शहीद क्रांतिकारी अश्फ़ाक़ और गणेशशंकर विद्यार्थी

जयंत दीवान

काकोरी षड्यन्त्र के शहीद क्रांतिकारी अश्फ़ाक़उल्लाह खां के भाई रियासतउल्लाह खां ने संस्मरण लिखा!

यह संस्मरण ‘गणेशशंकर विद्यार्थी और उनका युग’, संपादक: सुरेश सलिल किताब से लिया गया है।

अश्फ़ाक़ को तारीख 19 दिसंबर 1927 को फ़ैजाबाद में फांसी दी गयी। विद्यार्थी जी कांग्रेस और क्रांतिकारियों के बीच के सेतु थे।

क्रांतीकारियों का विद्यार्थी जी पर कितना विश्वास था, यह इस संस्मरण से पता चलता है। क्रांतिकारियों से संबंध रखना यानी ब्रिटिश हुकूमत का रोष अपने उपर लेना था। यह समझते हुए भी विद्यार्थी जी जिस हिम्मत व आत्मविश्वास से डटे रहते थे, यह मामूली बात नहीं थी।

अब पढिये अश्फ़ाक़ के भाई का संस्मरण, उन्हीं के शब्दों में –

अपील खारिज होने पर 16 अक्तूबर 1927 ई. को सजा-ए-मौत मुकर्रर हुई। मैं अश्फ़ाक़उल्लाह खां से मिला। उन्होंने मुझसे कहा कि श्री गणेशशंकर विद्यार्थी से मिलिए।

मैं वहां गया तो मालूम हुआ कि विद्यार्थीजी सख्त बीमार हैं और किसी से मिलते नहीं। मैं जनाने दरवाजे पर गया, इत्तला कराई। मैं अंदर बुला लिया गया।

मकान के बालाखाने पर बुलाया गया। वहां एक लंबा कमरा था, जिसमें विद्यार्थीजी एक पलंग पर लेटे थे। सावधान हो चुके थे। मैं बालाखाने के दरवाजे पर गया, तो देखा दो औरतें बैठी हैं। मैं झिझका।

बहुत कमजोर आवाज में विद्यार्थीजी ने फरमाया, ‘अंदर आ जाइए!’ एक आपकी भावज हैं और दूसरी आपकी भतीजी।’ मैं अंदर गया। विद्यार्थीजी के आंसू जारी थे, जिन्हें वह बार-बार पोंछ रहे थे।

मुझसे कहा, “आप कृपाशंकर हजेला एडवोकेट से तार भिजवा दीजिए, कि हम प्रिवी कौंसिल में अपील करेंगे कि सजा-ए-मौत अभी टाल दी जाए। आप घर जाइए, हम रुपया आपको भेज देंगे।”

मैं वहां से घर गया और तार दिलवा दिया। दूसरे रोज मैं शाहजहांपुर से लखनऊ फिर आया और मैंने पचास पौंड कृपाशंकर हजेला एडवोकेट को दिए। उन्होंने तार गवर्नमेंट को भेज दिया। मैं रुपया जमा कर चुका था कि श्री गणेशशंकर विद्यार्थी का एक आदमी एक लिफाफा सील मुहर लगा हुआ लेकर आया। मैंने खोलकर देखा तो बारह सौ रूपये के नोट थे। चूँकि मैं रुपया जमा कर चुका और अब रुपये की जरूरत नहीं थी, मैंने एक लिफाफा श्री कृपाशंकर जी हजेला से लेकर, एक पर्चे पर गणेशशंकरजी का शुक्रिया अदा करते हुए लिखा चूँकि मैं रुपया जमा कर चुका हूं, इन रुपयों की जरूरत अब नहीं है, अतः वापस किए जाते हैं।

लिफाफे में बंद करके, हजेला साहब की मोहर लगाकर रुपये मैंने वापस कर दिए। खत में लिख दिया कि आपका हजार-हजार शुक्रिया।

श्री कृपाशंकर हजेला ने और मिस्टर सी.बी. गुप्ता एडवोकेट ने कुल मुकदमे के कागजात विलायत को रवाना कर दिए। विलायत में अपील पेश होने पर खारिज हो गई और 19 दिसंबर, 1927 की सजा-ए-मौत मुकर्रर हुई।”

18 दिसंबर को अश्फ़ाक़ कंडेम्ड सेल से गणेशशंकर विद्यार्थी के नाम एक तार भेज चुके थे, जिसमें लिखा था – ’१९ दिसंबर को दो बजे दिन में लखनऊ स्टेशन पर मुझे मिलना। उम्मीद है, आप मुझसे आखिरी मुलाकात जरुर करेंगे।’

स्टेशन पर विद्यार्थीजी नौ साथियों के साथ मौजूद थे। वे डिब्बे के अंदर आए और अश्फ़ाक़ के चेहरे से कफन हटा कर शहीद के अंतिम दर्शन किए। परसी शाह फोटोग्राफर से एक फोटो खिंचवाया। उस समय दस घंटे बाद भी, अश्फ़ाक़ के चेहरे पर अपूर्व शांति थी, मानो अभी-अभी नींद में सोए हों. पर यह नींद अनंत थी, कभी न टूटनेवाली…

(उस मौके पर गणेशशंकर विद्यार्थी ने रियासतउल्लाह खां से कहा था – “इनकी कच्ची कब्र बनवा देना, हम पुख्ता करा देंगे, और इनका मकबरा हम ऐसा बनवाएँगे जिसकी नजीर यू.पी. में न होगी.” – सु.स.)

…विद्यार्थीजी ने तब मोहनलाल सक्सेना के द्वारा दो सौ रुपये भेज दिए, जिससे उनकी कब्र पक्की करा दी गई. पर कानपुर के हिंदू-मुस्लिम दंगे में विद्यार्थीजी के शहीद हो जाने से अश्फ़ाक़उल्लाह के मकबरे का कार्य पूरा नहीं हो सका…

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