाद हुए थे, लेकिन हिंदू पक्ष मस्जिद के अहाते में ही एक स्थान राम चबूतरा मानकर पूजा अर्चना करने लगा और विवाद टल गया था।
फिर 1984 राम जन्म भूमि मुक्ति आंदोलन शुरू हुआ, जिसके बारे में सभी जानते हैं। इस आंदोलन की परिणति हुई छह दिसंबर को जब मस्जिद को ढहा दिया गया। जब छह दिसंबर को बाबरी मस्जिद टूटी तो कैफी आज़मी ने एक लंबी कविता लिखकर कहा कि राम को दूसरा वनवास हो गया .
“राजधानी की फ़ज़ा आई नहीं रास मुझे
छे दिसम्बर को मिला दूसरा बन–बास मुझे”.
इन राम भक्त कारसेवकों ने कितने लोगों के कष्ट दिया, यद्यपि तुलसी दास कह गये हैं- पर पीड़ा सम नहीं अधमाई .
इंटरनेट पर कवि रसखान के हवाले से भी एक कविता मिलती है
कहते रसखान हैं मुरशिद से मिलो ढूँढ़ अबी।
राम के भजन बिन दोज़ख में जाय पड़िहैं सबी।१।
राम औ कृष्ण विष्णु कहते हैं उन्हीं को नबी।
जान लेवैंगे है यह सच्चा मेरा दास कबी।२।
पहले एक स्थानीय अदालत ने राम चबूतरे पर मंदिर बनाने की इजाज़त यह कहते हुए नहीं दी थी कि अग़ल बग़ल मंदिर और मस्जिद होने से भविष्य में दोनों संप्रदायों में झगड़े होंगे और खून ख़राबा होगा। सुप्रीम कोर्ट ने विशेषाधिकार के इस्तेमाल करके सारी विवादित भूमि और अग़ल बग़ल की अधिग्रहीत ज़मीन हिंदू पक्ष को दे दी। मस्जिद के लिये काफ़ी दूर नयी ज़मीन दे दी गई। अब जल्दी ही अयोध्या में एक भव्य राम मंदिर बनकर तैयार हो जायेगा, अगले लोक सभा चुनाव से पहले . पर कौन जाने मर्यादा पुरुषोत्तम को वह दिव्य और भव्य नया घर पसंद आयेगा या नहीं।
गांधी के राम
साबरमती के संत , मोहन दास करम चंद गॉंधी जिस राम का हर पल जाप करते थे और मरते समय भी जिस राम का नाम उनके मुख से निकला वह तो अयोध्या के राजा दशरथ का बेटा हैं ही नहीं , वह तो सर्वव्यापी है . और केवल उसके नाम का जाप सब व्याधियों से मुक्ति दिलाने वाला है.
राम से बड़ा राम का नाम। यह कोई गॉंधी की अपनी खोज नहीं है . राम विष्णु के अवतार हैं और आयुर्वेद के ग्रंथ ग्रंथ चरक संहिता के अनुसार विष्णु के हज़ार नामों में से किसी एक का जाप करने मात्र से सारे रोगों का नाश हो जाता है. मगर शुद्ध भावना से . उसका भी अपना विज्ञान है .
गॉंधी के राम किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष से बंधे नहीं है . वह कहते हैं ईश्वर अल्ला तेरो नाम , सबको सन्मति दें भगवान.
गॉंधी ने आज़ाद भारत में आदर्श समाज और राज्य का मतलब आम आदमी को समझाने के लिए राम राज्य की उपमा का सहारा लिया . राम के नाम पर गॉंधी सत्य , अहिंसा, स्वतंत्रता, समानता , न्याय और बंधुत्व पर आधारित समाज बनाना चाहते थे जिसके सूत्र उन्हें अन्य स्थानों के अलावा रामायण में मिले .
राम राज्य में प्रजा भी आदर्शवादी थी। गांधी के समय न राज आदर्श स्थिति में था न समाज . वह सत्य और अहिंसा के मूल मंत्र से नया राज और समाज बनाने के लिए काम कर रहे थे , जो तमाम पुरातनपंथी राजे रजवाड़ों और सामंतवादी सोच वालों को पसंद नहीं था . सावरकर जैसे लोगों को भी गॉंधी पसंद नहीं थे . इसीलिए गॉंधी की हत्या के प्रयास 1934 से ही शुरू हो गये थे . भारत विभाजन तो बहाना था.
संत तुलसी दास ने राम राज्य का वर्णन करते हुए लिखा है –
बयरु न कर क़ाहू सन कोई , राम प्रताप विषमता खोई .
नहिं दरिद्र कोई दुखी न हीना .
चाहें तो साम्यवादी भी गॉंधी की तरह समानता आधारित समाज के सूत्र रामायण में खोजकर अपने को भारतीय जान मन से जोड़ सकते हैं . पर वे ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि कार्ल मार्क्स ने ऐसा नहीं लिखा . पता नहीं कम्युनिस्ट क्यों आज भी गॉंधी से दुश्मनी मानते हैं , जबकि देश पर फ़ासिज़्म का ख़तरा मंडरा रहा है.
डा. राम मनोहर लोहिया अवध में सरयू किनारे के ही रहने वाले थे , वह थे तो नास्तिक लेकिन राम के चरित्र से इतना प्रभावित थे कि रामायण मेला की परिकल्पना की थी।बाद में जनता सरकार बनने पर इसे चित्रकूट में भव्य रूप में आयोजित किया गया , जिसका उद्घाटन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने किया। उस रामायण मेले में लोकनायक जयप्रकाश नारायण का संदेश पढ़कर सुनाने का अवसर मुझे मिला . डा लोहिया का मानना था कि राम भारत में उत्तर और दक्षिण की एकता के सूत्र थे. उनकी कल्पना के
रामायण मेले में राम कथा पर मुख्य भाषण एक ईसाई विद्वान फ़ादर कामिल बुल्के का होता था। राम कथा पर उनकी किताब भी है.
संविधान में राम
आज़ाद भारत में जब 1950 में संविधान सभा ने “हम भारत के लोगों” की ओर से अपने संविधान को अंगीकार किया तब न तो गांधी थे और न ही नागपुर वालों का कोई दबाव था। नागपुर वाले तो वैसे भी राम को एक ऐतिहासिक पुरुष तक सीमित रखते हैं . फिर भी नेहरू और कॉंग्रेस की तत्कालीन सरकार ने संविधान के मौलिक अधिकार वाले अध्याय में भगवान श्री राम का चित्र अंकित कराया .
इस प्रक्रिया में डा अम्बेडकर भी शामिल थे. राम का चित्र इसलिए लगा क्योंकि राम को आदर्श शासक माना गया जिन्होंने एक सामान्य नागरिक के मौलिक अधिकारों का सम्मान किया . रामराज्य की परिकल्पना एक आदर्श कल्याणकारी राज्य की कल्पना है – जहां किसी को दैहिक दैविक और भौतिक कष्ट नहीं होता.
जिस तरह राम युद्ध से पहले रावण को सम्मानपूर्वक अपना पुरोहित बनाते हैं , युद्ध से पहले विभीषण को शरण देते हैं , रावण के अंत समय में लक्ष्मण को उनसे ज्ञान प्राप्त करने भेजते हैं और फिर रावण का अंतिम संस्कार विधि विधान से करके विभीषणको लंका का राज पाट सौंप देते हैं वह भी राजनीति और कूटनीति के उत्तम उदाहरण हैं।
राम के चरित्र से क्या ग्रहण करें
सवाल यह भी उठता है कि राम के चरित्र से हम आज क्या ग्रहण करें . नयी पीढ़ी को राम के इस चरित्र से कौन परिचित करायेगा ?राम राज्य में एक आदर्श कल्याणकारी, जनता के प्रति जवाबदेह सरकार और सुशासन के सूत्र हैं . तुलसी के राम चरित मानस में एक अकेला राम विवाह का प्रसंग भगवान राम के संपूर्ण स्वरूप का दर्शन कराता हैऔर अहिल्या के पत्थर हो जाने के मर्म को भी समझाता है . तुलसी की कल्पना के राज्य में राजा को भी दंड देने की व्यवस्था थी –
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी ,
सो नृप अवसि नरक अधिकारी.
स्वर्ग और नरक किसने देखा है ? पर भारतीय संस्कृति में कर्म फल और कर्म दंड यहीं भोगना पड़ता है.
उदाहरण पड़ोसी देश नेपाल से ले लीजिए जो कुछ वर्षों तक हिन्दू राष्ट्र था और राजा विष्णु का अवतार माना जाता था. लेकिन कुशासन, गरीबी और बेरोज़गारी से परेशान जनता न केवल राजा को गद्दी से उतार फेंका बल्किसंविधान सभा ने हिन्दू राष्ट्र का दर्जा भी समाप्त कर दिया .
राम होने का मतलब
आज राम का नाम लेने वाले तो बहुत हो गये हैं लेकिन बहुतों को पता ही नहीं राम होने का मतलब क्या होता है? राम सबके पालनहार हैं . राम को किसी सम्प्रदाय और देश, शहर या स्थान की सीमा में बॉंधा नहीं जा सकता. सारा विश्व उनका है और वह सारे विश्व के हैं.
टिप्पणी : कबीर के राम अवतारी नहीं
कबीर के राम एक ‘पावरहाउस’ हैं, जहाँ से वे जातिवाद से लड़ने की शक्ति लेते हैं। उनके राम अवतारी कदापि नहीं हैं –
“दशरथ सुत तिहुँ लोक बख राम नाम का मरम है आना।।”
कबीर अपने राम को अवतारी राम की छाया से भी दूर रखना चाहते हैं। उनके राम ‘कमलनयन’ वाले नहीं हैं, फिर भी उनकी चेतना ज्यादा मानवीय है।
कबीर अपने राम के साथ मानवीय सम्बन्ध स्थापित करते हैं –‘हरि मेरा पीव मैं हरि की बहुरिया’। अपने भगवान के साथ मानवीय सम्बन्ध की कल्पना करना बहुत बड़ी बात है। तत्कालीन समाज में शूद्रों के लिए मंदिर-प्रवेश निषेध था, कुछ हद तक यह व्यवस्था आज तक बनी हुई है। वह शूद्र भगवान से प्यार करता है, पत्नी बनता है, भगवान के अपने भीतर होने की बात करता है। यह अपार क्रांतिकारिता और घोर सामाजिकता है। कबीर के राम मानवता की लड़ाई में एक विजयी झंडा हैं जिनके सामने कमलनयन वाले राम फीके पड़ जाते हैं। उनके राम किसी अवतारी राम से कम आदर्शवान् नहीं हैं। सिर्फ़ हमें परखने की दृष्टि और सहने की मानसिक क्षमता होनी चाहिए। कबीर राम के सहारे सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ते हैं। मुक्तिबोध ने लिखा है –“पहली बार शूद्रों ने अपने संत पैदा किए। अपना साहित्य और अपने गीत सृजित किए। कबीर, रैदास, नाभा, सिंपी आदि-आदि महापुरुषों ने ईश्वर के नाम पर जातिवाद के विरुद्ध आवाज़ बुलंद की।”[1]
डा आर अचल वैद्य, देवरिया