सपनों को पूरा करने की जिद पाल लेने का संदेश देती ‘मनोज बाजपेयी कुछ पानी की जिद’

 पीयूष पांडे की लिखी यह किताब आपको बिहार के चंपारण जिले से निकले मनोज बाजपेयी के दिल्ली के नाटकों से होते हुए मुंबई के फिल्मी जगत तक पहुंचने की पूरी कहानी बताती है
विभिन्न समाचार पोर्टलों, मनोज बाजपेयी के ब्लॉग, यूट्यूब, लेखक द्वारा मनोज के परिचितों से साक्षात्कार, विभिन्न मैगज़ीनों की सहायता से लेखक ने बड़ी मेहनत से इस किताब को लिखा है और सबसे अच्छी बात यह है कि वह स्त्रोतों को संदर्भित भी करते गए हैं। किताब के अंत में आपको संदर्भ सूची मिलती है
किताब का आवरण चित्र मनोज की गंभीरता को दिखाता है ,यह वही गंभीरता है जो हम उनके अभिनय में देखते हैं। पिछले आवरण पर मनोज द्वारा किताब के पाठकों के लिए एक संदेश है। वहां पर प्रकाश झा और बैरी जॉन ने भी मनोज के लिए टिप्पणी लिखी हैं, जिन्हें पढ़ आप चाहेंगे कि अब तो किताब खोल मनोज के सफर को जानने की शुरुआत कर ही लेनी चाहिए।
किताब का पहला पन्ना लेखक पीयूष पांडे के बारे में यह जानकारी देता है कि वह वरिष्ठ पत्रकार हैं और मनोज बाजपेयी से उनका पुराना परिचय है।इसके बाद लेखक ने किताब को जिन शब्दों के साथ अपने पिता को समर्पित किया है ,उससे उनकी बेहतरीन लेखन कला का हल्का सा नमूना दिखता है।
भूमिका में लेखक ने बताया है कि लेखक अपनी युवावस्था में मनोज द्वारा ‘सत्या’ फिल्म में निभाए किरदार से बहुत प्रभावित हुए थे। यहां लेखक यह भी बताते हैं कि उनका मनोज की जीवन गाथा लिखने का कारण उनकी अद्भुत अदाकारी नहीं बल्कि अभिनेता बनने का उनका सफर है। लेखक यह चाहते हैं कि मनोज के सहयोग से लिखी इस किताब की वजह से मनोज के बारे में लोगों तक सही जानकारी पहुंचे क्योंकि इंटरनेट में मनोज के बारे में बहुत सी भ्रामक खबरें हैं। लेखक के अनुसार मनोज बाजपेयी के संघर्षों की कहानी लाखों युवाओं कोप्रेरित कर सकती है।किताब में लेखक ने मनोज की कहानी को 21 हिस्सों में बांटा है।
किताब की प्रस्तावना से आपको मनोज के बड़े दिल वाले होने का पता चलेगा। पहले अध्याय में ही आपको ‘चंपारण के फिल्मी लाल’ जैसा आकर्षक शीर्षक मिलेगा, क्योंकि किताब का लेखक एक पत्रकार है इसलिए यह आकर्षित करने वाला होना ही था।किताब में लिखी हुई हिंदी बहुत ही आसान शब्दों में है। मनोज के जन्मस्थान और उनके परिवार के इतिहास के बारे में लेखक ने विस्तार से जानकारी दी है और यह जरूरी भी जान पड़ता है। हर अध्याय की शुरुआत में मनोज के शब्दों को जिस तरह से जगह दी गई है उससे यह लगता है कि मनोज भी सीधे तौर पर किताब के पाठकों से जुड़े हुए हैं।इसके आगे आप पढ़ेंगे कि किताब में मनोज के काम के प्रति समर्पित भाव को लिखा गया है ।यहां पर आपको यह भी पता चलता है कि अभिनेता मनोज कुमार के नाम पर ही मनोज बाजपेयी का नाम मनोज रखा गया था।नीलेश मिश्रा को दिए गए इंटरव्यू में मनोज के कहे हर शब्द पढ़ने लायक हैं और इनके द्वारा लेखक मनोज के अपने गांव से लगाव को समझाने में कामयाब हुए हैं।
‘एक्टिंग का भूत पूत का पांव पालने में’ यह पढ़ते हुए पाठकों के चेहरे पर मुस्कुराहट भी आ जाती है।
‘डार्लिंग दिल्ली’ में दिल्ली को लेकर मनोज का बयान बड़ा रोचक है । मनोज के दिल्ली आने की कहानी पर बहुत सी भ्रांतियां हैं, इन्हें सही करने की कोशिश भी करी गई है।पृष्ठ संख्या 35 आते-आते पाठक किताब में खुद को खोता हुआ महसूस करने लगेंगे।
‘या कहें हर गांव कभी ना कभी शहर बनता है लेकिन शहर कब गांव की तरफ लौटता है’ इस पंक्ति के साथ मनोज की एक यात्रा समाप्त होती है तो मनोज की नई यात्रा की शुरुआत होती है।एनएसडी का ख्वाब पाले दिल्ली पहुंचे मनोज की एनएसडी में एडमिशन पर विफलता की कहानी पढ़ते पाठक किताब से बंधे हुए रहते हैं। मनोज की पहली नौकरी जैसे किस्सों के साथ कहानी आगे बढ़ती हैं।
कलात्मक लोगों के लिए दिल्ली सीखने का गढ़ है किताब पढ़ते यह संदेश हमें मिलता रहता है।किताब में विनीत कुमार के इन शब्दों से हम यह जान सकते हैं कि मनोज बाजपेयी में सीखने की कितनी ललक थी ‘ मैंने एक दिन सुबह-सुबह देखा कि हल्की-हल्की बारिश हो रही है। लेकिन मैदान में लुंगी पहने एक लड़का सबसे बेखबर नृत्य सीख रहा है । अनुशासन और समर्पण से सराबोर यह छवि मैं कभी भूलता नही’।
अध्याय 7- डार्लिंग दिल्ली: अभिनय के दूसरे गुरु, इस अध्याय तक पहुंचते आप किताब के सामने लगभग तीन घंटे गुजार चुके होंगे लेकिन आपको समय बड़ी तेजी से निकलता महसूस होगा।जीवन में सफलता पाने के लिए मूल मंत्र  ‘डोंट टॉक डू इट’ से भी आपका यहां परिचय होगा।
किताब पढ़ते अभिनय में रुचि रखने वाले युवा काफी कुछ सीख सकते हैं । यहां पर आपको बॉलीवुड के दिग्गजों के बीच के आपसी संबंधों का भी पता चलता है।मनोज बाजपेयी और रामगोपाल वर्मा के आपसी संबंधों के बारे में पढ़ना एक सबक देता है और यह किताब का सबसे आकर्षण वाला हिस्सा भी है।किताब यह संदेश देने की कोशिश भी करती है कि बॉलीवुड में परिवारवाद ही सब कुछ नहीं है। बॉलीवुड में मेहनत करने वाले रचनात्मक लोगों के लिए भी जगह है।
 लेखक ने मनोज के दिल्ली के कोने-कोने से जुड़ाव को भी बखूबी लिखा है।
‘डार्लिंग दिल्ली: एक्ट वन’ अध्याय में नाटक के दौरान सैट गिरने का किस्सा मनोज के हुनर को दिखाता है।इस अध्याय से ही मनोज के जीवन में ‘नेटुआ’ नाटक के महत्व का भी पता चलता है।किताब पढ़ते आपको यह पता चलेगा कि अभिनय के दौरान तात्कालिक प्रदर्शन मनोज बाजपायी के अभिनय में जान फूंकने का काम करता है।
लेखक मनोज के द्वारा अपने पिता को लिखे पत्र का जिक्र करते हैं, यह पत्र बच्चों पर अपनी मर्जी थोपने वाले माता-पिताओं को यह संदेश देता है कि बच्चों को जो वो चाहें वह करना देना चाहिए।किताब आगे पढ़ते हुए गजराज राव द्वारा मनोज पर लिखे शब्दों से आप समझ जाएंगे कि युवा मनोज में कितनी संभावनाएं नजर आने लगी थी। गजराज ने कहा कि कई बार ऐसा हुआ कि मैं मंच पर मनोज को अभिनय करते देखता तो खो जाता।
लेखक ने मनोज की प्रेम कहानियों को भी बड़ा संभाल कर लिखा है।एक बात तो तय है कि किताब पढ़ते-पढ़ते आप यूट्यूब पर आठ करोड़ से ज्यादा बार देखे गए ‘सत्या’ फ़िल्म के ‘सपनों में मिलती है’ गाने को फिर से प्ले जरूर करेंगे।
अमिताभ बच्चन से मनोज की पहली मुलाकात का किस्सा पढ़ने योग्य है।’सत्या’ अध्याय में आप एक पिता को गर्वित होते भी पढ़ेंगे, जो शायद आप में भी कुछ कर गुजरने की ऊर्जा दौड़ा दे।
लेखक ने किताब में मनोज वाजपेयी के जीवन में उनकी मां के प्रभाव को भी लिखा है, यह हम उनकी मां द्वारा कही गई एक पंक्ति से समझ सकते हैं ‘मनोज अवार्ड मिलना अच्छी बात है ,लेकिन जिसे सफलता नहीं मिली उसे कभी बेवकूफ मत समझना’।
मनोज और शबाना की प्रेम कहानी भी बिना किसी लाग लपेट के लिखी गई है उसके लिए लेखक बधाई के पात्र हैं। अध्याय 18 ‘एक निराशाजनक दशक’ मनोज के जीवन के निराशाजनक दौर को दिखाता है जो शायद हर कलाकार के जीवन में एक बार आता है।यहां पर मनोज की फिल्म ‘हनन’ के बारे में भी बात ही गई है जिसके बारे में लोगों को शायद ही पता हो।मनोज के जीवन में जो लोग मुश्किल वक्त में साथ छोड़ गए थे वह उनके अच्छे समय मे वापस लौट आए ,इसे भी लेखक ने बखूबी लिखा है।
मनोज बाजपेयी और शाहरुख खान के आपसी संबंधों पर लेखक किताब में थोड़ा दोहराव करते दिखते हैं पर काफी पन्नों बाद इन दोनों के रिश्तो का जिक्र आना इस गलती को माफ करने योग्य बनाता है।
अंतिम पन्नो के करीब पहुंचते किताब यह स्पष्ट कर देती है कि मनोज हमेशा से सितारा नहीं कलाकार बनना चाहते थे और वह बने भी।
फिल्म ‘1971’ बनने की कहानी को लेखक ने बड़े विस्तार से लिखा है। किताब आगे पढ़ते हुए आपको समय के साथ फिल्मों की पब्लिसिटी की जरूरत पर भी मनोज का नजरिया पढ़ने को मिलेगा।
हाल ही में आई फिल्में ‘जय भीम’ और ‘झुंड’ से समाज बदलने की जो उम्मीद लगाई जा रही है ,उस पर पृष्ठ 180 और 181 में मनोज का लिखा पढ़ा जाना आवश्यक है और मात्र उसे पढ़ने के लिए ही किताब खरीदी जा सकती है।
‘अलीगढ़’ फिल्म के बारे में लिखते लेखक अपनी किताब में एक समीक्षक का किरदार भी निभा जाते हैं।
अध्याय 20 ‘अच्छे दिन’ तक पहुंचते हुए आपको यह लगने लगेगा की शायद किताब जल्दी खत्म हो रही है।  मनोज के हाल के वर्षों की कहानी लिखने में लेखक शायद जल्दबाजी कर गए। जितना समय उन्होंने मनोज के संघर्ष के दिनों को दिखाने में लिया उतना उन्हें मनोज की सफलता के दिनों को दिखाने के लिए भी लेना चाहिए था।
किताब के अंतिम अध्याय में एक पंक्ति है ‘वो भले ही 100 करोड़ मार्का फिल्मों के सुपरस्टार नहीं रहे लेकिन 100 करोड़ मार्का फिल्मों का हर नायक उनसे रश्क करता है कि काश, एक्टिंग में वह भी मनोज के बराबर हो पाते’।
मनोज बाजपेयी के फिल्मी कैरियर पर लिखी यह पंक्ति मनोज के अभिनय का लोहा मनवाती है।
एक व्यक्ति को समझने उस पर लिखने के लिए बहुत मेहनत की आवश्यकता होती है और लेखक काफी हद तक मनोज बाजपेयी की कहानी को हम तक पहुंचाने में कामयाब हुए हैं।जीवनी कैसे लिखी जाती है, यह किताब उसका अच्छा उदाहरण है। जिन लोगों में ‘कुछ पाने की जिद’ है वह सब किताब खरीद कर पढ़ सकते हैं।
पुस्तक- मनोज बाजपेयी

कुछ पाने की जिद

लेखक- पीयूष पांडे

प्रकाशक- पेंगुइन बुक्स

मूल्य- 299 ₹

लिंक- https://www.amazon.in/dp/0143451219

समीक्षा- हिमांशु जोशी

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