आत्म निर्भर गाँव के लिए राज्यसत्ता की पुनर्रचना करनी होगी

आत्मनिर्भरता के मायने 

चंद्र शेखर प्राण

डॉ. चन्द्रशेखर प्राण

पिछले  राष्ट्रीय पंचायत दिवस के अवसर पर “आत्मनिर्भरता” को प्रधानमंत्री ने कोरोना महामारी का सबसे बड़ा सन्देश बताते हुए इसकी शुरुआत गांव से किये जाने पर जोर दिया ।आत्मनिर्भरता का आशय क्या है, इसे समझाना बहुत जरुरी है। यदि इसे सरलता से समझें तो इसका सीधा अर्थ अपने ऊपर निर्भर होना है। लेकिन किस चीज के लिए? यह समझाना ज्यादा महत्वपूर्ण है।

 मनुष्य जीवन के दो आयाम हैं। पहला जीवन का होना अर्थात उसका अस्तित्व। दूसरा जीवन का विकास अर्थात ज्ञान ,कला ,प्राद्योगिकी आदि के साथ साधनों की उपलब्धता और सम्पर्क का विस्तार जैसी चीजें।

इसमें पहली चीज ऐसी है कि जब वह होगी तभी दूसरी होगी। इसी नाते आत्मनिर्भरता मूलत: पहले के अर्थ में अधिक प्रासंगिक है अर्थात स्वयं के होने के लिए हैं। यह अस्तित्व से जुड़ी है। अगर इसके लिए हम किसी और पर आश्रित हों तो सोचिये हम कहां खड़े हैं और कब तक खड़े रहेंगे?हमारे जीवन या अस्तित्व की शर्त क्या है ? वह किस पर टिका होता है ?

मोटे तौर पर हवा, पानी और भोजन। लेकिन एक कदम और आगे बढ़े अर्थात सामाजिक अस्तित्व के लिए तो कपड़ा व मकान भी अनिवार्य हो जाता है। इस प्रकार ये पांच चीजें हमारे व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन की ऐसी आवश्यकता है जिसके अभाव में वह सम्भव ही नहीं है। मोटे रुप में यह मनुष्य की मूलभूत भौतिक आवश्यकता है और यह आवश्यकता मुख्य रूप से इन्हीं पांच भौतिक तत्वों से बने शरीर की आवश्यकता है। शरीर है तभी हमारा अस्तित्व है व दुनिया में हमारा होना सिद्ध होता है। इस नाते मोटे तौर पर इन पांचों चीजों के लिए स्वयं पर निर्भर होना ही आत्मनिर्भरता है। इसके आगे की आवश्यकता विकास के लिए है ,जिसके लिए सामान्यत: दूसरे की सहायता आवश्यक हो जाती है।

जिन पांच चीजों -हवा, पानी, रोटी, कपड़ा और मकान, की चर्चा ऊपर की गई वे मूलत: धरती पर सभी प्राणियों के लिए प्रकृति के रुप में ईश्वर का वरदान है। जो सब के लिय सहज उपलब्ध है। इसमें से हवा तथा पानी को उसके प्राकृतिक रुप में ही उपयोग किया जाता रहा है, लेकिन मनुष्य  रोटी, कपड़ा और मकान की जरुरत को पूरा करने के लिए सभ्यता और सुविधा के नाम पर अपने तरीके से प्रसंस्कृत करके उसे उपयोग में  लाने लगा है।

प्रकृति ने हवा तथा पानी का  विपुल भंडार  बिना किसी रोक टोक के दे रखा है। शताब्दियों से हम उसका उपयोग करते आ रहे हैं। वैसे तो वह भविष्य के लिए भी संरक्षित है, लेकिन पिछ्ले कुछ दशकों से जिस तरह से उसका दोहन,दुरुपयोग तथा दूषण हो रहा है उससे वह भी संकट के दायरे में है।

मनुष्य को मुख्य रुप से अपनी रोटी (स्वस्थ जीवन के लिए पोषक तत्व), मकान (गर्मी, बरसात तथा ठंड से बचत व सुरक्षा का आधार) और कपड़ा (सामूहिक जीवन के लिए जरुरी उपकरण) की चिंता करनी होती है।जब इसे वह अपनी सामर्थ्य से जुटा लेता है तो वह आत्मनिर्भर होता है। अपने जीवन व अस्तित्व के लिए किसी और के भरोसे या दया पर निर्भर नहीं होता। वैसे तो व्यक्तिगत स्तर पर इन तीनों की न्यूनतम सामान्य  व्यवस्था वह स्वयं कर ही लेता रहा लेकिन अपने स्वभाव व आवश्यकता के कारण सहज रुप से निर्मित समाज के  सामुदायिक जीवन हेतु विकसित परिवार और पड़ोस के सदस्यों के परस्पर सहयोग से इसकी पूर्ति करने लगा। इसी सामुदायिक इकाई को गांव की संज्ञा मिली। यह परस्पर सहयोग इसी अर्थ में  गांव की आत्मनिर्भरता का मूल कारक तत्व व आधार बनता है।

प्रधानमंत्री ने अपने सम्बोधन में चार स्तरों (गाँव, जिला, राज्य व राष्ट्र) की आत्मनिर्भरता की बात की है। महात्मा गांधी और जय प्रकाश नारायण ने इसके पाँच स्तर बताये थे। इन चारों के अतिरिक्त गाँव और जिले के बीच में कुछ गॉवों के समूह को भी एक स्तर माना था, जिसे क्षेत्र या ब्लॉक की संज्ञा दी गई है। वास्तव में आत्मनिर्भरता के लिए यही पाँच क्षेत्र होने भी चाहिए। ये ज्यादा व्यावहारिक व सुविधाजनक है। 

उदाहरण के तौर पर गाँव प्राथमिकता के आधार पर अपनी ऊपर वर्णित जरूरतों की पूर्ति अपने गाँव के स्तर पर ही करने की कोशिश करें उसमें से जो संभव न हो पा रहा हो उसके लिए कुछ गाँव मिलकर अपनी सुविधा और संपर्क के अनुसार आसपास के गांवों के समूह बनाकर उसकी पूर्ति करें। यदि इससे भी कुछ चीजें छूट जाती है तब जिला स्तर पर या उससे ऊपर जाने की जरूरत पड़ती है। यहाँ यह महत्वपूर्ण है कि अस्तित्व (व्यक्ति और गाँव और दोनों के) के लिए आवश्यक साधनों की उपलब्धता गाँव में ही हो इसका प्रयास किया जाना चाहिए। गाँव से बाहर उन्हीं चीजों के लिए सहयोग या आश्रय लिया जाय जो किसी भी दशा में गाँव के स्तर पर फिलहाल संभव नहीं है। फिलहाल शब्द का प्रयोग इसलिए है कि गाँव देर सवेर अपनी क्षमता को बढ़ा कर इस वस्तुस्थिति को बदल भी सकता है। 

इसी प्रकार क्षेत्र या ब्लॉक के स्तर की आवश्यकता व क्षमता का भी आंकलन करके उसकी आत्मनिर्भरता की रेखा निर्धारित करनी होगी। संभव है ज्यादातर भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति इसी स्तर तक या जिला तक पूरी हो जाय, उससे ऊपर अर्थात प्रदेश या देश के स्तर पर जाने की आवश्यकता ही न पड़े, यदि पड़े भी तो बहुत कम। गाँव की आत्मनिर्भरता का यही स्वरूप सबसे बेहतर होगा। लेकिन यहाँ यह स्पष्ट होना जरूरी है कि प्रदेश तथा देश की आवश्यकतायें इससे अलग तरह की होगी, वहां सिर्फ जीवन यापन की मूलभूत भौतिक आवश्यकतायें ही नहीं होगी बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य, संचार, सुरक्षा (आंतरिक व वाह्य दोनों), प्रौद्योगिकी जैसी जरूरतों की प्राप्ति इस स्तर पर प्राथमिकता का विषय होगी। 

इस प्रकार इन पांचों स्तर की आत्मनिर्भरता के बीच में रूपगत भिन्नता होगी लेकिन मूल्यगत नहीं। मूल्यगत भाव यही होगा कि सभी स्तर अपनी अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं के लिए स्वयं के स्तर पर ही अधिकतम साधन पैदा करने का उपक्रम करें जो संभव हो पा रहा हो उसे क्रमशः अगले स्तरों के सहयोग से जुटाने का प्रयास करें। गाँव से लेकर देश स्तर की आत्मनिर्भरता का यही अर्थ व स्वरूप हो सकता है। 

आत्मनिर्भरता का यह स्वरूप और भाव सिर्फ साधनों की दृष्टि से ही नहीं बल्कि शासन और न्याय की दृष्टि से होना चाहिए। क्योंकि जीवन चाहे वह व्यक्ति का हो या किसी समाज अथवा देश का, वह समग्रता में होता है खंडों में नहीं। इसी नाते आत्मनिर्भरता को भी समग्रता में भी देखना होगा। इसी अर्थ में राजनैतिक सत्ता और आर्थिक व्यवस्था दोनों के विकेन्द्रीकरण की बात की जाती रही है। जिसे महात्मा गांधी से लेकर आज तक के सभी राष्ट्रनायकों में एक स्वर से सुना जा सकता है। यह अलग बात है कि कौन कितना ईमानदारी के साथ इसे व्यवहारित कर रहा था या करेगा। 

आत्मनिर्भरता का यह स्वरूप और भाव सिर्फ साधनों की दृष्टि से ही नहीं बल्कि शासन और न्याय की दृष्टि से होना चाहिए। क्योंकि जीवन चाहे वह व्यक्ति का हो या किसी समाज अथवा देश का, वह समग्रता में होता है खंडों में नहीं। इसी नाते आत्मनिर्भरता को भी समग्रता में भी देखना होगा। इसी अर्थ में राजनैतिक सत्ता और आर्थिक व्यवस्था दोनों के विकेन्द्रीकरण की बात की जाती रही है। जिसे महात्मा गांधी से लेकर आज तक के सभी राष्ट्रनायकों में एक स्वर से सुना जा सकता है। यह अलग बात है कि कौन कितना ईमानदारी के साथ इसे व्यवहारित कर रहा था या करेगा।

आत्मनिर्भरता को ही दूसरे शब्दों में स्वावलंबन के रूप में उद्घृत किया जाता है। यह स्वावलंबन बिना स्वराज्य के, प्राप्त नहीं किया जा सकता। यदि देश को स्वराज्य अर्थात आजादी (अपने बारे में विचार करने की, निर्णय लेने की और करने की) न मिलती तों स्वावलंबी होने का सपना ही बेमानी था। इसी प्रकार प्रदेश, जिला और गाँव को भी अपनी आवश्यकता और सीमा में जब स्वराज्य मिलेगा तभी उसके स्वावलंबी अथवा आत्मनिर्भर होने का मार्ग खुलेगा। 

आजादी के समय महात्मा गांधी के सपनों के अनुसार देश को स्वराज्य और स्वावलंबन की दृष्टि से आगे ले जाने के लिए संविधान का एक वैकल्पिक गांधीवादी ड्राफ्ट श्रीमन नारायण अग्रवाल द्वारा तैयार किया गया था। जिसमें सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक व्यवस्था का जो प्रारूप दिया गया था वह इसी दिशा में था। यह अलग बात है कि उसके अनुसार संविधान को तैयार नहीं किया जा सका और आज भी यदि दृढ़ संकल्प और ईमानदारी के भारतीय राष्ट्र और उसके गांवों की आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं तों हमें एक बार पुनः गाँव समाज के पुनर्जागरण और राज्यसत्ता की पुनर्रचना पर विचार करना होगा। इसी से गांवों में पुनर्निर्माण का रास्ता खुलेगा जो गाँव के साथ साथ भारतीय राष्ट्र के सभी स्तरों को सही अर्थों में आत्मनिर्भर बनायेगा। 

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