आजादी के बाद कैसे बदली अयोध्या और अयोध्या रामजन्मभूमि -बाबरी मस्जिद का आंदोलन

चुनावी राजनीति की डोर ने उठाया भरपूर लाभ एक स्थानीय समस्या दावानल बन गयी।

सुमन गुप्ता

आजादी के बाद ही अयोध्या राजनीति का एक रणक्षेत्र और एक प्रयोगशाला बन गया जिसका प्रभाव राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी पड़ा। अयोध्या से ही राजनीतिक दलों की चुनावी राजनीति तय होने लगी। कांग्रेस ने 1989 में लोकसभा चुनाव अभियान की शुरूआत ही अयोध्या-फैजाबाद से शिलान्यास के एक सप्ताह पूर्व ‘रामराज्य की स्थापना के संकल्प के साथ किया था।

15 अगस्त 1947 को देश के आजाद होने और 26 जनवरी 1950 को सविधान के लागू होने के बीच अयोध्या में दो बड़ी घटनाएं घटीं।एक, 22/23 दिसम्बर 1949 को बाबरी मस्जिद में मूर्ति का रखा जाना जो पहले एक छोटी और स्थानीय घटना मात्र थी और दूसरी आजादी के बाद अयोध्या-फैजाबाद का उपचुनाव 1948 में आचार्य नरेन्द्रदेव को हराने के लिए किये गये प्रयास।

आक्रामक आंदोलन, ताला खुला 

बाद में भारतीय जनता पार्टी और उसके मातृसंगठन के विभिन्न नामों से चलाये गये आक्रामक आंदोलन और कांग्रेस की रक्षात्मक राजनीति से फलस्वरूप उपजे दावानल ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया। भारतीय जनता पार्टी और उसके संगठन इस पूरे परिदृश्य में आक्रामक रहे।भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शुरूवाती दौर में पर्दे काम करती रही। वहीं भाजपा के फंेके गये जाल में फंसकर कांग्रेस अपनी बुनावट के चलते हिन्दू मुसलमान दोनों के लिए ही कुछ न कुछ करती रही।

1986 में राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में जिस प्रकार फैजाबाद के एक वकील के एक प्रार्थनापत्र पर फैजाबाद की अदालत से ताला खोलने का निर्णय हुआ उसने फास्ट ट्रैक अदालतों को भी पीछे छोड़ दिया। इस निर्णय ने ही विवादित स्थल की नवैइयत बदल देने का काम किया । इसके पहले मूर्ति रखने वाले लोगों के खिलाफ जो मुकदमे चले थे उसमें विवेचना के बाद यही चार्जशीट लगायी गयी थी कि इन लोंगों ने प्राचीन मंदिर जानकर वहां मूर्ति रख दी थी।
कांग्रेस इस विवाद में पूरी तौर रक्षात्मक भूमिका में बनी रही। उसने सब कुछ किया लेकिन ‘ऊंट चरावै निहुरै-निहुरै’ की कहावत की तरह। वैसे इसका राजनीतिक प्रयोग कांग्रेस ने ही 1948 के फैजाबाद-अयोध्या में आचार्य नरेन्द्रदेव को हराने के लिए किया था। यह उपचुनाव प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के 11 विधायकों के इस्तीफे के फलस्वरूप हुआ था। इस चुनाव के बाद  एक घटना 22/23 दिसम्बर 1949 को ऐसी घटी कि अयोध्या के निर्वाणी और निर्मोही अखाडे़ के कुछ साधुओं अभिरामदास, रामविलास दास, शिवदर्शन दास, रामशकल दास, वृंदावनदास, रामसुभागदास, रामबल्लभाशरण का नाम चार्जशीट में आया और ताजीरात हिन्द की धारा 147/448/295 मे चालान कर दिया गया। चार्जशीट में कहा गया कि इन लोगों ने प्राचीन मंदिर समझकर मूर्तियां रख दी थीं। खैर अब सुप्रीम अदालत का फैसला आ चुका है और यह सब रिसर्च और इतिहास की विषयवस्तु हो चुका है।

 बाबरी मस्जिद के विध्वंसकरने का जनता के बीच श्रेय लेेने वाले अभियुक्तगण सीबीआई की विशेष अदालत मे अपना बयान दर्ज कराने के बाद आरोपों के बचाव में साक्ष्य पेश कर रहे हैं जिसका फैसला 31 अगस्त 2020 तक आने वाला है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने अदालत को 31 अगस्त तक फैसला सुनाने का समय दिया है। सबसे मजे की बात यह है कि उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह सहित उप प्रधानमंत्री रहे लालकृष्ण आडवानी और अन्य ने भी एक ही बात कही है कि कांग्रेस सरकार ने राजनीतिक प्रतिद्धंदिता के तहत हमें फंसा दिया है।

रामलला प्रकट 

23 दिसम्बर 1949 को कांस्टेबिल माता प्रसाद ने जो प्राथमिकी दर्ज करायी थी उसके अनुसार बाबरी मस्जिद में कुछ लोगों ने आधीरात को मूर्ति रख दी और भजन कीर्तन शुरू कर दिया कि राम प्रकट हो गये हैं। ‘भए प्रकट कृपाला दीनदयाला’ के लिए पूरे शहर और गांव में रिक्शे पर लाडडस्पीकर से प्रचार शुरू कर दिया गया कि अयोध्या में रामलला प्रकट हो गये हैं। इस घटना के बारें में दूसरे दिन सुबह अयोध्या कोतवाली में रिपोर्ट में कहा गया कि50-60 लोगों की भीड़ में से कुछ लोगों ने दीवार फांदकर मूर्ति रख दी है और अन्दर गेरू से लिख दिया है।

आचार्य नरेंद्र देव बनाम बाबा राघव दास 

यह बदलाव अचानक नहीं हुआ था इसकी पृष्ठभूमि मे कांगे्रस की आन्तरिक और स्थानीय राजनीति और जिला प्रशासन के अधिकारी भी शामिल थे। जून 1948 हुए चुनाव में नास्तिक आचार्य नरेन्द्रदेव को हराने के नारे और रावण की संज्ञा देते हुए पोस्टर ही नहीं चिपकाये गये रामजन्मभूमि के मामले को भी इसमें मुद्दा बनाया गया।

बाबा राघवदास चुनाव जीत गये चुनाव जीतने और बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखे जाने के बाद कांग्रेसी विधायक बाबा राघवदास ने जन्मभूमि में नवान्ह पाठ और रामलला की छठी का कार्यक्रम कराया। इसके पहले ही परिसर की कब्रों को खोदने और खुरच खुरच कर साफ कर दिया गया था। जो कब्रे बचीं उनको समाधि बताया गया। यह स्वीकारोक्ति निर्मोही अखाड़ा के भास्करदास ने की थी। निर्माेही अखाड़ा के सरपंच रामचन्द्राचार्य प्राथमिकी में दर्ज कि सीढ़ी से फांदकर गये, गलत बताते हैं उनका कहना है कि ताले में एसिड रख दिया गया था ,जिससे लीवर गल गया और एक झटके में ही ताला टूट गया तो अभिरामदास ने मूर्ति अंदर रख दी।

अयोध्या में जब यह सब कुछ हो रहा था कांग्रेस में ही जिला महामंत्री अक्षय ब्रम्हचारी इसके खिलाफ थे उन्होंने पार्टी कार्यालय पर अनशन किया। कांग्रेस नेताओं और मंत्रियों का पत्र लिखा। जिलास्तर पर भी अधिकारियों से विरोध व्यक्त किया लेकिन इन सब बातों को कोई असर नहीं पड़ा। जिलाधीश के के के नायर और सिटी मजिस्टेट ठाकुर गुरूदत्त सिंह ने न तो प्रीमियर के निर्देष माने और न ही इन सबमें शामिल लोगो के खिलाफ कोई कार्रवाई हुई। नायर इस्तीफा देकर फैजाबाद में ही बस गये बाद में वे खुद भी जनसंघ से चुनाव लड़े और जनसं़़घ के टिकट पर अपनी पत्नी शकुन्तला नायर और ड्राइवर तक को चुनाव लड़ाया। उनकी पत्नी 1967 कि उत्तर प्रदेश की संविद सरकार में राज्यमंत्री भी थीें। इन दोनों ही अधिकारियों के चित्र बाबरी मस्जिद के बीच की गुम्बद की अन्दर की दीवार पर बनाये गये थे जहां दर्शन के लिए आने वाले लोग कुछ फूल और पैसे चढ़ा देते थे।  यह चित्र छः दिसम्बर 1992 को विध्वंस के साथ ही समाप्त हो गयेे।

कृपया विस्तार से समझने के लिए इसे भी पढ़ें

 https://mediaswaraj.com/ayodhya_history_of_long_dispute/

ठाकुर गुरूदत्त सिंह जो उस समय सिटी मजिस्टेªट थे, रिटायर होने के बाद रामन्मभूमि सेवा प्राकटयोत्सव समिति का प्रधानमंत्री (अध्यक्ष)बनाया गया। एक डिस्ट्रिक मजिस्टेट के आगे प्रीमियर क्या पंत जी जैसे व्यक्ति असहाय हो गये थे कि जब उन्होंने फैजाबाद आने की इच्छा प्रकट की तो डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट ने हाथ खडे़ कर दिये और उन्हें फैजाबाद की हवाई पट्टी के बजाय अकबरपुर 56 किलोमीटर दूर हवाई पट्टी पर उतरना पड़ा।
1951 से लेकर 1981 तक अयोध्या में रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद को लेकर कुछ खास नहीं हुआ। सब कुछ ठंडे बस्ते में पड़ा रहा।
1982 से सरकारी तौर पर राम और अयोध्या को लेकर प्रयत्न आरम्भ हुए उस समय श्रीपति मिश्र उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे उन्होंने अयोध्या में भी चित्रकूट की भांति रामायण मेला का शुभारम्भ कराया अयोध्या के सौंदर्यीकरण की प्रक्रिया आरम्भ की गयी। राम की पैड़ी हरिद्वार की तर्ज पर बनाने की शुरूआत हुई। अयोध्या के 3000वर्ष पूर्व के गौरव को स्थापित करने के लिए अयोध्या भूमि संरक्षण समिति बनी जिसके अध्यक्ष मुख्यमंत्री थे। रामकथा संग्रहालय की स्थापना के प्रयास आरम्भ हुए।

इसके पूर्व तक प्रतिवर्ष रामनवमी मेला, सावन का झूला मेला और कार्तिक पूर्णिमा का परिक्रमा मेला तथा अन्य स्नान पर्व होते रहे। बाबरी मस्जिद के स्वामित्व को लेकर 1961 सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने मुकदमा दायर किया वहीं 1883 के पहले से परिसर के बाहरी हिस्से रामचबूतरा और सीतारसोई पर काबिज निर्माेही अखाड़ा ने 1959 में मस्जिद के अन्दर रखी गयी मूर्तियों की पूजा का सैवियत के रूप में अधिकार मांगते हुए मुकदमा दायर किया कि रामचबूतरे की रखी मूर्तियो को ही अन्दर रखा गया। इन दिनों अयोध्या के विकास की याद भी उत्तर प्रदेश सरकार नहीं आयी।श्रद्धालु लोग बैलगाड़ियों,  में बैठकर आते मंदिरों में रहकर अपना धर्म कर्म करके चले जाते रहे।  

विश्व हिन्दू परिषद की पैदाइश 1964 में हो गयी थी लेकिन वह भी इस दौरान सक्रिय नहीं रही। मूर्ति रखे जाने के बाद दूसरा मुकदमा फैजाबाद के हिन्दू महासभा के गोपाल सिंह विशारद ने 16 जनवरी 1950 को मुंसिफ सदर के यहां वाद दायर किया जिसमें कहा गया कि रामभक्त होने के नाते रामलला के पूजा-पाठ करने दिया जाय और मुसलमानों को वहां पर जाने से रोका जाये। इसके पहले महन्त रामचन्द्र परमहंस ने 5जनवरी1950 को मुकदमा दायर किया जिसमें 5 मुसलमानो को प्रतिवादी बनाया गया। जिलाधिकारी फैजाबाद को भी पार्टी बनाया गया। इसमें मांग की गयी कि पूजा में किसी प्रकार की बाधा न डाली जाय और मूर्ति को हटाने से रोका जाय।  3 मार्च 1951 को दर्शन और पूजा का अधिकार दे दिया और 200 गज के अन्दर मुसलमानों के प्रवेश पर निषेषाज्ञा जारी कर दी।

इस मामले में 5 मुसलमानों जरूर अहमद, हाजी फेकू,मो. शमी, अच्छन मियां और मो. खालिक को प्रतिवादी बनाया। मूर्ति रखे जाने के तीसरे ही दिन मस्जिद की कुर्की हो गयी और मूर्तियों की भोग राग आरती के लिए नगरपालिका फैजाबाद के अध्यक्ष प्रियादत्तराम को रिसीवर बना दिया गया।मुकदमें को दीवानी न्यायालय के सन्दर्भित कर दिया गया।

1951 से 1981 तक कोई संगठन इस मामले में सक्रिय नहीं ेरहा। इन सब घटनाओं से कांग्रेस खुद अवाक चैराहे पर खड़ी थी। कांग्रेस के अन्दर ही एक पक्ष मंदिर पक्ष में था तो दूसरा पक्ष इस घटना को गलत मानता था। बाबा राघवदास की जीत के बाद अयोध्या में प्रतिवर्ष प्राकट्योत्सव का कार्यक्रम 22/23 दिसम्बर को होता रहा लेकिन इसका दायरा इतना छोटा होता था कि लोगों भागीदारी अधिक नहीं होती थी। एक औपचारिकता मात्र था।

1983 में देश के राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह की रामनवमी पर हुई यात्रा के बाद अयोध्या के इस विवाद को पंख लगने शुरू हो गये। यद्यपि वे इस विवादित स्थल पर नहीं गये लेकिन रामनवमी के अवसर पर उनका अचानक अयोध्या पहुचना कुछ सन्देश तो देता था। जो प्राकट्योसमिति ठंडे बस्ते में पड़ी थी उसमें उथल-पुथल हो गयी पदाधिकारी बदल दिये गये और प्राकट्योत्सव के नाम पर एक बड़ा कार्यक्रम उस विवादित परिसर में ही नहीं उसके अन्दर भी आयोजित हुआ अन्दर बीच गुम्बद के नीचे हवन और बाबरी मस्जिद के ऊपर पताका भी लगायी गयी। पूरे मस्जिद पर बिजली के झालरों की सजावट की गयी हाथी घोड़ा बैंड बाजे के साथ शोभायात्रा का आयोजन हुआ रामजन्मभूमि मुक्त कराने के नारे के साथ रामकोट की परिक्रमा लोगों ने की।  इस जुलुस में काफी लोगों की भागीदारी रही। इस समारोह में कांग्रेस के स्थानीय जिलाध्यक्ष भी शामिल हुए।

वर्ष 1983 में राम प्राकट्योत्सव पर विशेष सजावट

इस दौरान एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम यह भी रहा कि विश्व हिन्दू परिषद का अयोध्या में कोई कार्यक्रम आयोजित था जिसमें अशोक सिंघल भी आये थे और बाबरी मस्जिद के बगल के मानस भवन ट्रस्ट में ठहरे थे। 1984 में विज्ञान भवन एनेक्सी में अपै्रल में विश्व हिन्दू परिषद धर्मसंसद की हुई बैठक में छठें प्रस्ताव के रुप में अयोध्या, मथुरा, काशी को मुक्त कराने का प्रस्ताव पास किया और इसी के साथ इस विवाद में विश्व हिन्दू परिषद सक्रिय हुई उसने रामजन्मभूमि मुक्ति रथयात्रा निकाली जिसे पूरे प्रदेश भर में घुमाया जिसमें राम सीखजों में कैद दिखाये जाते थे और गांव में इन्हें रोककर रात में प्रोजेक्टर के माध्यम से इतिहास दिखाया जाता था। इन कार्यक्रमों के पीछे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ होता था लेकिन प्रेसनोट में विभिन्न दूसरे संगठनों के नाम और व्यक्तियों के नाम लिखे होते थे।

श्रीमती इंदिरा गांधी की अक्टूबर में हुई हत्या के दिन गाजियाबाद तक कई रामजानकी रथ पहंुच चुके थे जिन्हें स्थगित कर दिया गया था। इन रथों को दिल्ली जाना था और वहीं पर मीटिंग होनी थी जिसके बाद प्रधानमंत्री से मिलना भी प्रस्तावित था ऐसा इसके संचालकों का कथन था। 21 जुलाई 1984 में अयोध्या में रामजन्मभूमि मुक्तियज्ञ समिति का गठन किया जिसका अध्यक्ष गोरक्षपीठाधीश्वर महन्त अवैद्यनाथ को तथा अयोध्या के महन्त रामचन्द्र परमहंस तथा महन्त नृत्यगोपाल दास को उपाध्यक्ष बनाया गया।

1974 में पुरातत्वविद प्रो. बीबीलाल ने अयोध्या में कई स्थानों पर खुदाई की जिसकी आंशिक रिपोर्ट 1976-77 में आयी। उन्होंने बाबरी मस्जिद के पीछे ढ़लान पर और महाराजा इंटरकालेज तथा कई अन्य स्थानों पर खुदाई की थी।
अयोध्या जो एक छोटी सी जगह का विवाद था वह अदालती दांव-पेंच में फंसता गया।

देश के आजाद होने और सोमनाथ मंदिर के निर्माण की सुगुबुगाहट के बीच अयोध्या में एक ऐसा तबका था जिसका मानना था कि अब देश आजाद हो गया है मुसलमंानों के लिए पाकिस्तान बन गया है इसलिए उन सभी स्थानों कोबदल दिया जाना चाहिए जिनके बारे मेे कहा जाता है कि आक्रान्ताओं ने तोड़ा और अपने धर्मस्थल बनायें। यद्यपि इसका कोई प्रमाण उन लोगों के पास नहीं था लेकिन आजादी के बाद देश के विभाजन ने इतनी कडुवाहट पैदा कर दी थी जिसने आग में घी डालने जैसा काम किया।

1857 में आजादी की पहली लड़ाई के दौरान इस विवाद को हल करने के लिए आजादी के आंदोलन में लगे बाबा रामचरण दास और मोलवी अमीर अली ने आजादी की लड़ाई के किसी प्रकार की फूट न पडे़ इसके लिए आगे आकर समझौता करने का प्रयास किया जो अंग्रेजो को नागवार गुजरा और उन्होंने इन दोनों को ही कहा जाता है कि कुबेर टीले के पास इमली के पेड़ पर फांसी पर लटका दिया।

आजादी के बाद पैदा हुआ यह ऐसा विवाद था जिसकी डोर राजनीति के हाथ में रही जिसका प्रभाव न सिर्फ अयोध्या पर पूरे देश और उसकी राजनीति पर पड़ा। समाज का ताना-बाना टूटा और यह राजनीति के फायदे और नुकसान की धुरी बन गया

आजादी के बाद  अयोध्या में बदलाव की बयार लगभग 40 साल बाद बहनी शुरू हुई। एक ओेर विवाद अदालत में निचली अदालत से हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की सीढ़िया चढ़ता रहा वहीं 1984 से विश्व हिन्दू परिषद ने आंदोलन छेड़ दिया। जिसके फलस्वरूप पहले सरयू में लोगो को बुलाकर राममंदिर के लिए संकल्प लेने की शुरूआत हुई और  उसके बाद लखनऊ के बेगम हजरतमहल में सम्मेलन आयोजित किया।

इस सम्मेलन में हिन्दू जनता का उभार देखते हुए विश्व हिन्दू परिषद ने अपने कदम पीछे नहीं किये फिर तो आंदोलन का सिलसिला चल निकला पहले ताला खोलने के लिए फिर शिलान्यास के लिए और उसके बाद विवादित ढांचे को हटाने के लिए कारसेवा के नाम पर 30 अकटूबर और 2 नवम्बर 1990 का गोलीकाड भी है जिसने विश्व हिन्दू परिषद और भारतीय जनता पार्टी को संजीवनी दे दी।

उत्तर प्रदेश में बहुमत से भाजपा की सरकार बन गयी ।तब राममंदिर के निर्माण में आठ बाधाएं गिनायी गयीं जिसमें आखिरी बाधा विवादित ढाचा बताया गया। ं इन सब आंदोलनों ने इस बदलाव ने समाज के पूरे ताने-बाने को तहस-नहस कर दिया। कांग्रेस रक्षात्मक रही उसने अदालत का रास्ता अख्तियार करके ताला भी खोलवा दिया। शिलान्यास भी करवा दिया यही नहीं मंदिर निर्माण की रूपरेखा भी बना डाली

लेकिन विश्व हिन्दू परिषद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को लगा ऐसे तो सारा श्रेय कांग्रेस को चला जायेगा और उसने अपने साधुओं को मना कर दिया कि कांग्रेस के चक्कर में न आयें। उसने राममंदिर निर्माण के लिए तीन लाख स्थानों पर शिलापूजन कराकर जबरदस्त तरीके से गांव से लेकर शहर तक अपने साथ जोड़ लिया। अन्ततः जैसी की उसकी रणनीति थी आठवीं बाधा भी तीन लाख कारसेवकों को जुटाकर भाजपा विश्व हिन्दू परिषद और अपने अन्य अनुषांगिक संगठनों के शीर्ष नेताओं की उपस्थिति में 1992 में हटा दिया।

कांग्रेस के बहुत से नेता विश्व हिन्दू परिषद के आंदोलनों के साथ चुपके-चुपके और कहीं कही खुलकर मिल-जुल गये। जो दाऊदयाल खन्ना मुरादाबाद से कांग्रेस के विधायक और सरकार में मंत्री थे उन्होंने ने ही मुजफफरनगर में 23 मार्च1983 को अयोध्या मथुरा काशी को मुक्त कराने का प्रस्ताव विश्व हिन्दू परिषद की मीटिंग में पढ़ा था जिसमें कर्णसिंह भी मौजूद थे।

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ये लेखक के निजी विचार हैं. 

सुमन गुप्ता पत्रकार

सुमन गुप्ता अयोध्या से प्रकाशित दैनिक जैन मोर्चा की सहायक सम्पादक एवं विशेष संवाददाता है. एक लम्बे अरसे से वह इस मसले पर लिखती रही है. 

 

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